
राजा जनक को आत्मतत्व की, उस ब्रह्म की पूर्ण अनुभूति हो गई, एक साथ समग्र का ज्ञान हो गया। वे आश्चर्यमय होते हुए स्वयं को ही नमस्कार करते हुए कहते हैं कि यद्यपि मैं देहधारी हूँ फिर भी अद्वैत का बोध हो गया है। सामान्यतया देहधारी स्वयं को परमात्मा से भिन्न मानते हैं एवं जिसका देहाध्यास मिटा नहीं है वे आत्मा को भी सभी देहों में भिन्न मानते हैं। यह भिन्नता अज्ञान से ही प्रतीत होती है।
अष्टावक्र गीता-15
मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति।
मृदि कुम्भो जले वीचिः कनके कटकं यथा।। 10।।
अर्थात: मुझसे उत्पन्न हुआ यह संसार मुझमें ही लय को प्राप्त होगा जैसे मिट्टी में घड़ा, जल में लहर और सोने में आभूषण लय
होते हैं।
व्याख्या: राजा जनक को आत्मज्ञान की स्थिति में अनुभव हुआ कि यही आत्मतत्व (ब्रह्म) वह मूल-तत्व है जिससे मैं और यह सारा संसार उत्पन्न हुआ है। यह मूल तत्व सृष्टि के आरम्भ में निराकार, अव्यक्त, असम्भूत अवस्था में था। संकल्प से इसकी चेतना में तरंग उठी व वही चेतना सृष्टि रूप मंे विकसित होती ही चली गई व चली ही जा रही है किन्तु जब इसका अन्त होगा उस समय इसकी क्या स्थिति होगी? ज्ञानी कहते हैं यह पुनः अपने मूल स्वरूप में, अव्यक्त अवस्था में आ जायेगी एवं पुनः नई सृष्टि का आरम्भ होगा। यह सृष्टि चक्र इस प्रकार चलता ही रहेगा। कुछ धर्म कहते हैं सृष्टि ईश्वर ने बनाई, वही सृष्टा है, वही निर्माता है। किन्तु यह वैज्ञानिक बात नहीं है। विज्ञान इसे स्वीकार नहीं करेगा? ईश्वर ने बनाई तो इसमें दुःख क्यों है? आदि। इसका कोई वैज्ञानिक उत्तर यह धर्म नहीं दे सकता। किन्तु सृष्टि की उत्पत्ति की यह व्याख्या वैज्ञानिक है। आज नहीं तो कल विज्ञान इसी का समर्थन करने में सक्षम होगा। जो कहते हैं सृष्टि अनादि है, उसका कोई बनाने वाला नहीं है आदि, तो इसमें कुछ सार अवश्य है कि किसी व्यक्ति जैसे ईश्वर ने इसे नहीं बनाई अपितु यह सृजन की स्वाभाविक प्रक्रिया से बनी है। इसका कोई उद्देश्य भी नहीं है। रूप-परिवर्तन होता ही रहता है। पदार्थ कभी नष्ट नहीं होता, केवल रूप-परितर्वन करता है। यह पदार्थ ऊर्जा में परिवर्तित हो सकता है व ऊर्जा से पुनः पदार्थ का निर्माण होता है। यह वैज्ञानिकों की मान्यता है। जनक भी यही वैज्ञानिक बात कह रहे हैं कि यह संसार मुझसे (आत्मा, ब्रह्म से) उत्पन्न हुआ है जो इस सृष्टि का मूलतत्व है। ये सब आकार ऊर्जा के घनीभूत रूप हैं जो विभिन्न संयोगों से बने हैं। प्रलय की स्थिति में ये रूप पुनः उस ऊर्जा में परिवर्तित होकर अरूप, निराकार, अव्यक्त में लीन हो जायेंगे जैसे घड़ा टूटकर मिट्टी रह जाता है। लहर समाप्त होने पर समुद्र शेष रह जाता है एवं स्वर्ण-आभूषणों को गलाने पर स्वर्ण ही शेष रह जाता है। वे सब अपने मूल-स्वरूप में आ जायेंगे। इस समय सृष्टि के इस मूलभूत-तत्व का नाम ही ‘ब्रह्म’ है। वही चेतन-तत्व है जिससे सृष्टि का निर्माण हुआ एवं पुनः उसी अपने मूल-स्वरूाप में लौट आयेगी। राजा जनक को इसी मूल-तत्व आत्मा की अनुभूति होने से वे इसकी वैज्ञानिक व्याख्या दे पाये। सृष्टि की उत्पत्ति एवं लय की यही वैज्ञानिक धारणा भारतीय अध्यात्म की सर्वोत्कृष्ट खोज है। वेद वाक्य भी यही तथ्य प्रकट करता है ‘जिस आत्म ब्रह्म से ये सब भूत प्राणी उत्पन्न होते हैं, जिस ब्रह्म की सत्ता से उत्पन्न होकर जीते हैं और फिर सब मरके जिसमें लय हो जाते हैं, उसी को तुम अपना आत्मा जानो।’
सूत्र: 11
अहो अहं नमो मह्यं विनाशो यस्य नास्ति मे।
ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तं जगन्नाशेऽपि तिष्ठतः।। 11।।
अर्थात: मैं आश्चर्यमय हूँ। मुझको नमस्कार है। ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त जगत् के नाश होने पर भी मेरा नाश नहीं है। (मैं नित्य हूँ)।
व्याख्या: राजा जनक फिर आत्मतत्व की विशेषता बताते हुए कहते हैं कि मैं आत्मा होने से नित्य हूँ अतः ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त समस्त जगत् का नाश हो जाने पर भी मेरा नाश नहीं है। मैं आश्चर्य मय हूँ। जब सम्पूर्ण सत्ता का आधार मैं ही हूँ तो मैं और किसे नमस्कार करूँ। मेरा मुझको ही नमस्कार है। यह ब्रह्म पारमार्थिक-सत्ता है। इसे किसी ने बनाया नहीं बल्कि इसी से सब बने हैं। सम्पूर्ण जगत् बनने पर भी उसकी पूर्णता में कमी नहीं आती। जगत् तो नाशवान् है ही किन्तु ब्रह्मा भी उस ब्रह्म का साकार रूप है
अतः वह भी नष्ट हो सकता है। जिसका निर्माण हुआ उसका ध्वंस अवश्य होगा यह सृष्टि का नियम है। इसलिए ये सब देवी-देवता, इन्द्र, ब्रह्मा आदि भी उस ब्रह्म का प्रकट स्वरूप हैं जिससे वे भी विनाश को प्राप्त होंगे केवल यह निराकार ब्रह्म ही अविनाशी है।
सूत्र: 12
अहो अहं नमो मह्यमेकोऽहं देहवानपि।
क्वचिन्न गन्ता नागन्ता व्याप्य विश्वमवस्थितः।। 12।।
अर्थात: मैं आश्यर्चमय हूँ। मुझको नमस्कार है। मैं देहधारी होते हुए भी अद्वैत हूँ। न कहीं जाता हूँ, न आता हूँ और विश्व में व्याप्त स्थित हूँ।
व्याख्या: राजा जनक को आत्मतत्व की, उस ब्रह्म की पूर्ण अनुभूति हो गई, एक साथ समग्र का ज्ञान हो गया। वे आश्चर्यमय होते हुए स्वयं को ही नमस्कार करते हुए कहते हैं कि यद्यपि मैं देहधारी हूँ फिर भी अद्वैत का बोध हो गया है। सामान्यतया देहधारी स्वयं को परमात्मा से भिन्न मानते हैं एवं जिसका देहाध्यास मिटा नहीं है वे आत्मा को भी सभी देहों में भिन्न मानते हैं। यह भिन्नता अज्ञान से ही प्रतीत होती है। जैसे सभी कुओं में जल भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है किन्तु उन सबका सम्बन्ध एक ही महासागर से है। जिस प्रकार चन्द्रमा एक ही है किन्तु विभिन्न जलाशयों में पड़ते प्रतिबिम्ब से वह अज्ञानी को भिन्न-भिन्न ही दिखाई देता है। आकाश एक है किन्तु अज्ञानी घर और बाहर के आकाश में भेद करते हैं। इसी प्रकार अज्ञानी ही सुख-दुःख, राग, विराग, ममता, आसक्ति, जन्म, मृत्यु, पुनर्जन्म आदि को लेकर आत्मा को भिन्न-भिन्न मानते हैं जबकि ये सभी गुण शरीर एवं मन के हैं जो अज्ञानवश आत्मा पर आरोपित कर दिये गये हैं। ये आत्मा के धर्म नहीं हैं। आत्मा तो अद्वैत ही है, एक ही है जो सबमें समान रूप से व्याप्त है तथा इन सभी गुण-धर्मों से परे है। उसके गुण धर्म इनसे भिन्न हैं। इसलिए जनक अद्वैत आत्मा की बात कहते हुए स्पष्ट करते हैं कि यह आत्मा न कहीं जाती है, न आती है और संसार व्याप्त होकर स्थित है। सर्व व्याप्त है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)