
राजा जनक कहते हैं कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश सभी में इच्छा और वासना है। इसलिए आत्मज्ञान से ही इच्छाओं व अनिच्छाओं को रोका जा सकता है।
अष्टावक्र गीता-25
सूत्र: 5
आब्रह्मस्तबपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।
विज्ञस्यैव हि सामथ्र्यमिच्छाऽनिच्छाविवर्जने।। 5।।
अर्थात: ब्रह्मा से चींटी पर्यन्त चार प्रकार के जीवों के समूह में ज्ञानी की ही इच्छा और अनिच्छा को रोकने में सामथ्र्य है।
व्याख्या: जिस प्रकार ज्ञानी एवं अज्ञानी के कार्यों एवं व्यवहारों में भिन्नता दिखाई देती है उसी प्रकार ज्ञानियों तथा अज्ञानियों द्वारा निर्मित शास्त्रों में भी भिन्नता दिखाई देती है। सभी ज्ञानियों की एक ही दृष्टि होती है किन्तु अज्ञानियों में सभी की दृष्टि भिन्न-भिन्न होती है। दादू ने कहा है-
जे पहुँचे ते कहि गये, तिनकी एके बाति।
सबै सयाने एक मति, उनकी एके जाति।।
ज्ञानी के कोई सम्प्रदाय नहीं होते, उनकी कोई जाति नहीं होती, उनमें मतभेद नहीं होता, सिद्धांतों व कार्यों मंे भिन्नता नहीं होती। वे सभी एक ही बात कहते हैं। जो सत्य है वह कहते हैं। असत्य अनेक प्रकार के होेते हैं किन्तु सत्य एक ही है। एक बार एक न्यायाधीश ने दस गवाह बुलाये। वकील दस ही सूफी पकड़ कर ले गया। न्यायाधीश ने कहा कि मैं इन दस सूफियों को एक ही गवाह मानूँगा क्योंकि सभी सूफी एक ही बात कहते हैं अतः यह एक ही गवाह हुआ। नौ कोई दूसरे लाओ। यह ज्ञानी का ढंग है किन्तु अज्ञानियों के अनेक ढंग हैं, अनेक विचार हैं, अनेक सिद्धांत हैं, यहाँ तक कि उनके धर्म और ईश्वर भी अनेक हैं, आत्माएँ भी अनेक हैं किन्तु ज्ञानी इस सबके पार एक ही अनुभूति करता है, समस्त सृष्टि को एक समझता है। कुछ अज्ञानी कहते हैं कि इच्छाएँ छोड़ो, वासनाएँ छोड़ों, संसार छोड़ो, लोभ, मोह, माया, ममता, धन, दौलत सब छोड़ों, तब तुम्हें ज्ञान होगा। वे छोड़ने को पाने का नियम मानते हैं किन्तु ज्ञानी जनक कहते हैं कि ब्रह्मा से लेकर चींटी पर्यन्त चार प्रकार के जीव समूहों में कोई भी अपनी इच्छा को और अनिच्छा को रोकने में समर्थ नहीं है। सृष्टि का निर्माता जिसे ब्रह्मा कहते हैं वह भी इच्छाओं से ग्रस्त है, सृष्टि-निर्माण की उसकी भी इच्छा है। विष्णु, महेश, इन्द्र आदि अनेक देवी-देवता भी इच्छाओं एवं वासनाओं से ग्रस्त हैं। फिर मनुष्य, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु अपनी इच्छाएँ कैसे छोड़ सकते हैं? इन सबमें केवल आत्मज्ञानी ही इन इच्छाओं और अनिच्छाओं दोनों को रोकने मंे समर्थ है, अन्य कोई नहीं। इसलिए छोड़ने से ज्ञान नहीं होता बल्कि ज्ञानावस्था में जब सत्य का बोध हो जाता है तो जो असार है वह अपने आप छूट जाता है, छोड़ना नहीं पड़ता। ज्ञानी जनक के सत्य-प्रति का यही सार है कि पाना ही नियम है छोड़ना नियम नहीं है। क्या छोड़ना है और क्या ग्रहण करना है यह ज्ञानी विवेक से निर्धारित करता है।
सूत्र: 6
आत्मानमद्वयं कश्चिज्जानाति जगदीश्वरम्।
यद्वेत्ति तस्य कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित्।। 6।।
अर्थात: कोई विरला ही आत्मा को अद्वय और जगदीश्वर रूप में जानता है। वह जिसे करने योग्य मानता है उसे करता है।
व्याख्या: जनक कहते हैं कि संसार में नये-नये मुखौटे लगाकर अनेक लोग ज्ञानी बने घूमते हैं। कोई नंग-धड़ंग, कोई चिमटा लिये, कोई त्रिशूल लिये, कोई खप्पर व खोपड़ी लिये, कोई तिलक छापा लगाये, कोई धूनी रमाते, कोई पंचाग्नि तप करते, कोई घण्टा घड़ियाल बजाते न जाने किस-किस भेष व रूपों में देखे जा सकते हंै फिर कोई द्वैतवादी, कोई अद्वैतवादी, कोई निरंकारी, कोई सनातनी, कोई कबीरपंथी, कोई नानकपंथी, कोई शैव, कोई वैष्णव आदि किन्तु इनमें विरला ही कोई आत्मा को अद्वय जानता है कि आत्मा एक ही है एवं यह सम्पूर्ण सृष्टि उसी का फैलाव है। वही आत्मा जगदीश्वरम है, उसी से सृष्टि है। सृष्टि व आत्मा तथा ईश्वर भिन्न नहीं है, सृष्टि व सृष्टा भिन्न नहीं है ऐसा कोई विरला ही जानता है एवं उसे जानने वाला ही ज्ञानी है। ऐसा ज्ञानी जिसे करने योग्य मानता है वही करता है। किसी दूसरे के अधीन होकर नहीं करता। उसे किसी का भय भी नहीं है क्योंकि वह मन व अहंकार से ऊपर उठा चुका है। भय मात्र द्वैत के कारण होता है अद्वैत में भय होता ही नहीं।
राजा जनक ने अपने पूछे गये प्रश्नों का उत्तर सार-संक्षेप में रख दिया।
पाँचवाँ प्रकरण
(देहाभिमान के त्याग से ही मोक्ष की प्राप्ति)
सूत्र: 1
न ते संगोऽस्ति केनापि किं शुद्धस्त्यक्तुमिच्छसि।
संघातविलयं कुर्वन्नेवमेव लयं व्रज ।। 1।।
अर्थात: अष्टावक्र राजा जनक को मोक्ष का उपाय बताते हुए कहते हैं-‘तेरा किसी से भी संग नहीं है इसलिए तू शुद्ध है, फिर किसको त्यागना चाहता है। इस प्रकार देहाभिमान के त्याग की इच्छा करके लय (मोक्ष) को प्राप्त हो।’
व्याख्या: राजा जनक के उत्तर सुनकर अष्टावक्र को विश्वास हो गया कि इसे आत्मज्ञान हो चुका है क्योंकि आत्मज्ञानी की जैसी स्थिति होती है, वैसा ही वह अनुभव कर रहा है। अब इस प्रकरण में वे जनक को मोक्ष का उपदेश करते हैं। अष्टावक्र कहते हैं कि जब आत्मज्ञान की स्थिति में तूने जान लिया है तू शुद्ध चैतन्य मात्र आत्मा है, तेरा कोई संगी-साथी नहीं है, तू अकेला है फिर तू किसे त्यागना चाहता है। त्याग उसका किया जाता है जिसे तुम अपना मानते हो। जो तुम्हारा है ही नहीं उसका तुम त्याग कैसे कर सकते हो? यह सब जिसे तुम अपना समझ रहे हो वह मात्र देहाभिमान के कारण है। देहाभिमान से ही यह संसार अनन्त शरीरों वाला दिखाई देता है तथा मनुष्यों में जो परस्पर सम्बन्ध हैं वे सब देहाभिमान के कारण ही हैं। इस देहाभिमान के कारण ही आत्माओं में भी भेद दिखाई देता है कि जितने देह हैं उतनी ही आत्माएँ हैं, देह अनन्त हैं इसलिए आत्माएँ भी अनन्त हैं। यह मेरा, तेरा अपना, पराया आदि के समस्त भेद भी देहाभिमान के कारण हैं। इसी देहाभिमान के कारण ही लोग वस्तुओं को अपनी समझकर दान करते हैं, उनका त्याग करते हैं। यह मोह, लोभ, ममता आदि भी देहाभिमान के कारण ही हैं। यह धन-दौलत, महल, पत्नी, पुत्र, सम्बन्धी आदि छोड़ने से कुछ नहीं होगा। देहाभिमान ही सबसे बड़ा बन्धन है। इसके त्याग से ही मोक्ष हो जाता है। यह देहाभिमान ही अज्ञान है, दीया जलने पर अँधेरे का त्याग नहीं करना पड़ता, जो है ही नहीं उसका त्याग कैसा? इस देहाभिमान के कारण ही तुम्हें यह भ्रान्ति हो गई थी कि यह मेरा है इसलिए त्याग की बात सोचते हो। ज्ञान के प्रकाश में ही तुम्हें इस सत्य का ज्ञान हो सकता है। इस देहाभिमान की भ्रान्ति का मिट जाना ही मोक्ष है अतः तू इसे मिटाकर मोक्ष को प्राप्त हो।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)