परमात्मा की प्राप्ति में सबका अधिकार है
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-19)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘दम्’ किसको कहते हैं?
उत्तर-समस्त इन्द्रियों को वेश में कर लेना तथा वश में की हुई इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर परमात्मा की प्राप्ति के साधनों में लगाना ‘दम’ है।
प्रश्न-‘तप’ का यहाँ क्या अर्थ समझना चाहिये?
उत्तर-स्वधर्म पालन के लिये कष्ट सहन करना अर्थात् अहिंसादि महाव्रतों का पालन करना, भोग-सामग्रियों का त्याग करके सादगी से रहना, एकादशी आदि व्रत-उपवास करना और वन में निवास करना ये सब ‘तप’ के अन्तर्गत हैं।
प्रश्न-‘शौच’ किसको कहते हैं?
उत्तर-सोलहवें अध्याय के तीसरे श्लोक में ‘शौच’ की व्याख्या में बाहर की शुद्धि बतलायी गयी है और पहले श्लोक में सत्त्व शुद्धि के नाम से अन्तःकरण की शुद्धि बतलायी गयी है। उन दोनों का नाम यहाँ ‘शौच’ है। तेरहवें अध्याय के सातवें श्लोक में भी इसी शुद्धि का वर्णन है। अभिप्राय यह है कि मन, इन्द्रिय और शरीर को तथा उनके द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को पवित्र रखना, उनमंे किसी प्रकार की अशुद्धि को प्रवेश न होने देना ही ‘शौच’ है।
प्रश्न-‘क्षान्ति’ किसको कहते हैं?
उत्तर-दूसरों के द्वारा किये हुए अपराधों को क्षमा कर देने का नाम क्षान्ति है दसवें अध्याय के चैथे
श्लोक की व्याख्या में क्षमा के नाम से और तेरहवें अध्याय के सातवें
श्लोक की व्याख्या में क्षान्ति के नाम से इस भाव को भलीभाँति समझाया गया है।
प्रश्न-‘आर्जवम्’ क्या है?
उत्तर-मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना अर्थात् मन में किसी प्रकार का दुराग्रह और ऐंठ नहीं रखना जैसा मन का भाव हो, वैसा ही इन्द्रियों का प्रकट करना इसके अतिरिक्त शरीर में भी किसी प्रकार की ऐंठ नहीं रखना-यह सब आर्जव के अन्तर्गत है।
प्रश्न-‘आस्तिक्यम्’ पद का क्या अर्थ है?
उत्तर-आस्तिक्यम् पद आस्तिकता का वाचक है। वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक इन सबकी सत्ता मतें पूर्ण विश्वास रखना वेद-शास्त्रों के और महात्माओं के वचनों को यथार्थ मानना और धर्मपालन में दृढ़ विश्वास रखना ये सब आस्तिकता के लक्षण हैं।
प्रश्न-‘ज्ञान’ किसको कहते हैं?
उत्तर-वेद शास्त्रों के श्रद्धापूर्वक अध्ययन-अध्यापन करने का और उनमें वर्णित उपदेश को भलीभाँति समझने का नाम यहाँ ‘ज्ञान’ है।
प्रश्न-‘विज्ञानम्’ पद किसका वाचक है?
उत्तर-वेद-शास्त्रों में बतलाये हुए और महापुरुषों से सुने हुए साधनों द्वारा परमात्मा के स्वरूप का साक्षात्कार कर लेने का नाम यहाँ ‘विज्ञान’ है।
प्रश्न-ये सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि ब्राह्मण में केवल सत्त्वगुण की प्रधानता होती है, इस कारण उपर्युक्त कर्मों में उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है इसका स्वभाव उपर्युक्त कर्मों के अनुकूल होता है, इस कारण उपर्युक्त कर्मों के करने में उसे किसी प्रकार की कठिनता नहीं होती। इन कर्मों में बहत से सामान्य धर्मों का भी वर्णन हुआ है। इससे यह समझना चाहिये कि क्षत्रिय आदि अन्य वर्णों के स्वाभाविक कर्म तो नहीं हैं परन्तु परमात्मा की प्राप्ति में सबका अधिकार है अतएव उनके लिये वे प्रयत्न
साध्य कर्तव्य-कर्म हैं।
प्रश्न-मनु स्मृति में तो ब्राह्मण के कर्म स्वयं अध्ययन करना और दूसरों को अध्ययन कराना, स्वयं यज्ञ करना और दूसरों को यज्ञ कराना तथा स्वयं दान लेना और दूसरों को दान देना इस प्रकार छः बतलाये गये हैं और यहाँ शम, दम आदि प्रायः सामान्य धर्मों को ही ब्राह्मणों के कर्म बतलाया गया है। इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-यहाँ बतलाये हुए कर्म केवल सात्त्विक हंै इस कारण ब्राह्मण के स्वभाव से इनका विशेष सम्बन्ध है इसलिये ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्मों में इनकी ही गणना की गयी है, अधिक विस्तार नहीं किया गया। इनके सिवा जो मनु स्मृति आदि में अधिक बतलाये गये हैं, उनको भी इनके साथ समझ लेना चाहिये।
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्।। 43।।
प्रश्न-‘शूरवीरता’ किसको कहते हैं?
उत्तर-बड़े-से-बड़े बलवान् शत्रु का न्याययुक्त सामना करने में भय न करना तथा न्याययुक्त शुद्ध करने के लिये सदा ही उत्साहित रहना और युद्ध के समय साहस पूर्वक गम्भीरता से लड़ते रहना ‘शूरवीरता’ है। भीष्म पितामह का जीवन इस ज्वलंत उदाहरण है।
प्रश्न-‘तेज’ किसका भाव है?
उत्तर-जिस शक्ति के प्रभाव से मनुष्य दूसरों का दबाव मानकर किसी भी कर्तव्यपालन से कभी विमुख नहीं होता, और दूसरे लोग न्याय के और उसके प्रतिकूल व्यवहार करने में डरते रहते हैं उस शक्ति का नाम तेज है। इसी को प्रताप और प्रभाव भी कहते हैं।
प्रश्न-‘धैर्य’ किसको कहते हैं?
उत्तर-बड़े से बड़ा संकट उपस्थित हो जाने पर युद्धस्थल में शरीर पर भारी-से-भारी चोट लग जाने पर, अपने पुत्र-पौत्रादि के मर जाने पर सर्वó का नाश हो जाने पर या इसी तरह अन्य किसी प्रकार की भारी-से भारी विपत्ति आ पड़ने पर भी व्याकुल न होना और अपने कर्तव्य पालन से कभी विचलित न होकर न्यायानुकूल कर्तव्य पालन में संलग्न रहना इसी का नाम धैर्य है।
प्रश्न-‘चतुरता’ क्या है?
उत्तर-परस्पर झगड़ा करने वालों का न्याय करने में अपने कर्तव्य का निर्णय और पालन करने में युद्ध करने में तथा मित्र बैरी और मध्यस्थों के साथ यथायोग्य व्यवहार करने आदि में जो कुशलता है उसी का नाम ‘चतुरता’ है।-क्रमशः (हिफी)