अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

चार प्रकार के होते हैं भक्त

गीता-माधुर्य-17

 

गीता-माधुर्य-17
योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं।
-प्रधान सम्पादक

जब ऐसी ही है तो फिर सब आप के शरण क्यों नहीं होते?
जो आसुर भाव का आश्रय लेने वाले हैं और माया से जिनका ज्ञान (विवेक) ढका हुआ है, ऐसे मनुष्यों में महान् नीच तथा पाप-कर्म करने वाले मूढ़ मनुष्य मेरी शरण नहीं होते।। 15।।
तो फिर आपके शरण कौन होते हैं भगवन्?
हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी (प्रेमी) – ये चार सुकृति भक्त मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।। 16।।
इन चारों में श्रेष्ठ कौन है?
इन चारों भक्तों में अनन्य भक्ति वाला ज्ञानी (प्रेमी) भक्त श्रेष्ठ है, क्योंकि वह निरन्तर मुझ में लगा रहता है। इसलिये मैं उसको और वह मुझे अत्यन्त प्यारा है।। 17।।
क्या दूसरे भक्त श्रेष्ठ नहीं हैं?
वे सभी उदार हैं, श्रेष्ठ हैं।
फिर प्रेमी भक्त में क्या विशेषता हुई?
प्रेमी भक्त तो मेरी आत्मा (स्वरूप) ही है-ऐसा मत है। क्योंकि जिससे श्रेष्ठ दूसरी कोई गति नहीं है, ऐसे मुझ में ही वह लगा हुआ है और मुझ में ही दृढ़ आस्था वाला है। तात्पर्य है कि अर्थार्थी में धन की भी इच्छा है, आर्त में दुःख दूर करने की भी इच्छा है और जिज्ञासु में तत्त्व को जानने की भी इच्छा है परन्तु ज्ञानी (प्रेमी) में तो किसी भी तरह की कोई इच्छा नहीं है।। 18।।
ज्ञानी अर्थात् प्रेमी भक्तकी इतनी महिमा क्यों है?
बहुत जन्मों के अन्तिम इस मनुष्य जन्म में मेरे शरण होकर ‘सब कुछ वासुदेव (परमात्मा) ही है’ – ऐसा ज्ञानवान् महात्मा संसार में अत्यन्त दुर्लभ है।। 19।।
ऐसा प्रेमी भक्त न होने में क्या कारण है?
तरह- तरह की कामनाओं के कारण जिनका ‘सब कुछ वासुदेव ही है’- यह ज्ञान ढक गया है, ऐसे वे अपने स्वभाव के परवश हुए मनुष्य मेरे शरण न होकर कामना पूर्ति के लिए अनेक उपायों और नियमों को धारण करते हुए दूसरे देवताओं के शरण हो जाते हैं अर्थात् उन देवताओं की उपासना में लग जाते हैं।। 20।।
उनको आप अपनी तरफ क्यों नहीं खींच लेते?
मैं मनुष्यों की दी हुई स्वतन्त्रता को छीनता नहीं हूँ, प्रत्युत जो मनुष्य श्रद्धा पूर्वक जिस-जिस देवताका पूजन करना चाहता है, उस-उस देवता के प्रति मैं उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ और वह उसी श्रद्धा से युक्त होकर सकाम भाव से उस देवता की उपासना करता है। परन्तु भैया, एक विचित्र बात है कि उनको उस उपासना से जो फल मिलता है, वह मेरे द्वारा विधान किया हुआ ही मिलता है, पर सकाम भाव पूर्वक देवताओं की उपासना करने के कारण उन अल्पबुद्धि वाले मनुष्यों को अन्त वाला अर्थात् उत्पन्न और नष्ट होने वाला फल ही मिलता है, मैं नहीं मिलता। देवताओं का पूजन करने वाले अधिक-से-अधिक देवताओं के पुनरावर्ती लोकों में जा सकते हैं, पर मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।। 21-23।।
जब आपके भक्त आपको ही प्राप्त होते हैं तो फिर सब आपके भक्त क्यों नहीं हो जाते?
भैया ! बुद्धि हीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परम भाव को न जानते हुए मुझ अव्यक्त परमात्मा को जन्मने व मरने वाला मनुष्य ही मानते हैं। फिर वे मेरे भक्त कैसे बन सकते हैं।। 24।।
वे आपके परमभाव को नहीं जानते तो न सही, पर आप उनके सामने अपने असली रूप से प्रकट क्यों नहीं हो जाते ?
नहीं भैया ! जब वे मूढ़ लोग मुझे अजन्मा और अविनाशी नहीं मानते, तब योगमाया से अच्छी तरह से आवृत हुआ मैं उनके सामने अपने असली रूप से प्रकट नहीं होता।। 25।।
क्या उस योग माया का परदा आपके सामने नहीं रहता?
नहीं अर्जुन, मैं तो भूत, भविष्य और वर्तमान में होने वाले सम्पूर्ण प्राणियों को जानता हूँ, पर वे माया से मोहित जीव मुझे नहीं जानते।। 26।।
आपको न जानने में मुख्य कारण क्या है?
हे भरत वंशी अर्जुन ! मुझे न जानने में मुख्य कारण है- राग और द्वेष से उत्पन्न होने वाला द्वन्द्व मोह। हे पार्थ! इसी द्वन्द्व मोह से मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसार में जन्म-मरण को प्राप्त होते रहते हैं।। 27।।
तो क्या सभी द्वन्द्व मोह से मोहित रहते हैं?
नहीं, जिन पुण्यकर्मा मनुष्यों के पाप नष्ट हो गये हैं, वे द्वन्द्व मोह से रहित हो जाते हैं और दृढ़व्रती होकर मेरे भजन में लग जाते हैं।। 28।।
दृढव्रती होकर आपके भजन में लग जाने से क्या होता है?
जो जरा-मरण आदि दुःखों से मुक्ति पाने के लिये केवल मेरा ही आश्रय लेकर यत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जान जाते हैं तथा वे अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ के सहित मुझे अर्थात् मेरे समग्र रूप को (‘सब कुछ वासुदेव ही है’- इस रूपको ) जान जाते हैं। इतना ही नहीं, वे अनन्य भक्त अन्तकाल में मुझे ही प्राप्त होते हैं।। 29-30।। (हिफी)
(क्रमशः साभार)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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