अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

भावना मात्र है संसार

अष्टावक्र गीता-58

 

अष्टावक्र जी राजा जनक को समझाते हैं कि यह संसार भावना मात्र है। स्वार्थ के चलते ही कोई किसी का शत्रु होता है तो वही दूसरे का मित्र होता है। जाहिर है कि व्यक्ति न तो शत्रु है न मित्र, सिर्फ देखने का भ्रम है।

अष्टावक्र गीता-58

भवोऽयं भावनामात्रो न किंचित्परमार्थतः।
नास्त्यभावः स्वभावानां भावाभावविभाविनाम्।। 4।।
अर्थात: यह संसार भावना मात्र है, परमार्थतः कुछ भी नहीं है। भाव रूप और अभाव रूप पदार्थों में स्थित स्वभाव का अभाव नहीं है।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि यह संसार भावना मात्र है संसार वास्तव में कैसा है यह कोई नहीं जान सकता। हर व्यक्ति अपनी भावना के अनुसार ही संसार को देखता है इसलिए सबको संसार भिन्न-भिन्न प्रकार का दिखाई देता है। मनुष्य को संसार वैसा ही दिखाई देता है जैसा वह देखना चाहता है। मनुष्य वासना, कामना, मोह, आसक्ति, भय, राग, द्वेष आदि अनेक भावनाओं से भरा है इसलिए उसे संसार वैसा ही दिखाई देता है। संसार इन्हीं भावनाओं का प्रक्षेपण मात्र है। जिस प्रकार स्वप्न भी मन का ही प्रक्षेपण है किन्तु सत्य प्रतीत होता है। स्वप्न टूटने पर ही ज्ञात होता है कि स्वप्न था, भ्रान्ति थी। इसी प्रकार यह संसार भी स्वप्न के ही समान भावनाओं का प्रक्षेपण मात्र है किन्तु अज्ञानी इसे सत्य समझ लेता है। आत्मज्ञान से ही यह भ्रान्ति मिटती है व उसी को यह माया, मिथ्या, असत्य प्रतीत होता है। वही इसका वास्तविक स्वरूप पहचान सकता है। इसलिए ज्ञानी कहता है कि यह संसार भावना मात्र है, परमार्थतः यह कुछ भी नहीं है। परमार्थ (परम$अर्थ) में आत्मा ही सत्य है, जगत् भ्रान्ति मात्र है। ज्ञानी अहंकार एवं वासना शून्य होने से इस संसार का उसके लिए कोई प्रयोजन ही नहीं है, अर्थहीन है। यही इसका वास्तविक स्वरूप है जिसे ज्ञानी देखता है। मनुष्य को भय के कारण ही रस्सी भी साँप दिखाई देती है, बच्चे में भय नहीं होने से वह साँप को भी रस्सी समझकर पकड़ लेता है। अपना बेटा, पत्नी आदि अच्छे इसलिए दिखाई देते हैं कि उनके साथ स्वार्थ एवं अपेक्षाएँ जुड़ी हैं वरना न वे पूर्वजन्म में कभी साथी रहे थे, न मृत्यु के बाद साथ देंगे। यदि स्वार्थों में कमी आ जाय, अपेक्षाएँ पूरी न हों तो इसी जन्म मंे छोड़ भागेंगे। केवल ज्योतिषी के कुण्डली मिला देने से पति-पत्नी नहीं हो जाते। यह झूठी पत्नी और ये झूठे पति दोनों अज्ञानी, दोनों अन्धे मिल गये इसलिए थोड़े समय पटरी बैठ गई वरना बैठती नहीं। फिर सारा जीवन क्लेश में ही बीतता है। पूछो ज्योतिषी से कि अट्ठाइस गुण मिले थे फिर झगड़ा क्यों? इसका कोई उत्तर नहीं। तुम्हारे मित्र, शत्रु तुम्हारे ही मन एवं स्वार्थों का प्रक्षेपण हैं। यदि स्वार्थ न हो तो कौन मित्र है, कौन शत्रु है कहना कठिन हो जाएगा। अतः संसार भरोसे योग्य नहीं है जो स्वभाव रूप में सबमें स्थित है। आत्मा भाव रूप है वही सत्य है एवं संसार अभाव रूप है किन्तु दोनों में जो स्वभाव रूप आत्मा है वही सत्य है। उसका कहीं भी अभाव नहीं है। अन्य सभी अभाव स्वरूप हैं।

न दूरं न च संकोचाल्लब्धमेवात्मनः पदम्।
निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम्।। 5।।
अर्थात: यह आत्मपद न तो दूर है, न संकोच से ही प्राप्त होता है। यह निर्विकल्प, निरायास निर्विकार और निरंजन है।
व्याख्या: इस सूत्र में अष्टावक्र आत्मा की स्थिति एवं उसकी विशेषताओं को बताते हुए कहते हैं कि आत्मा कहीं सातवें आसमान में नहीं है, न वह किसी अदृश्य लोक में अथवा स्वर्ग में है, न कहीं हिमालय में, न मठों-मन्दिरों में है जहां उसे ढूँढना पड़े। वह स्वयं के भीतर ही है तथा संकोच से, कठिनाई से प्राप्त होती हो ऐसा भी नहीं है। वह तो सदा उपलब्ध ही है। केवल आँख खोल कर देखना मात्र है। स्वयं की पूर्ण जाग्रत अवस्था से उसे प्राप्त करना है, विकारों की धूलि को पोंछना मात्र है, गन्दे दर्पण को साफ करना मात्र है जिससे उसका आभास हो सके। विचारों के घने बादलों के आवरण से वह सूर्य दिखाई नहीं दे रहा है। विचार शून्य होने पर ही उसका ज्ञान होता है। सभी विधियाँ विचारों को बन्द करने की प्रक्रियाएँ ही हंै। यह आत्मा निर्विकल्प है। निर्विकल्प होकर ही इसे जान सकते हो। वह निरायास है, उसे जानने के लिए कोई प्रयास भी नहीं करना पड़ता। वह निर्विकार है, उसमें कोई विकार नहीं है, शुद्ध है, वैज्ञानिकों के तत्व जैसा। वह यौगिक भी नहीं है। उसमें पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, हित-अहित जैसा कुछ है ही नहीं। वह निर्दोष है, उसमें दोष ही नहीं, वह अल्पित है, उसे विकृत किया ही नहीं जा सकता, न वह छीना जा सकता है, न चोर चुरा सकते हैं, न अप्रकट है, न किसी कमरे में बन्द है कि तुम्हें उसका द्वार खटखटाना पड़े। वह सदा उपलब्ध है। वह विस्मृत है, उसे पुनः स्मृति में लाना मात्र है।

व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः।
वीतशोका विराजन्ते निरावरणदृष्टयः।। 6।।
अर्थात: मोह मात्र से निवृत्त होने पर और अपने स्वरूप के ग्रहण मात्र से वीत शोक और निरावरण दृष्टि वाले पुरुष शोभायमान होते हैं।
व्याख्या: आत्म स्वरूप को उपलब्ध व्यक्ति के विषय में अष्टावक्र कहते हैं कि सांसारिक विषयों के प्रति मोह निवृत्त होने से ही आत्म स्वरूप का ग्रहण हो सकता है। आत्म ज्ञान प्राप्त करना नहीं है केवल उसकी बाधाओं को हटाना मात्र है। दृष्टि एक ही है। उसे मोह के कारण संसार में लगाओ तो केवल संसार ही दिखाई देगा। मोह हटने पर संसार लुप्त हो जायेगा फिर जो भी दिखाई देगा वह आत्मा ही है। फिर प्राणी, पशु-पक्षी यहाँ तक कि पत्थर में भी वही परमात्मा दिखाई देगा। ऐसे आत्म स्वरूप के ग्रहण मात्र से व्यक्ति द्वन्द्वों से पार होकर वीत-शोक वाला एवं निरावरण दृष्टि वाला हो जाता है। फिर सभी को सीधा देखता है। मोह, ममता, राग, द्वेष, प्रेम, घृणा की दृष्टि से नहीं देखता। उसकी सत्य दृष्टि हो जाती है, स्वयं सत्य हो जाता है। ऐसा पुरुष ही शोभायमान होता है।

समस्तं कल्पनामात्रमात्मामुक्तः सनातनः।
इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत्।। 7।।
अर्थात: समस्त जगत् कल्पनामात्र है और आत्मा मुक्त और सनातन है। ऐसा जानकर धीर पुरुष बालक के समान क्या चेष्टा करता है।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि यह समस्त संसार कल्पनामात्र है। तुमने जैसी अच्छी-बुरी कल्पना की वैसा ही तुम्हें संसार दिखाई देता है। तुम्हारी कल्पना का नाम ही मन है जिससे तुम संसार को भिन्न दृष्टि से देख रहे हो, उसका वास्तविक स्वरूप दिखाई नहीं दे रहा है। यदि मन का पर्दा हट जाय तो संसार भिन्न प्रकार का दिखाई देने लगेगा। अतः यह अज्ञानदृष्टि ही तुम्हारा बन्धन है। इसे छोड़कर जिस दिन चेतना द्वारा सीधा ही देखोगे उसी दिन उसी क्षण तुम मुक्त हो, उसी क्षण तुम आत्मज्ञानी हो। यह आत्मा मुक्त और सनातन है। यह स्वयं बन्धन ग्रस्त नहीं है, न ऐसी है कि आज है कल नहीं रहेगी। मरने के बाद ही मिलेगी, स्वर्ग में मिलेगी, ज्ञानी के पास ही है, अज्ञानी में आत्मा होती ही नहीं, पशु-पक्षियों में आत्मा होती ही नहीं, ऐसा भी नहीं है। वह सर्वत्र है, सनातन है। सत्य एक ही है। जिसने संसार को सत्य समझा उसे आत्मा असत्य दिखाई देती है, किन्तु आत्म ज्ञानी को आत्मा सत्य और संसार असत्य दिखाई देता है। वह मात्र दृष्टि है। संसार को सत्य मानना ही आत्मा में बन्धन है। ये वास्तविक नहीं हैं। झूठी मान्यता ने ही झूठे बन्धनों का निर्माण किया है। ज्ञानी की यह भ्रान्ति मिट जाती है जिससे वह मुक्त है। इसके लिये बालक अथवा अज्ञानी की भाँति चेष्टा नहीं करनी पड़ती। अज्ञानी ही चेष्टा करता है, अभ्यास करता है, साधना करता है। आत्मज्ञान चेष्टा, प्रयास, श्रम से प्राप्य नहीं है, वह प्राप्त है केवल निर्विकार दृष्टि से देखने मात्र से। साक्षी मात्र हो जाना ही पर्याप्त है। चेष्टा ही संसार है, साक्षित्व परमात्मा है। तुम्हारी चेष्टा से ही कर्मों का संचय हुआ है, तुमने हजारों जन्मों में प्रयत्न करके ही कर्मों का संचय किया है, नरक जाने के लिए तुमने बहुत परिश्रम किया है किन्तु मुक्ति तो एक क्षण में प्राप्त हो सकती है बिना प्रयत्न के, उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। संग्रह में प्रयत्न करना पड़ता है, त्याग एक क्षण मंे बैठे-बैठे हो जाता है, बिना श्रम के। यह आसक्ति-त्याग ही मुक्ति है। घटना उसी क्षण घट जायेगी जैसे कोई स्वप्न में जागा हो। सभी संचित कर्म जागते ही लुप्त हो जायेंगे जैसे स्वप्न में किये गये पाप-पुण्य का दण्ड जागने पर नहीं मिलता। मुक्त तुम थे ही। बन्धन ही भ्रान्ति थी सो मिट गई। बैठे-बैठे ही मुक्त हो गये, सुनकर ही मुक्त हो गये, ‘न कहूँ गया न आया’। न उपवास में मुक्ति है, न शीर्षासन लगाने में, न कुण्डलिनी जगाना पड़ता है, न बन्ध व मुद्राएँ आवश्यक हैं, न शास्त्र आवश्यक हैं, न गुरु। अज्ञान की स्वीकृति ही ज्ञान का द्वार है, अहंकार गिराकर सहज हो जाना ही मार्ग है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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