
महाज्ञानी अष्टावक्र राजा जनक को बताते हैं कि ज्ञानी बुद्धि का भी प्रयोग करेगा किन्तु वह जैसा चाहे वैसा ही उपयोग करेगा। वह बुद्धि का मालिक होगा। बुद्धि उसकी मालिक नहीं होगी। ज्ञानी आवश्यकता होने पर अहंकार का भी उपयोग करेगा, विनम्रता का भी उपयोग करेगा किन्तु उनका दास नहीं बनेगा।
अष्टावक्र गीता-76
क्व स्वाच्छन्द्यं क्व संकोचः क्व वा तत्वविनिश्चयः।
निव्र्याजार्जवभूतस्य चरितार्थस्य योगिनः ।। 92।।
अर्थात: निष्कपट, सरल और स्वार्थ चरित्र वाले योगी को कहाँ स्वच्छन्दता है? कहाँ संकोच है? और कहाँ तत्त्व का निश्चय है?
व्याख्या: जो योगी ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, जिसने सृष्टि के मूल-तत्व आत्मा को जान लिया है वह निष्कपट, सरल तथा यथार्थ चरित्र वाला हो जाता है। उसके लिए स्वच्छन्दता, संकोच तथा तत्व का निश्चय जैसी कोई धारणा नहीं होती। वह स्वयं इन सबसे पार अस्तित्व के साथ ही जीता है। अस्तित्व ही उसका अनुशासन, नियम, संयम होता है। वह मानस-तल की स्वच्छन्दता, संकोच आदि के पार हो जाता है। यही उसका विवेक है।
आत्मविश्रान्तितृप्तेन निराशेन गतार्तिना।
अन्तर्यदनुभूयते तत्कथं कस्य कथ्यते ।। 93।।
अर्थात: आत्मा में विश्राम कर तृप्त हुये आशा रहित और शोक रहित ज्ञानी के अन्तस् में जो अनुभव होता है उसे कैसे और किसको कहा जाये।
व्याख्या: आत्मज्ञान के बाद व्यक्ति तृप्त हो जाता है, निस्पृह (इच्छा रहित) तथा शोक रहित हो जाता है। इस स्थिति में जो विश्राम कर स्थित है, जो इसमें ठहर गया है उसे विचित्र ही अनुभव होते हैं जो सांसारिक अनुभवों से सर्वदा भिन्न होते हैं जिनको कहा नहीं जा सकता क्योंकि सुनने वाला उस स्थिति में नहीं पहुँचा है, उसे ये अनुभव नहीं हुए हैं इसलिए उसे समझना मुश्किल है। ऐसे अनुभव प्रमाणों, तर्कों आदि से भी सिद्ध नहीं किये जा सकते। जिस प्रकार दस वर्ष के बच्चे को रमण-सुख नहीं समझाया जा सकता, किसी के दुःख, दर्द, पीड़ा, जलन आदि को दूसरों को नहीं दिखाया जा सकता, अन्धे को सफेद, लाल, हरा आदि रंगों का ज्ञान नहीं कराया जा सकता इसलिए ज्ञानी मौन हो जाते हैं। आत्मज्ञान में बोध होता है, एक अनुभूति होती है। इसमें पुरानी धारणाएँ, मान्यताएँ सब गिर जाती हैं। जिस प्रकार स्वप्न टूटने पर एक क्षण में सब कुछ बदलकर नया सामने आ जाता है उसी प्रकार आत्मज्ञान के क्षण में यह संसार रूपी स्वप्न टूट जाता है एवं नये ही संसार में उसका प्रवेश होता है जिसे न उसने पहले कभी देखा है, न सुना है, न जाना है। इस स्थिति में गुरु का सानिध्य न हो तो वह पागल, भी हो सकता है। उसका इलाज भी कुछ नहीं है। वह उसकी मस्ती में पागल है। संसार के लिए पागल होने से ईश्वर के लिए पागल होना बेहतर है, ऐसा पागलपन भी वरदान है। आत्मा का बोध चित्त की निर्विकार एवं शून्यावस्था में ही होता है। इसी का नाम ध्यान और समाधि है। मन जब शून्य होता है तभी आत्मा अपने पूर्ण प्रकाश में प्रकट होती है। ध्यान में विषय नहीं होता, विषय होने पर ध्यान नहीं, चिन्तन-मनन भी ध्यान नहीं है। अक्रिया ही ध्यान है। अष्टावक्र की सारी देशना अक्रिया पर ही है। इसी में होता है ज्ञान, बोध, जागरण। इस अनुभूति के बाद व्यक्ति स्वयं को आत्म ज्ञानी अनुभव करता है। वह हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई नहीं रह जाता, वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र भी नहीं रह जाता। वह ब्रह्म को जान लेता है इसलिए वह ब्राह्मण हो जाता है। ब्राह्मण उपलब्धि है। उसमें नम्रता आ जाती है। अहंकार, वासना, लुप्त हो जाती है। वह श्रेष्ठ हो जाता है। पुराने की मृत्यु हो जाती है, उसका नया जन्म होता है। इसलिए उसे ‘द्विज’ (द्विजन्मा) कहा जाता है। शरीर का जन्म माँ ने दिया तथा आत्मा का जन्म गुरू देता है। वह शूद्र को ब्राह्मण बना देता है, मनुष्य को परमात्मा बना देता है इसलिए गुरू का महत्व ईश्वर से भी ऊँचा है। ईश्वर ही गुरू रूप में प्रकट होता है। यही गुरु का महत्व है। इस ज्ञान-प्राप्ति की पाठशाला है संन्यास तथा अन्तिम फल है आत्मानुभूति, यहाँ पहुँचकर व्यक्ति मुक्त हो जाता है। यही जीव की अन्तिम परिणति है, परमानन्द की स्थिति है।
सुप्तोऽपि न सुषुप्तौ च स्वप्नेऽपि शयितो न च।
जागरेऽपि न जागर्ति धीरस्तृप्तः पदे पदे ।। 94।।
अर्थात: जो सोया हुआ भी सुषुप्त नहीं है, और न स्वप्न में भी सोया हुआ है, जाग्रत में भी नहीं जागा हुआ है, वही धीर पुरुष क्षण-क्षण तृप्त है।
व्याख्या: ज्ञानी और अज्ञानी दोनों सोते हैं किन्तु अज्ञानी जब स्वप्नावस्था में होता है तो अपने को भूल जाता है। वह स्वप्न में ही खो जाता है, एक दूसरी दुनियाँ में प्रवेश कर जाता है। सुषुप्ति में वह गहरी नींद में होता है तब स्वप्न भी खो जाते हैं। उसे न संसार का भान रहता है, न स्वयं का। किन्तु ज्ञानी की निद्रा संसारी से भिन्न होती है। वह स्वप्न में भी जागा हुआ रहता है। साक्षी भाव का प्रयोग करने पर यह सम्भव है। स्वप्न में भी उसे भान रहता है कि वह सोया हुआ है तथा स्वप्न देख रहा है। इसी प्रकार सुषुप्ति में भी वह जागा हुआ रहता है। सुषुप्ति में जीव का सम्बन्ध आत्मा से होता है जिससे उसे आनन्द की अनुभूति होती है। योगी ही जागा हुआ होने से इसका अनुभव करता है। इसी प्रकार जाग्रत अवस्था में भी वह सर्वदा आत्मा में लीन रहने के कारण ब्राह्य वस्तुओं से प्रभावित नहीं होता इसलिए वह जागा हुआ भी नहीं है। वह जाग्रत, स्वप्न एवं सुषुप्ति तीनों अवस्थाओं में आत्मा का ही अनुभव करता है। ऐसा ज्ञानी ही सर्वदा तृप्त है।
ज्ञः सचिन्तोऽपि निश्चिन्तः सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः।
सबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहंकारोऽनहंकृतिः ।। 94।।
अर्थात: ज्ञानी चिन्तायुक्त भी चिन्तारहित है, इन्द्रियों सहित भी इन्द्रियों रहित है, बुद्धि सहित भी बुद्धि रहित है तथा अहंकारयुक्त भी अहंकार रहित है।
व्याख्या: ज्ञानी पुरुष भी चिन्ता युक्त तो होता है किन्तु चिन्तित नहीं होता, दुःखी नहीं होता। वह इन्द्रियों सहित है, सभी इन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य करती हैं। खाना, पीना, सूँघना, सुनना, स्वाद लेना, स्पर्श-ज्ञान, देखना सब यथावत् होता है किन्तु ज्ञानी की वासना न होने से वह उनमें आसक्त नहीं होता, उनसे प्रभावित नहीं होता। वह इन्द्रियों का उपयोग आवश्यकता होने पर करेगा, वासना के कारण नहीं करेगा। ज्ञानी बुद्धि का भी प्रयोग करेगा किन्तु वह जैसा चाहे वैसा ही उपयोग करेगा। वह बुद्धि का मालिक होगा। बुद्धि उसकी मालिक नहीं होगी। ज्ञानी आवश्यकता होने पर अहंकार का भी उपयोग करेगा, विनम्रता का भी उपयोग करेगा किन्तु उनका दास नहीं बनेगा। कत्र्ता नहीं, साक्षी होकर करेगा। ज्ञानी सृष्टि के नियमों मंे न बाधा डालते हैं, न सहयोग करते हैं। जैसा होता है उसे ईश्वरीय समझकर हो जाने देते हैं।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)