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किसी बंधन मंे नहीं है आत्मा

अष्टावक्र गीता-3

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

अष्टावक्र गीता-3
हिफी अपने पाठकों को ज्ञानवर्द्धक एवं प्रेरणा देने वाले आध्यात्मिक आलेख समय-समय पर मुहैया कराता रहता है। रामचरित मानस पर आधारित ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता के बाद श्रीमद्भागवत गीता की विशद् व्याख्या को क्रमबद्ध जारी करने के बाद हम महाज्ञानी अष्टावक्र और विदेह कहे जाने वाले राजा जनक के मध्य संसार और मुक्ति पर, ज्ञानी और मूर्ख पर संवाद को क्रमशः प्रस्तुत करेंगे। महात्मा अष्टावक्र शरीर से वक्र थे लेकिन प्रखर मेधा प्राप्त की थी। वे जब 12 वर्ष की उम्र के थे तभी राजा जनक के दरबार में विद्वानों को निरुत्तर कर दिया था। अष्टावक्र को देखकर विद्वान हंस पड़े तो अष्टावक्र ने उन्हंे चर्मकार कहा। राजा जनक को यह अपमानजनक लगा लेकिन जब अष्टावक्र ने कहा कि ये लोग मेरे शरीर (चमड़ी) को देखकर हंसे, आत्मा नहीं देखी तो शरीर को देखने वाले चर्मकार ही हो सकते हैं….। राजा जनक इससे बहुत प्रभावित हुए और उनके चरणों मंे शिष्य की तरह बैठकर ज्ञान प्राप्त किया था। राजा जनक ने ज्ञान, मुक्ति और बैराग्य के बारे मंे अष्टावक्र से अपने प्रश्नों का समाधान प्राप्त किया था। -प्रधान सम्पादक

अष्टावक्र ने महाराजा जनक को बताया कि योग का केन्द्र शरीर है। यदि तू इससे पृथक होकर सीधे आत्म भाव में स्थित हो जाता है तो तू अभी सुखी, शान्त व मुक्त हो जायेगा। कितना सारगर्भित तथ्य है। ‘अभी’ एक क्षण का भी विलम्ब नहीं होगा। ये वासनाएँ, संस्कार, कर्मफल, कर्मभोग आदि कुछ भी बाधक नहीं हैं। केवल ऐसी स्थिति में स्थिर हो जाना ही पर्याप्त है। जैसे रस्सी में साँप की भ्रान्ति हो जानेपर उसे प्रत्यक्ष देखने से ही वह भ्रान्ति मिटती है, संशय मिट जाता है, कुछ कर्मकाण्ड, जप-तप, मन्त्र-साधना, हठयोग की क्रियाएँ आदि नहीं करनी पड़तीं उसी प्रकार अष्टावक्र आत्मबोध ही पर्याप्त मानते हैं जिससे समस्त भ्रान्तियाँ मिट जाती हैं एवं मनुष्य मुक्ति को प्राप्त हो जाता है। यह मुक्ति कोई स्थान विशेष नहीं है, न इसको प्राप्त करने के लिये कोई वैतरणी ही पार करनी पड़ती है बल्कि अपनी वास्तविक स्थिति को जान लेना है जो प्रत्यक्ष-दर्शन से ही सम्भव है। इसी से समस्त ग्रंथियाँ खुल जाती हैं। ये सभी ग्रंथियाँ अज्ञान की ही हैं। शिव गीता में भी कहा गया है-
मोक्षस्य न हि वासीऽस्ति न ग्राम्यान्तरमेव वा।।
अज्ञान हृदय ग्रन्थिनाशो मोक्ष इति स्मृतः।।
(मोक्ष का किसी लोकान्तर मंे, गृह या ग्राम में निवास नहीं है किन्तु अज्ञान रूपी हृदय ग्रन्थि का नाश ही मोक्ष कहा जाता है।)
जो चैतन्य आत्मा में विश्राम कर ठहर गया, वही मुक्त है। सभी कर्म शरीर व मन के हैं। जो शरीर और मन के प्रति आसक्ति रखता है उसी के कर्म बन्धन का कारण बनते हैं। आत्मा का कोई बन्धन नहीं है। वह कत्र्ता है ही नहीं, दृष्टा है। दृष्टा कभी कर्मबन्धन में नहीं बँधता। से सभी भोग, कर्म, अहंकार, लोभ आदि शरीर व मन के धर्म हैं, आत्मा के नहीं। जो अपने को आत्मा मानकर शरीर से अपना सम्बन्ध छोड़ देता है वह मुक्त ही है। यही अष्टावक्र का परम उपदेश है।
न त्वं विप्रादिको वर्णो नाश्रमी नाक्षगोचरः।
असंगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव।। 5।।
अर्थात-तू ब्राह्मण आदि वर्ण नहीं है और न तू किसी आश्रम वाला है, न आँख आदि इन्द्रियों का विषय है। ऐसा जानकर सुखी हो।
व्याख्या: अष्टावक्र जी ने तीन ही सूत्रों में राजा जनक के तीनों प्रश्नों-ज्ञान-मुक्ति और वैराग्य का स्पष्टीकरण देकर मुक्ति की विधि बता दी। आगे इसकी थोड़ी और व्याख्या करते हैं जिससे जनक को पूर्ण रूपेण यह तत्वबोध हृदयंगम हो जाय। अष्टावक्र कहते हैं, तू शरीर नहीं है, आत्मा है जो चैतन्य है, साक्षी है। आत्मा का कोई वर्ण नहीं होता। यह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नहीं होती। यह तो चैतन्य ऊर्जा मात्र है जो समस्त प्रकार के जीवों में समान रूप से व्याप्त है।
यह आत्मा न किसी वर्ण वाली है, न आश्रम वाली ही है। यह हिन्दू, मुस्लिम आदि धर्म वाली भी नहीं है, न इसकी कोई जाति है, न लिंग। ये चार आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास) भी आत्मा के नहीं हैं। आत्मा न कत्र्ता है, न भोक्ता, न भोग्य विषय। इन तीनों से परे असंग, निराकार और विश्व का साक्षी मात्र है। केवल दृष्टा है। अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि तू वही आत्मा है ऐसा जानकर सुखी हो। चूंकि ये वर्ण, आश्रम एवं इन्द्रियों के विषय आत्मा के नहीं हैं अतः ये तेरे नहीं हो सकते। इन वर्णाश्रम के धर्मों को मानने का विधान केवल अज्ञानियों के लिए है जिससे वे अपना क्रमिक विकास कर आत्मज्ञान को उपलब्ध हो सकें।
अष्टावक्र जनक को आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराते हुए कहते हैं, तू इसे जान ले और अभी सुखी हो। इसमे ंदेर होती ही नहीं। यह नकद धर्म है। उधार नहीं है कि आज कर्म किया और अगले जन्म में फल मिलेगा। कुछ धर्म कहते हैं यह कलियुग है, यह पंचम काल है, इसमें मुक्ति होगी ही नहीं। कुछ कहते हैं आज से प्रयत्न करना आरम्भ करो तो सात जन्म बाद मुक्ति मिलेगी। कुछ कहते हैं अन्तिम तीर्थकर, पैगम्बर, अवतार हो चुके अब कोई होने वाला नहीं है परन्तु अष्टावक्र बड़ी निर्भीकता से घोषणा करते हैं कि यह सब बकवास है। तू अपने को चैतन्य में स्थिर कर ले और अभी मुक्त हो जा। ऐसी घोषणा कोई भी महापुरुष, अवतार या गुरू नहीं कर पाये। बड़ी अद्भुत घोषणा है अध्यात्म जगत् की। दीपक जलते ही जैसे एक क्षण में अँधेरा गायब हो जाता है, उसी प्रकार आत्मज्ञान के प्रकाश में अज्ञानरूपी अन्धकार एक क्षण में विलीन हो जाता है, सारी भ्रान्ति मिट जाती है। केवल बोध पर्याप्त है।
धर्माऽधर्मौ सुखं दुःखं मानसानि न ते विभो।
न कर्ताऽसि न भोक्ताऽसि मुक्त एवासि सर्वदा।। 6।।
अर्थात: हे विभो! (व्यापक)
धर्म और अधर्म, सुख और दुःख मन के हैं। तेरे लिये नहीं हैं। तू न कत्र्ता है, न भोक्ता। तू तो सर्वदा मुक्त ही है।
व्याख्या: यह आत्मा चैतन्य है, मुक्त है, असीम है, सर्वत्र है, व्यापक है। यह किसी बन्धन में बँधी ही नहीं है। शरीर सीमित है, मन बुद्धि सीमित हैं। आत्मा किसी एक शरीर या मन में बँधी नहीं है। यह सारी भिन्नता शरीर गत है, मानसिक है। आत्मगत कोई भिन्नता नहीं है। इसलिए अष्टावक्र राजा जनक को ‘विभो’ व्यापक शब्द से सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि तू शरीर नहीं है, व्यापक आत्मा है। इसलिए तू सर्वदा मुक्त ही है। यह मुक्ति तेरा स्वभाव है। इसे पाना नहीं है, यह उपलब्ध है ही, केवल जागकर देखना मात्र है। केवल ग्राहक (रिसेप्टिव) होकर कोई ठीक से सुन मात्र ले तो घटना घट जाती है-उसी क्षण जन्म जन्मों की विस्मृति टूट जाएगी, स्मरण लौट आएगा। खोजने वाला भटक जाता है। खोजने पर परमात्मा नहीं मिलता। खोजों को छोड़कर संसार के प्रति उदासीन, वैराग्वान होकर विश्राम में स्थित हो जाना ही पा लेने का मार्ग है। आत्मा व्यापक है, सबमें एक ही है, किन्तु शरीर की भिन्नता के कारण अज्ञानी को आत्मा की भी भिन्नता का भ्रम हो जाता है, यह मेरी आत्मा है, यह उसकी आत्मा है, भिन्न-भिन्न आत्माएँ हैं, आत्माएँ अनन्त हैं आदि।
अष्टावक्र कहते हैं कि तू अहंकार के कारण अपने को कत्र्ता और भोक्ता मान बैठा है। यह अहंकार भी मेरी भ्रान्ति है। तू चैतन्य आत्मा है जो न कत्र्ता है, न भोक्ता। अपने को कत्र्ता और भोक्ता मानने के कारण ही तू सुख-दुःख का अनुभव कर रहा है, तू धर्म और अधर्म की बातें करता है, वास्तव में यह धर्म ओर अधर्म, सुख और दुःख मन के ही हैं। तू अहंकार वश ही अपने को आत्मा से भिन्न अनुभव कर रहा है उसे छोड़ दे तो तू आत्मवत् सदा मुक्त ही है। अहंकार और मन के मिटते ही तू कत्र्तापन और भोक्तापन से मुक्त हो जाएगा व इस धर्म-अधर्म, सुख-दुःख से भी मुक्त हो जायेगा। -क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

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