लेखक की कलम

लाख नियामत हैं मिट्टी के घड़े

(अचिता-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

सूर्य देवता तप रहे हैं। अप्रैल बीतते-बीतते लखनऊ का तापमान साढ़े 45 डिग्री पर पहुंच गया है। गला सूख रहा है। ऐसे में देसी फ्रिज अर्थात् मिट्टी के घड़ों की याद आती है। अब तो बहुत घरों में फ्रिज का राज चलने लगा है लेकिन घड़े और सुराही का पानी ठण्डा भी होता है और गले को नुकसान भी नहीं पहुंचाता। उत्तर प्रदेश में लखनबी नक्काशीदार सुराही और बुंदेलखण्ड में विशेष रूप से बनाए गये पानी के घड़े भी तमाम घरों मंे पहुंच चुके हैं। भले ही एक ही सीजन में इनको प्रयोग मंे लाया जाता है लेकिन इतने ही समय भी कीमत वसूल हो जाती है।
‘देसी फ्रिज’ के नाम से विख्यात बुंदेलखंड के कोछाभांवर गांव के घड़ों को बाजार के विस्तार से जोड़ कर इन्हें विश्व फलक पर नयी पहचाने देने के लिये झांसी के मंडल आयुक्त डा अजय शंकर पाण्डेय ने अनूठी पहल की है। बुंदेलखंड की स्थानीय कला, संस्कृति और हुनर को बढ़ावा देने के लिये आयुक्त द्वारा चलाये गये अभियान में कोछाभांवर गांव के मटके (घड़े) भी शामिल हो गये। गौरतलब है कि कुंभकारों द्वारा हाथ से ही खास तरीके से बनाये जाने के कारण कोछाभांवर के मटके न सिर्फ“देसी फ्रिज’ बल्कि ‘देसी फिल्टर’ के नाम से भी विख्यात हैं। गांव के एक प्राचीन तालाब की काली और लाल मिट्टी के अनूठे मिश्रण से घड़े बनाने की सदियों पुरानी कला को आजीविका का सशक्त माध्यम बनाने के लिए डाॅ. पाण्डेय ने उन कुंभकारों से बातचीत की जो संकट से जूझती इस तकनीक के हुनर को किसी तरह जिंदा रखे हुए हैं। उन्होंने बताया कि भीषण गर्मी में शीतल जल से प्यास बुझाने वाले कोछाभांवर के विख्यात मटकों को बाजार की उपयुक्त पहुंच में लाने और इन्हें बनाने वाले कुंभकारों को उनकी मेहनत एवं हुनर का वाजिब दाम दिलाने के लिये बाजार संगठनों को जाड़ा गया है। डा पाण्डेय ने बताया कि मौजूदा दौर में इस गांव के बाहर ही कुंभकार अपने बनाये हुए घड़ों को राष्ट्रीय राजमार्ग पर अस्थायी दुकानों से राहगीरों को मामूली दाम पर बेचते हैं। कुंभकारों के इस हुनर और इनके उत्पाद को प्रोत्साहन देने के लिये मंडल के सभी सरकारी कार्यालयों में कोछाभांवर के मटके ही रखने की अनिवार्यता को लागू कर दिया गया है।
डाॅ. पाण्डेय ने बताया कि कुंभकारों ने उन्हें अवगत कराया है कि गांव के जिस तालाब से मटके बनाने के लिए वे विशिष्ट मिट्टी एकत्र करते हैं, वह तालाब अब सूखने की कगार पर है। ऐसी मिट्टी आसपास कहीं और नहीं मिलती है, इसलिये प्रशासन को बुंदेलखंड में इस तालाब की मिट्टी का परीक्षण कर ऐसी ही मिट्टी के स्रोत का पता लगाने को कहा गया है। कुंभकारों ने डा पाण्डेय को बताया कि झांसी मेडिकल कॉलेज के तालाब की मिट्टी इसका विकल्प हो सकती है। इस पर मंडल आयुक्त ने मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य को उक्त तालाब की मिट्टी कुंभकारों को मटके बनाने के लिए मुुहैया कराने का निर्देश दिया। साथ ही आसपास के इलाकों में ऐसी ही मिट्टी की खोज करने के लिये कृषि विभाग के संयुक्त निदेशक एस एस चैहान को निर्देश दिये गये हैं।
मंडल आयुक्त ने जिला खादी ग्रामोद्योग अधिकारी को इन घड़ों को बनाकर बेचने वाले गांव केे 74 परिवारों को गर्मी के बाद उनकी कुम्हारी कला के हुनर का अन्य वस्तुयें बनवाकर इनकी आजीविका को व्यापक बनाने में मदद करने के लिए कहा गया है। इसके लिए जिला खादी ग्रामोद्योग अधिकारी को बाकायदा परियोजना रिपोर्ट तैयार कर बारिश के पहले पेश करने को कहा गया है जिससे इस साल गर्मी खत्म होने तक इन कुंभकारों को इनके हुनर के मुताबिक आजीविका के साधन मुहैया कराये जा सकें। मंडल आयुक्त डा पाण्डेय की इस पहल से खुश कुंभकारों का मानना है कि उनके बनाये मटकों के बारे में प्रचलित कहावत “कोछाभांवर के मटके, कभी न चटके, ले जाओ बेखटके और पानी पियो खूब डटके” अब सही मायने में चरितार्थ होगी।
हमारे देश में मिट्टी के पात्र जीवन के अंग रहे हैं। संस्कृत का नाटक मुच्छकटिका इसका प्रमाण है। गर्मी मंे सुराही और घड़े की याद आती है। चिड़ियों के लिए पानी रखने वाले बर्तन की याद आती है। कुल्हड़ में ठंडाई मिल जाए तो कितना अच्छा हो-ऐसी बातें भी ध्यान में आती रहती हैं। गनीमत है कि अभी भी शहरों-महानगरों में किसी कोने-किनारे में, किसी गली-गलियारे में, माटी के पात्र बिकते हुए दिख जाते हैं।
गर्मियों में ही वे हमें, हमारी छोटी-बड़ी यात्राओं में दिखते हैं। किसी पेड़ की छाया में, किसी चारपाई के पास, रखा हुआ घड़ा दिख जाता है। किसी मुंडेर पर, चारदीवारी पर, चिड़ियों के लिए माटी के बर्तन में पानी रखा हुआ मिल जाता है-और वह दृश्य भी तो कितना प्रीतिकर होता है, जब उसमें कोई चिड़िया चेंच डुबाए, नहाती हुई मिल जाती है। समय के साथ कई चीजें हमारे घर से बाहर हो गईं। आज एसी कमरे में जब हम सोकर जागते हैं तो शरीर अकड़ जाता है। फ्रिज और वॉटर कूलर का पानी गले के साथ ही दांत भी खराब कर रहा। सुराही और मटकी जैसे प्राकृतिक फ्रिज गला खराब नहीं करते, बिजली भी बचाते हैं। जो लोग घड़े के पानी की अहमियत को समझते हैं, वो आज भी उसी का पानी पीते हैं। मिट्टी में कुछ ऐसे गुण होते हैं, जिनके कारण पानी में मौजूद विषैले पदाथों को अवशोषित कर पानी को शुद्ध कर देती है। अब जब संक्रमण से बचाव के लिए गर्म या नॉर्मल पानी पीने की सलाह दी गई है, तो लोग इस भीषण गर्मी में भी फ्रिज का ठंडा पानी पीने से परहेज कर रहे। इसी के चलते अब मिट्टी के मटके, सुराही आदि की दुकानों पर भी ग्राहक दिखने लगे हैं। इसलिए मटके और सुराही बनाने वालों की उम्मीद भी जिंदा है। (हिफी)

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