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धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सोलहवां अध्याय-01)

तप, अहिंसा, सत्य व त्याग का वर्णन

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

अभयं सत्त्वसंशुद्धिज्र्ञानयोगव्यवस्थितिः।
दानं दमश्व यज्ञश्व स्वायायस्तप आर्जवम्।। 1।।
प्रश्न-‘अभय’ किसको कहते हैं?
उत्तर-इष्ट के वियोग और अनिष्ट के संयोग की आशंका से मन में जो कायरतापूर्ण विकार होता है, उसका नाम भय है-जैसे प्रतिष्ठा के नाश का भय, अपमान का भय, निन्दा का भय, रोग का भय, राजदण्ड का भय, भूत-प्रेम का भय और मरण का भय आदि। इन सबके सर्वथा अभाव का नाम ‘अभय’ है।
प्रश्न-‘सत्त्वसंशुद्धि’ क्या है?
उत्तर-‘सत्त्व’ अन्तःकरण को कहते हैं। अन्तःकरण में जो राग-द्वेष, हर्ष-शोक, ममत्व-अहंकार और मोह-मत्सर आदि विकार और नाना प्रकार के कलुषित पापमय भाव रहते हैं-उनका सर्वथा अभाव होकर अन्तःकरण का पूर्णरूप से निर्मल, परिशुद्ध हो जाना-यही सत्त्व संशुद्धि अन्तःकरण की सम्यक् शुद्धि है।
प्रश्न-‘ज्ञानयोगव्यवस्थिति’ किसको कहते हैं?
उत्तर-परमात्मा के स्वरूप को यथार्थ रूप से जान लेने का नाम ‘ज्ञान’ है और उसकी प्राप्ति के लिये जो परमात्मा के ध्यान में निरन्तर स्थित रहना है, उसे ‘ज्ञानयोगव्यवस्थिति’ कहते हैं।
प्रश्न-‘दानम्’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-कर्तव्य समझकर देश, काल और पात्र का विचार करके निष्काम भाव से जो अन्न, वस्त्र, विद्या और औषधादि वस्तुओं का वितरण करना है-उनका नाम ‘दान’ है।
प्रश्न-‘दम्’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर उन्हें अपने वश में कर लेना ‘दम’ है।
प्रश्न-‘यज्ञः’ पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-भगवान् की तथा देवता, ब्राह्मण, महात्मा, अतिथि माता-पिता और बड़ांे की पूजा करना हवन करना और बलिवैश्व देव करना आदि सब यज्ञ हैं।
प्रश्न-‘स्वाध्याय’ किसको कहते हैं?
उत्तर-वेद का अध्ययन करना, जिनमें विवेक-वैराग्य का तथा भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व, स्वरूप एवं उनकी दिव्य लीलाओं का वर्णन हो-उन शास्त्र, इतिहास और पुराण आदि का पठन-पाठन करना एवं भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन करना आदि सभी स्वाध्याय हैं।
प्रश्न-‘तपः’ पद यहाँ किसका वाचक है?
उत्तर-अपने धर्म का पालन करने के लिये कष्ट सहन करके जो अन्तःकरण और इन्द्रियों को तपाना है, उसी का नाम यहाँ ‘तपः’ पद है। सतरहवें अध्याय में जिस शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप का निरूपण है-यहाँ ‘तपः’ पद से उसका निर्देश नहीं है, क्योंकि उसमें अहिंसा, सत्य, शौच, स्वाध्याय और आर्जब आदि जिन लक्षणों का तप के अंग रूप में निरूपण हुआ है-यहाँ उनका अलग वर्णन किया गया है।
प्रश्न-‘आर्जब’ किसको कहते हैं?
उत्तर-शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण की सरलता को ‘आर्जव’ कहते हैं।
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं हीरचापलम्।। 2।।
प्रश्न-‘अहिंसा’ किसे कहते हैं?
उत्तर-किसी भी प्राणी को कभी कहीं भी लोभ, मोह या क्रोधपूर्वक अधिक मात्रा में, मध्य मात्रा में या थोड़ा-सा भी किसी प्रकार का कष्ट स्वयं देना, दूसरे से दिलवाना या कोई किसी को कष्ट देता हो तो उसका अनुमोदन करना हर हालत में हिंसा है। इस प्रकार की हिंसा का किसी भी निमित्त से मन, वाणी, शरीर द्वारा न करना-अर्थात् मन से किसी का बुरा न चाहना, वाणी से किसी को न तो गाली देना, न कठोर वचन कहना और न किसी प्रकार के हानिकारक वचन ही कहना तथा शरीर से न किसी को मारना, न कष्ट पहुँचाना और न किसी प्रकार की हानि ही पहुँचाना आदि-ये सभी अहिंसा के भेद हैं।
प्रश्न-‘सत्य’ किसको कहते हैं?
उत्तर-इन्द्रियों और अन्तःकरण से जैसा कुछ देखा, सुना और अनुभव किया गया हो-दूसरों को ठीक वैसा ही समझाने के लिये कपट छोड़कर जो यथा सम्भव प्रिय और हितकर वाणी का उच्चारण किया जाता है-उसे ‘सत्य’ कहते हैं।
प्रश्न-‘अक्रोधः’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-स्वभाव दोष से अथवा किसी के द्वारा अपमान, अपकार, निन्दा या मन के प्रतिकूल कार्य किये जाने पर, दुर्वचन सुनकर अथवा किसी का अनीतियुक्त कार्य देखकर मन में जो एक द्वेषपूर्ण उत्तेजनामयी वृत्ति उत्पन्न होती है-यह भीतर का क्रोध है, इसके बाद जो शरीर और मन में जलन, मुख पर विकार और नेत्रों में लाली उत्पन्न हो जाती है-वह बढ़े हुए क्राध का स्वरूप है। उन जलने और जलाने वाली दोनों प्रकार की वृतियों का नाम ‘क्रोध’ है। इन वृत्तियों का सर्वथा अभाव ही अक्रोध है।
प्रश्न-‘त्याग’ किसको कहते हैं?
उत्तर-केवल गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, मेरा इन कर्मों से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है-ऐसा मानकर, अथवा मैं तो भगवान् के हाथ की कठपुतली मात्र हूँ, भगवान् ही अपनी इच्छानुसार मेरे मन, वाणी और शरीर से सब कर्म करवचा रहे हैं, मुझमें न तो अपने आप कुछ करने की शक्ति है और न मैं कुछ करता ही हूँ-ऐसा मानकर कर्तव्य-अभिमान का त्याग करना ही त्याग है या कर्तव्य कर्म करते हुए उनमें ममता, आसक्ति, फल और स्वार्थ का सर्वथा त्याग करना भी त्याग है, एवं आत्मोन्नति में विरोधी वस्तु, भाव और क्रिया मात्र के त्याग का नाम भी ‘त्याग’ कहा जा सकता है।
प्रश्न-‘शान्ति’ किसको कहते हैं?
उत्तर-संसार के चिन्तन का सर्वथा अभाव हो जाने पर विक्षेप रहित अन्तःकरण में जो सात्त्विक प्रसन्नता होती है, यहाँ उसका नाम ‘शान्ति’ है।
प्रश्न-‘अपैशुन’ किसको कहते हैं?
उत्तर-दूसरे के दोष देखना या उन्हें लोगों में प्रकट करना, अथवा किसी की निन्दा या चुगली करना पिशुनता है, इसके सर्वथा अभाव का नाम ‘अपैशुन’ है।-क्रमशः (हिफी)

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