विराट स्वरूप देख अर्जुन का हृदय पट खुला
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-05)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-‘दिव्यमाल्मयाम्बरधरम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-जिसने बहुत उत्तम तेजोमय अलौकिक मालाएँ और वस्त्रों
को धारण कर रखा हो, उसे ‘दिव्यमाल्याम्बरधर’ कहते हैं। विश्वरूप भगवान् ने अपने गले में बहुत-सी सुन्दर-सुन्दर तेजोमय अलौकिक मालाएँ धारण कर रक्खी थीं तथा वे अनेक प्रकार के बहुत ही उत्तम तेजोमय अलौकिक वस्त्रों से सुसज्जित थे, इसलिये उनके साथ यह विशेषण दिया गया है।
प्रश्न-‘दिव्यगन्धानुलेपनम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-चन्दन आदि जो लौकिक गन्ध हैं, उनसे विलक्षण अलौकिक गन्ध को ‘दिव्य गन्ध’ कहते हैं। ऐसे दिव्य गन्ध का अनुभव प्राकृत इन्द्रियों से न होकर दिव्य इन्द्रियों द्वारा ही किया जा सकता है जिसके समस्त अंगों में इस प्रकार का अत्यन्त मनोहर दिव्य गन्ध लगा हो, उसको ‘दिव्यगन्धानुलेपन’ कहते हैं।
प्रश्न-‘सर्वाश्वर्यमयम्’ का क्या अर्थ है?
उत्तर-भगवान् के उस विराट् रूप में उपर्युक्त प्रकार से मुख, नेत्र, आभूषण, शस्त्र, माला, वस्त्र और गन्ध आदि सभी आश्चर्यजनक थे इसलिये उन्हें सर्वाश्वर्यमय कहा गया है।
प्रश्न-‘अनन्तम्’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिसका कहीं अन्त, किसी ओर भी ओर-छोर न हो, उसे ‘अनन्त’ कहते हैं। अर्जुन ने भगवान् के जिस विश्वरूप के दर्शन किये, वह इतना लम्बा-चैड़ा था जिसका कहीं भी अन्त न था, इसलिये उसको ‘अनन्त’ कहा है।
प्रश्न-‘विश्वतोमुखम्’ का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिसके मुख सब दिशाओं में हों, उसे विश्वतोमुख कहते हैं। भगवान् के विराट रूप में दिखलायी देने वाले असंख्य मुख समस्त विश्व में सब ओर थे, इसलिये उन्हें ‘विश्वतोमुख’ कहा है।
प्रश्न-‘देवम’ पद का क्या अर्थ है और इसके प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जो प्रकाशमय और पूज्य हों उन्हें देव कहते हैं। यहाँ देवम पद का प्रयोग करके सअज्य ने यह भाव दिखलाया है कि परम तेजोमय भगवान् श्रीकृष्ण को अर्जुन ने उपर्युक्त विशेषणों से युक्त देखा।
दिवि सूर्यसहóस्य भवेद्युगपदुत्थिता।
यदि भाः सदृशी सा स्या˜ासस्तस्य महात्मनः।। 12।।
प्रश्न-भगवान् के प्रकाश के साथ हजार सूर्यों के प्रकाश का सादृश्य बताने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इसके द्वारा विराट् रूप भगवान् के दिव्य प्रकाश को निरुपम बतलाया गया है। अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार हजारों तारे एक साथ उदय होकर भी सूर्य की समानता नहीं कर सकते, उसी प्रकार हजार सूर्य यदि एक साथ आकाश में उदय हो जायँ तो उनका प्रकाश भी उस विराट् स्वरूप भगवान् के प्रकाश की समानता नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि सूर्यों का प्रकाश अनित्य, भौतिक और सीमित है परन्तु विराट् स्वरूप भगवान् का प्रकाश नित्य, दिव्य, अलौकिक और अपरिमित है।
तत्रैकस्थं जगत्कृस्न्नं प्रविभक्तमनेकधा।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा।। 13।।
प्रश्न-यहाँ ‘तदा’ पद किस समय का वाचक है?
उत्तर-जिस समय भगवान् ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि देकर अपनी असाधारण योगशक्ति के सहित विराट् रूप देखने के लिये आज्ञा दी। उसी समय का वाचक, यहाँ ‘तदा’ पद है।
प्रश्न-‘जगत’ पद के साथ ‘अनेकाधा प्रविभक्तम्’ और ‘कृत्स्नमृ विशेषण देकर क्या भाव दिखलाया गया है?
उत्तर-इन विशेषणों का प्रयोग करके यहाँ यह भाव दिखलाया गया है कि देवता-मनुष्य, पशु-पक्षी, अन्तरिक्ष, स्वर्ग और पाताल आदि भोग्य स्थान एवं उनके भोगने योग असंख्य सामग्रियों के भेद से विभक्त इस समस्त ब्रह्माण्ड को अर्जुन ने भगवान् के शरीर के एक देश में देखा, अर्थात् इसके किसी एक अंश को देखा हो या इसके समस्त भेदों को विभिन्न भाव से पृथक्-पृथक् न देखकर मिले-जुले हुए देखा हो ऐसी बात नहीं है। समस्त विस्तार को ज्यांे-का-त्यों पृथक्-पृथक् देखा।
प्रश्न-‘एकस्थम्’ के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-दसवें अध्याय के अन्त में भगवान् ने जो यह बात कही थी कि इस सम्पूर्ण जगत् को मैं एक अंश में धारण किये हुए स्थित हूँ उसी को यहाँ अर्जुन ने प्रत्यक्ष देखा। इसी बात को स्पष्ट करने के लिये ‘एकस्थम्’ ‘एक देश में स्थित’ पद का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-‘तत्र’ पद किसका विशेषण है और इसके प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘तत्र’ पद पूर्व के वर्णन से सम्बन्ध रखता है और यहाँ यह देवों के देव भवगान् के शरीर का विशेषण है। इसका प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि देवताओं के भी देवता, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि देवताओं के भी पूज्य भगवान् श्रीकृष्ण के उपर्युक्त रूप में पाण्डु पुत्र अर्जुन ने समस्त जगत् को एक जगह स्थित देखा।
ततः स विस्मयाविष्टो हृष्टरोमा धनंजयः।
प्रणम्य शिरसा देवं कृताअंजलिरभाषत।। 14।।
प्रश्न-‘ततः‘ पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘ततः‘ पद ‘तत्पश्चात्’ का वाचक है। इसका प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि अर्जुन ने जब भगवान् के उपर्युक्त अद्भुत प्रभावशाली रूप के दर्शन किये, तब उनमें इस प्रकार का परिवर्तन हो गया।
प्रश्न-‘धनंजयः‘ के साथ ‘विस्मयाविष्टः‘ और हृष्ट रोमा’ इन दो विशेषणों के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-बहुत से राजाओं पर विजय प्राप्त करके अर्जुन ने धन संग्रह किया था, इसलिये उनका एक नाम ‘धनंजय’ हो गया था। यहाँ उस ‘धनंजयः’ पद के साथ-साथ ‘विस्मयाविष्ट’ और ‘हष्ट रोमा’ इन दोनों विशेषणों का प्रयोग करके अर्जुन के हर्ष और आश्चर्य की अधिकता दिखलायी गयी है। अभिप्राय यह है कि भगवान् के उस रूप को देखकर अर्जुन को इतना महान् हर्ष और आश्चर्य हुआ जिसके कारण उसी क्षण उनका समस्त शरीर पुलकित हो गया। उन्होंने इससे पूर्व भगवान् का ऐसा ऐश्वर्यपूर्ण स्वरूप कभी नहीं देखा था इसलिये इस अलौकिक रूप को देखते ही उनके हृदय पट पर सहसा भगवान् के अपरिमित प्रभाव का कुछ अंश अंकित हो गया, भगवान् का कुछ प्रभाव उनकी समझ में आया। इससे उनके हर्ष और आश्चर्य की सीमा न रही।-क्रमशः (हिफी)