
अष्टावक्र राजा जनक को बताते हैं कि चाह की अवस्था ही संसार है जबकि मन जब न चाह करता है और न कुछ त्यागता है तब उसे मुक्ति मिलती है।
अष्टावक्र गीता-29
सूत्र: 2
तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति।
न मुंच्ति न गृह्णाति न हृष्यति न कुप्यति।। 2।।
अर्थात: जब मन न चाह करता है, न सोचता है, न त्यागता है, न ग्रहण करता है। जब यह न सुखी होता है, न दुःखी होता है। तभी मुक्ति है।
व्याख्या: इस सूत्र में अष्टावक्र कहते हैं कि जो बन्ध के कारण ही मोक्ष है अर्थात् जब चित्त न चाह करता है, न सोचता है, न त्यागता है, न ग्रहण करता है, जब यह न सुखी होता है, न दुःखी होता है तब मुक्ति है। चित्त की शान्त अवस्था ही मुक्ति है। यह मन, बुद्धि, अहंकार और शरीर भी चित्त वासनाओं और इच्छाओं का पंुज है, उसमें ‘मैं’ भाव का उत्पन्न होना, अपने को आत्मा से भिन्न मानना ही अहंकार है। वासना पूर्ति हेतु जब वह विचार करता है तब उसे ‘मन’ कहते हैं, जब वह अच्छे-बुरे का भेद करता है, निर्णय लेता है तब ‘बुद्धि; कहलाता है, जब वह क्रियाशील होता है तो ‘शरीर’ है। शरीर का विकास भी चित्त की वृत्तियों के कारण एवं उसके अनुरूप ही हुआ है। यह संसार और मोक्ष कोई भौगोलिक स्थिति नहीं है, किसी स्थान विशेष में नहीं है। शरीर से बाहर जो भौतिक जगत्, स्थूल जगत् दिखाई देता है, ये पर्वत, पठार, मैदान, नदियाँ, झरने, समुद्र आदि दिखाई देते हैं वह संसार नहीं है बल्कि मनुष्य के भीतर एक और संसार है जो सूक्ष्म है, दिखाई नहीं देता। मनुष्य के भीतर एक और जगत् है। इसी के अनुरूप वह बाह्य जगत् दिखाई देता है, दुःखी को दुःखपूर्ण एवं सुखी को सुख पूर्ण दिखाई देता है। बाह्य जगत् में जो कुछ एवं जैसा कुछ दिखाई देता है वह भीतरी चेतना का ही प्रक्षेपण है अन्यथा जैसे आत्मा निरपेक्ष है वैसे ही बाह्य जगत् भी निरपेक्ष है। मनुष्य अपनी चित्त वृत्तियों के विक्षेपों के अनुसार ही इस व्यक्त जगत् की व्याख्या कर देते हैं। यही भ्रम है। इसीलिए इस संसार को अध्यात्म में माया कहा गया है। यह माया मनुष्य की चित्तवृत्तियाँ हैं न कि बाह्य जगत्। अध्यात्म इसी भीतरी माया-जगत की बात कहता है। इसी प्रकार मोक्ष भी कोई भौगोलिक स्थान नहीं है कि इस भौतिक-जगत् से मरकर किसी सिद्धलोक में जाकर बैठ गये, अथवा किसी सिद्ध शिला पर बैठ गये बल्कि चित्त की आत्यन्तिक रूप से शान्त हो गई अवस्था है जिसमें न कोई वासना है, न इच्छाएँ न विचार, न कर्म। यही चैतन्य की शुद्धतम अवस्था है। यही आत्मा का स्वरूप है, यही निज स्वभाव है। इसे उपलब्ध हो जाना ही मोक्ष या मुक्ति है अन्य कोई स्थिति नहीं है। चैतन्य की उद्विग्न लहरें ही संसार है, एवं उनका शान्त हो जाना ही मुक्ति है। मोक्ष की चाह करना, मोक्ष की चाह में संसार छोड़ देना, सत्य और आनन्द की खोज में छोड़ना भी मोक्ष का मार्ग नहीं है बल्कि वह भी कामना, वासना की लहरें ही हैं। संसार की कामना हो या मोक्ष की, ये लहरें ही हैं, विषय बदलने से लहरों में कोई अन्तर नहीं आता, कामना चाहे ग्रहण की हो, भोग की हो या त्याग की, कामना ही है अतः दोनों की मोक्ष की स्थिति नहीं है। अष्टावक्र के अनुसार संसार चित्त की चाह की अवस्था है एवं अचाह की अवस्था मुक्ति है।
सूत्र: 3
तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं कान्यपि दृष्टिषु।
तदा मोक्षो यदा चित्तमासक्तं सर्वदृष्टिषु।। 3।।
अर्थात: जब चित्त किसी दृष्टि अथवा विषय में लगा है तब बन्ध है और चित्त जब सब दृष्टियों से अनासक्त है तब मोक्ष है।
व्याख्या: पहले और दूसरे सूत्र में अष्टावक्र बन्ध और मोक्ष की अलग-अलग व्याख्या करते हैं किन्तु इसमें वे सार रूप में एक ही सूत्र में व्याख्या कर देते हैं कि जब चित्त किसी दृष्टि अथवा विषय में लगा है तब बन्ध है और जब वह सब दृष्टियों से अनासक्त है तब मोक्ष है। इसमें अष्टावक्र एक और महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि कर्म में लगा होना ही बन्धन नहीं है बल्कि आत्मा से भिन्न दिखाई देने वाले समस्त विषयों के प्रति किसी भी प्रकार की दृष्टि होना भी बन्ध है। यदि दृष्टि ही वासना का रूप है। जहाँ दृष्टि है वहीं वासना भागेगी। यदि कोई दृष्टि ही न हो तो वासना को भागने का अवसर ही नहीं मिलेगा और वह अपने आप शान्त हो जायेगी। इसीलिए चित्त जब सभी दृष्टियों से चाहे वह संसार की हों, स्वर्ग की हों अथवा मोक्ष की, अनासक्त हो जाता है तब मोक्ष है। विषयों से दृष्टि हटाकर केवल आत्मदृष्टि वाला ही मुक्त है। इसमें एक शंका यह होती है कि यह चित्त जब विषयों में दृष्टि रखता है तब बन्ध है एवं आत्मा में रखता है तब मोक्ष है तो फिर चित्त तो चंचल है, उसकी दृष्टि आत्मा से हटकर फिर विषयों में जा सकती है। ऐसी स्थिति में तो मोक्ष भी अनित्य ही हुआ, सावधिक ही हुआ। किन्तु इसमें यदि इच्छा करके चित्त को जबरदस्ती अनासक्त किया तो वह पुनः विषयों में भाग सकता है लेकिन यदि वह स्वाभाविक रूप से अनासक्त हुआ है तो वह आत्मा के साथ एकाकार हो जाता है, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है, वह भ्रान्तिवश, अहंकारवश, जो भिन्न प्रतीत होता था, वह भिन्नता ही मिट जाती है। इसी को चित्त का आत्मा में लय होना कहा गया है। इसके बाद फिर उसमें वासना, कामना की तरंगें उठ ही नहीं सकतीं जैसे भुना चना अंकुर पैदा नहीं कर सकता उसी प्रकार आत्म रूप होने पर वह चित्त रहता ही नहीं तो फिर उसमें वासना का बीज भी कैसे रह सकता है।
सूत्र: 4
यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा।
मत्वेति हेलया किअिंच्मा गृहाण विमुञच मा।। 4।।
अर्थात: जब तक ‘मैं’ है तब तक बन्ध है, जब मैं नहीं है तब मोक्ष है। इस प्रकार का विचारकर, न इच्छा कर, न ग्रहण कर, न त्याग कर।
व्याख्या: इस सूत्र में अष्टावक्र बन्धन का कारण अहंकार को बताते हुए कहते हैं कि जब तक मनुष्य में ‘मैं’ भाव है तब तक बन्ध है। आत्मा से भिन्न किसी की सत्ता है ही नहीं किन्तु, इस ‘मैं’ भाव से ही इन सब भिन्नताओं की प्रतीति होती है। ‘मैं’ भाव ही अहंकार है जिसके मिटने से सारी भिन्नताएँ समाप्त हो जाती हैं। चित्तरूपी वायु से आत्मारूपी शान्त समुद्र में एक तरंग उठी। इस तरंग से अज्ञानवश, भ्रान्तिवश अपने को आत्मा से भिन्न अनुभव किया। यह भिन्नता का अनुभव ही अहंकार बन गया। अहंकार के कारण अथवा भिन्नता के कारण वह स्वयं कत्र्ता बन गया, भोक्ता बन गया, विचार एवं बुद्धि का प्रयोग करने लगा, विषयों में आसक्ति बढ़ी, कुछ पाने की इच्छा से दौड़-धूप आरम्भ हुई। यही मन एवं बुद्धि बन गया जिससे दृष्टि का क्रम चल पड़ा। यह सारा उपद्रव अहंकार के कारण आरम्भ हुआ कि उसने अपना स्वतन्त्र अस्तित्व मान लिया। यदि यह ‘मैं’ का भाव नष्ट हो जाय तो न विचार पैदा होंगे, न इच्छा, न वासना आदि होगी, न ग्रहण व त्याग होगा। भिन्नताएँ ही मिट जायेंगी, एक ही आत्मा शेष रह जायेगी फिर किसका त्याग व ग्रहण होगा। ऐसी स्थिति को उपलब्ध हो जाना ही मोक्ष है। जब तक जीव का सम्बन्ध इस अहंकार रूपी दुरात्मा के साथ रहता है तब तक वह अपने को आत्मा से भिन्न मानता रहेगा, तब तक मुक्ति नहीं है, मोक्ष नहीं है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)