अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

प्राप्त को पर्याप्त समझने से मिटती तृष्णा

अष्टावक्र गीता-33

 

अष्टावक्र कहते हैं कि हम प्राप्त को पर्याप्त नहीं समझते इसलिए तृष्णा रूपी संसार बढ़ता है। प्राप्त को पर्याप्त समझने वाला ही बीत-तृष्णा होता है और उसे मोक्ष मिलता है।

अष्टावक्र गीता-33

दसवाँ प्रकरण
(तृष्णा ही बन्ध है; प्रौढ़ वैराग्य द्वारा वीत-तृष्णा ही मुक्ति है)
तदा बन्धो यदा चित्तं किंचिद्वाञछति शोचति।

सूत्र: 1
विहाय वैरिणं कामंर्थं चानर्थसंकुलम्।
धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रानादरं कुरु।। 1।।
अर्थात: अष्टावक्र जी आगे कहते हैं-‘वैर स्वरूप काम को और अनर्थ से भरे अर्थ को त्यागकर और दोनों के कारण-रूप धर्म को भी छोड़कर तू सबकी उपेक्षा कर।’
व्याख्या: नवें प्रकरण में अष्टावक्र ने कहा कि यह संसार द्वन्द्वात्मक है जिसमें शान्ति है ही नहीं अतः इसकी उपेक्षा करने से ही शान्ति प्राप्त हो सकती है। वासना का त्याग ही उसके प्रति उपेक्षा है। इस प्रकरण में अष्टावक्र कहते हैं कि मोक्ष-प्राप्ति में ‘काम’ दुश्मन के समान है। जहाँ काम अर्थात् कामना है वहीं संसार है तथा अर्थ अथवा धन-सम्पत्ति तो अनर्थ का कारण है ही। संसार के सारे अनर्थों के मूल में कामना और अर्थ ही है। इन दोनों की उपेक्षा से ही मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है। यहाँ पर भी अष्टावक्र इन्हें छोड़ने की बात न कहकर उनकी उपेक्षा की बात कहते हैं कि न ये प्रशंसनीय हैं न निन्दनीय बल्कि उपेक्षा के योग्य हैं। आत्मज्ञानी को इनकी उपेक्षा करनी चाहिए क्योंकि निन्दा व प्रशंसा दोनों में कामना ही है जो वैरस्वरूप है। साथ ही अष्टावक्र इन दोनों के कारण रूप धर्म की भी उपेक्षा करने की बात कहते हैं। शास्त्रों में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों को महत्व दिया गया है। संसारी व्यक्ति को प्रथम तीन का सेवन करते हुए मोक्ष-प्राप्ति की ओर ही बढ़ना चाहिए, क्योंकि वही जीव की अन्तिम स्थिति है किन्तु मोक्ष-प्राप्ति से ध्यान को हटाकर बाकी तीन का सेवन करते रहना ही भोगवादी दृष्टि है एवं मोक्ष का ध्यान रखकर इनका सेवन करना धर्म सम्मत माना गया है। अष्टावक्र आत्मज्ञानी जनक को मोक्ष-प्राप्ति हेतु काम तथा अर्थ के साथ ऐसे धर्म की भी उपेक्षा करने को कहते हैं क्योंकि ऐसा धर्म भी नहीं है, यह भी बन्धन का कारण है। यह भी साधना मात्र था। सिद्धि मिलने पर, सभी साधन छोड़ देने चाहिए। तभी होती है परम स्वतन्त्रता, परम मुक्ति।

सूत्र: 2
स्वप्नेन्द्रजालवत् पश्य दिनादि त्रीणि पंच वा।
मित्रक्षेत्रधनागारदारदायादि सम्पदः।। 2।।
अर्थात: मित्र, खेत, धन, मकान, स्त्री, भाई आदि सम्पदा को तू स्वप्न और इन्द्रजाल के समान देख जो तीन या पाँच दिन ही टिकते हैं।
व्याख्या: भारतीय धर्म संसार विरोधी कभी नहीं रहा। उसने कभी भी नहीं कहा कि संसार मिथ्या है, झूठा है, नरक है, माया है, इसमें दुःख ही दुःख हैं, सुख इसमें है ही नहीं, ये स्त्री, पुत्र, धन, मकान, मित्र, सगे-सम्बन्धी आदि सभी नरक में ले जाने वाले हैं इनका त्याग कर जंगल में भाग जाओ, हिमालय की गुफा में रहो, ये सब बन्धन के कारण हैं, इनको छोड़ने से मुक्ति हो जायेगी आदि। ये सब मूढ़ मान्यताएँ हैं जो धर्म से अनभिज्ञ अज्ञानियों द्वारा व्यक्त की गई हैं। धर्म तो संसार को मोक्ष-प्राप्ति का सबसे बड़ा साधन मानता है जिसमें रहकर ही मोक्ष उपलब्ध किया जा सकता है इसीलिए देवता भी मोक्ष-प्राप्ति हेतु पुनः संसार में आने के लिए लालायित रहते हैं। यह संसार ही वह पाठशाला है जिसमें अनुभव प्राप्त कर मुक्ति की साधना सम्भव है किन्तु इसमें आकर भोगवादी दृष्टि से मनुष्य का पतन होता है। अतः निन्दा संसार की नहीं इसके प्रति वासना, तृष्णा, अहंकार, कामना आदि की की गई है। इसका भी कारण यह है कि यह संसार व इसके भोग एवं सभी नाते-रिश्ते क्षणिक हैं, शाश्वत नहीं है, थोड़े दिन के हैं। भारतीय अध्यात्म क्षणिक की अपेक्षा शाश्वत को महत्व देता है। भारत ने इस शाश्वत को ही सत्य कहा है जो तीनों काल में स्थिर रहे। क्षा-क्षण बदलने वाला सत्य नहीं है। इसी कारण अष्टावक्र कहते हैं कि जैेसा स्वप्न में सब कुछ दिखाई देता है किन्तु उसके टूटने पर सारा विलुप्त हो जाता है, इन्द्रजाल में कई वस्तुएँ भ्रमवश दिखाई देती हैं इसी प्रकार मोक्ष की इच्छा करने वाले को इस संसार को स्वप्नवत् एवं इन्द्रजाल के समान मानना चाहिए। क्येांकि ये मित्र, खेत, धन, मकान, स्त्री, भाई आदि समस्त सम्पदाएँ थोड़े समय के लिए सत्य हैं। ये शाश्वत नहीं है कि हर जन्म में तुम्हारे साथ रहेंगी ही। मृत्यु पर स्वप्न की भाँति सारा दृश्य बदल जायेगा। अगले जन्म में फिर सब नये सम्बन्धी होंगे, नये रिश्ते होंगे। इस प्रकार अनेक जन्मों में अनेक रिश्ते बनेंगे व मिटेंगे। इनमें तुम्हारा साथ देने वाला कोई भी नहीं है, न तुम किसी का साथ दे सकोगे। ये सब तीन या पाँच दिन ही टिकेंगे यानि क्षण भंगुर हैं। अतः ज्ञानी को मोक्ष-प्राप्ति हेतु इन सबकी उपेक्षा करनी चाहिए। अष्टावक्र भी इन्हें छोड़कर भागने की मूर्खतापूर्ण बात नहीं कहते हैं। वे कहते हैं कि इस तथ्य का बोध हो जाना पर्याप्त है। इस बोध से ही आत्मक्रान्ति हो जायेगी। बिना बोध के संसार छोड़ने से कुछ नहीं होगा। उनका सारा उपदेश बोध का ही है।

सूत्र: 3
यत्र यत्र भवेत्तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै।
प्रौढ़वैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णः सुखी भवः ।। 3।।
अर्थात: जहाँ-जहाँ तृष्णा हो, वहाँ-वहाँ ही संसार जान। प्रौढ़ वैराग्य को आश्रय करके वीत-तृष्णा होकर सुखी हो।
व्याख्या: अष्टावक्र कहते हैं कि मनुष्य अपना संसार स्वयं बनाता है। मनुष्य की तृष्णा ही उसका संसार है। परमात्मा ने मनुष्य को बहुत कुछ दिया है, आत्मा एवं शरीर जैसी बहुमूल्य वस्तु उसे दी है किन्तु इस आत्मा के अज्ञान से वह भिखारी की तरह संसारी विषयों की चाह करता है, उनको प्राप्त करने की अन्धी दौड़ में पड़ जाता है जिससे वह निरन्तर दुःखी होता जाता है। वह प्राप्त पदार्थों से अधिक प्राप्त करने की इच्छा करता है और अप्राप्त की प्राप्ति की इच्छा में वह निरन्तर दौड़-धूप करता रहता है। उसकी यह तृष्णा कभी शान्त नहीं होती जिससे वह संसार में सुख-दुःखों का अनुभव करता है। अष्टावक्र कहते हैं कि जहाँ-जहाँ तृष्णा है वहाँ-वहाँ ही संसार ज्ञान। यदि मनुष्य की तृष्णा शान्त हो जाये, यदि उसे जितना प्राप्त है उसी में सन्तुष्ट हो जाये तो वह सुखी हो सकता है। इसी को अष्टावक्र वीत-तृष्णा कहते हैं। इस वीत-तृष्णा की उपलब्धि प्रौढ़-वैराग्य को आश्रय करके स्थित होने को कहते हैं जिससे वह सुखी हो सकता है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

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