
गीता-माधुर्य-18 योगेश्वर कृष्ण ने अपने सखा गांडीवधारी अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में जब मोहग्रस्त देखा, तब कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग का गूढ़ वर्णन करके अर्जुन को बताया कि कर्म करना ही तुम्हारा कर्तव्य है, फल तुम्हारे अधीन है ही नहीं। जीवन की जटिल समस्याओं का ही समाधान करना गीता का उद्देश्य रहा है। स्वामी रामसुखदास ने गीता के माधुर्य को चखा तो उन्हें लगा कि इसका स्वाद जन-जन को मिलना चाहिए। स्वामी रामसुखदास के गीता-माधुर्य को हिफी फीचर (हिफी) कोटि-कोटि पाठकों तक पहुंचाना चाहता है। इसका क्रमशः प्रकाशन हम कर रहे हैं। -प्रधान सम्पादक ।। श्रीपरमात्मने नमः ।। आठवाँ अध्याय अर्जुन बोले- हे पुरुषोत्तम! अभी आपने अपने आश्रित जनों के द्वारा अपने ब्रह्म, अध्यात्म आदि समग्र रूप को जानने की बात कही; अतः मैं यह पूछना चाहता हूँ कि वह ब्रह्म क्या है? भगवान् बोले- उस परम अक्षर अर्थात् निर्गुण-निराकार परमात्मा को ब्रह्म कहते हैं। वह अध्यात्म क्या है? जीवोंकी सत्ता (होनेपन) को अध्यात्म कहते हैं। वह कर्म क्या है? महाप्रलय में अपने कर्मों के सहित मुझमें लीन हुए महासर्ग के आदि में कर्मफल- भोग के लिये अपने में से प्रकट कर देना अर्थात् शरीरों के साथ विशेष सम्बन्ध कर देना ही त्यागरूप कर्म है। अधिभूत किसको कहा गया है भगवन्? हे देह धारियों में श्रेष्ठ अर्जुन ! नष्ट होने वाले अधिभूत हैं। अधिदैव किसको कहा जाता है? सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहले प्रकट होने वाले हिरण्य गर्भ ब्रह्माजी अधिदैव हैं। इस देह में अधियज्ञ कौन है? इस मनुष्य शरीर में अन्तर्यामी रूप से मैं ही अधियज्ञ हूँ। हे मधुसूदन! वश में किये हुए अन्तःकरण वाले मनुष्यों के द्वारा अन्तकाल में आप कैसे जानने में आते हैं? हे अर्जुन! मैं अन्तकाल के विषय में अपना नियम सुनाता हूँ। जो मनुष्य अन्तकाल में मेरा स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह मुझे ही प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है।। 1-5।। अन्तकाल में आपका स्मरण करे तो आपको प्राप्त होगा, पर यदि आपका स्मरण न करे, तो? हे कुन्तीनन्दन! मनुष्य अन्तसमय में जिस-जिस भावका स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उसी (अन्त समय के) भावसे सदा भावित हुआ उसी भावको प्राप्त हो जाता है।। 6।। तो फिर अन्त काल में आपके स्मरण के लिये क्या करना चाहिये? तू अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण करके सब समय मेरा ही स्मरण कर और प्राप्त कर्तव्यकर्म भी कर। इससे क्या होगा ? तू निःसन्देह मुझे ही प्राप्त होगा।। 7।। आपके किस स्वरूप का चिन्तन करने से नियतात्मा मनुष्य आपको कैसे प्राप्त कर लेता है भगवन्? मेरे सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार- ये तीन स्वरूप हैं। इनमें से पहले मैं सगुण-निराकार के चिन्तन से अपनी प्राप्ति बताता हूँ। हे पार्थ! जो मनुष्य अभ्यासयोग से युक्त अनन्यचित्त से परम दिव्य पुरुष का अर्थात् मेरे सगुण- निराकार स्वरूप का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह मेरे उसी स्वरूप को प्राप्त हो जाता है।। 8।। वह स्वरूप कैसा है भगवन्? वह सर्वज्ञ है, सबका आदि है, सबपर शासन करने वाला है, सूक्ष्म से सूक्ष्म है, सबका धारण-पोषण करने वाला है, अचिन्त्य है, और अज्ञान – अन्धकार से रहित तथा सूर्यकी तरह प्रकाश स्वरूप है। ऐसे स्वरूप का जो चिन्तन करता है, वह भक्तियुक्त मनुष्य अन्तकाल में योग बल के द्वारा अचल मनसे अपने प्राणों को भृकुटी के मध्य में अच्छी तरह से स्थापन करके शरीर छोड़ने पर उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है।। 10।। मैंने आपके सगुण-निराकार स्वरूप के चिन्तन से आपकी प्राप्ति की बात सुन ली। अब यह बताइये कि निर्गुण-निराकार का नियतात्मा मनुष्य आपको कैसे प्राप्त करता है? वेदवेत्ता लोग जिसको अक्षर कहते हैं, राग रहित यति लोग जिसको प्राप्त करते हैं और जिसको प्राप्त करने की इच्छा से ब्रह्मचारी लोग ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पदकी प्राप्ति की बात मैं संक्षेप से कहूँगा। जो साधक अन्तकाल में सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके, मनको हृदय में स्थापित करके और प्राणों को मस्तिष्क में धारण करके योग धारणा में स्थित हुआ ‘ऊँ’ इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण और मेरे निर्गुण-निराकार स्वरूप का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह परम गति को प्राप्त होता है।। 11-13।। निर्गुण-निराकार के चिन्तन से आप प्राप्त हो जाते हैं, यह बात मैंने सुन ली। अब यह बताइये कि सगुण-साकार के चिन्तन से नियतात्मा मनुष्य आपको कैसे प्राप्त करता है? हे पार्थ! अनन्यचित्त वाला जो मनुष्य नित्य निरन्तर मेरा ही चिन्तन करता है, मुझ में सदा लगे हुए उस योगी को मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको मैं सुलभता से प्राप्त हो जाता हूँ।। 14।। आपकी प्राप्ति से क्या होता है भगवन्? जो महात्मालोग मेरे परम प्रेम से युक्त होकर मुझे प्राप्त कर लेते हैं, वे हर समय मिटने वाले और दुःखों के घर रूप पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते।। 15।। तो फिर पुनर्जन्म किसका होता है? हे अर्जुन! ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्ती हैं, इसलिये उन लोकों में जाने पर फिर लौटकर आना ही पड़ता है अर्थात् फिर जन्म लेना ही पड़ता है। परन्तु हे कौन्तेय! मेरी प्राप्ति होने पर फिर जन्म नहीं लेना पड़ता।। 16।। वे लोक पुनरावर्ती क्यों हैं? कालकी अवधि वाले होने से। वह कालकी अवधि क्या है? दिन-रात के तत्त्व को जानने वाले पुरुष यह जानते हैं कि एक हजार चतुर्युगी’ बीतने पर ब्रह्मा का एक दिन होता है और एक हजार ही चतुर्युगी बीतने पर ब्रह्मा की एक रात होती है। ब्रह्मा के दिनके आरम्भ काल में (नींद से ब्रह्मा के जगने पर) ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से सम्पूर्ण प्राणी प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रात के आरम्भ काल में (ब्रह्मा के सोने पर) ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में सम्पूर्ण प्राणी लीन हो जाते हैं।। 17-18।। (हिफी) (क्रमशः साभार)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)