राष्ट्र प्रेम जगाता वंदेमातरम्

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
बंगाल की धरती से बंकिमचंद्र चटर्जी ने 150 वर्ष पूर्व हमारे देश को वंदेमातरम् नामक एक मंत्र दिया था। इस गीत ने हमारे स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित किया था। वंदेमातरम् एक ऊर्जा है, एक विकसित भारत का स्वप्न है और 140 करोड़ जनता का संकल्प भी। बंकिम चन्द्र ने जिस सुजलाम, सुफलाम, मलयजशीतलाम का स्वप्न देखा था, उसे पूरा करने का। आज भी जब सामूहिक रूप से वंदेमातरम् का गायन होता है तो तन पुलकित हो जाता है और मन में रोमांच पैदा होता है। इस अमर गीत को 7 नवम्बर 2025 को 150 वर्ष पूरे हो गये हैं। हमारे देश की सरकार ने वंदेमातरम् गीत की 150वीं वर्षगांठ को वर्ष भर स्मरणोत्सव के रूप में मनाने का निश्चय किया है। इस स्मरणोत्सव मंे हम जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण और शस्य श्यामला को कीटाणु नाशक रहित बनाने का ठोस प्रयास करें तो सार्थक रहेगा। बंकिमचंद्र चटर्जी ने वंदेमातरम की रचना
7 नवम्बर 1874 को अक्षय नवमी के दिन की थी। यह गीत भी अक्षय बना। आज भी हम जब मिलकर सस्वर गाते हैं-
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्
सुजलाम, सुफलाम, मलयज शीतलाम
शस्य श्यामलाम् मातरम्
वंदे मातरम्
शुभ ज्योत्सलाम्
पुलकित यामिनीम
फुल्लकुसुमित द्रुमदल
शोभिनीम
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्
सुखदाम, वरदाम, मातरम्
वंदे मातरम् वंदेमातरम्… तो हमारे देश का एक दिव्य और समृद्ध रूप सामने आता है। यह गीत 1896 मंे कलकत्ता में हुए कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में पहली बार गाया गया था।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय गीत वंदे मातरम् के 150 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में एक साल तक मनाए जाने वाले स्मरणोत्सव की 7 नवम्बर को शुरुआत की। मोदी ने इस अवसर पर दिल्ली में इंदिरा गांधी इनडोर स्टेडियम में एक स्मारक डाक टिकट और सिक्का भी जारी किया। इस स्मरणोत्सव में उस कालजयी रचना के 150 वर्ष पूरे होने का जश्न मनाया जाएगा जिसने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित किया और राष्ट्रीय गौरव एवं एकता को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाई। वंदे मातरम का सामूहिक गायन एक अवर्णनीय अनुभव है। इतने सारे स्वरों में – एक लय, एक स्वर, एक भाव, एक ही रोमांच और प्रवाह- ऐसी ऊर्जा, ऐसी लहर ने हृदय को झकझोर दिया है। वंदे मातरम के इस सामूहिक गान का अद्भुत अनुभव वाकई अभिव्यक्ति से परे है।
पीएम मोदी ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों को भी दोहराया बंकिमचंद्र की आनंदमठ’ सिर्फ एक उपन्यास नहीं है, यह स्वाधीन भारत का एक स्वप्न है। ‘आनंदमठ’ में ‘वंदे मातरम’ का प्रसंग, उसकी हर पंक्ति, बंकिम बाबू के हर शब्द और हर भाव, सभी के अपने गहरे निहितार्थ थे, और आज भी हैं। इस गीत की रचना गुलामी के कालखंड में हुई, लेकिन इसके शब्द कभी भी गुलामी के साए में कैद नहीं रहे। वे गुलामी की स्मृतियों से सदा आजाद रहे। इसी कारण ‘वंदे मातरम’ हर दौर में, हर काल में प्रासंगिक है। देखते ही देखते ‘वंदे मातरम’ भारत के स्वतंत्रता संग्राम का स्वर बन गया। एक ऐसा स्वर, जो हर क्रांतिकारी की जुबान पर था, एक ऐसा स्वर, जो हर भारतीय की भावनाओं को व्यक्त कर रहा था! वंदे मातरम आजादी के परवानों का तराना होने के साथ ही इस बात की भी प्रेरणा देता है कि हमें इस आजादी की रक्षा कैसे करनी है।
मोदी ने कहा, हमने शक्ति और नैतिकता के बीच के संतुलन को बार-बार समझा, और तभी भारत उस परिष्कृत स्वर्ण के रूप में उभरा- एक ऐसा राष्ट्र जिसने अतीत के हर घाव को सहा, फिर भी अपनी दृढ़ता से अमरता प्राप्त की। वंदे मातरम की पहली पंक्ति हैरू “सुजलं सुफलं मलयजशीतलं शस्यश्यामलां मातरम्।” अर्थात- हमारी मातृभूमि को प्रणाम, जो प्रकृति के दिव्य आशीर्वाद से सुशोभित है।
सच में वंदे मातरम सिर्फ एक गीत या नारा ही नहीं, बल्कि आजादी की एक संपूर्ण संघर्ष गाथा है, जो 1874 से लगातार आज भी करोड़ों युवा दिलों में धड़क रही है। निस्संदेह स्कूल में पढ़ने के दौरान वंदे मातरम तो सबने सुना होगा, लेकिन वंदे मातरम के पीछे की कहानी और इसके रचयिता बंकिम चंद्र के जीवन के उस संघर्ष को बहुत ही कम लोग जानते होंगे।बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म 26 जून, 1838 ईस्वी को पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले के कांठलपाड़ा गांव में हुआ था। प्रसिद्ध लेखक बंकिम चंद्र बंगला भाषा के शीर्षस्थ व ऐतिहासिक उपन्यासकार रहे हैं। बंकिम ने अपना पहला बांग्ला उपन्यास दुर्गेश नंदिनी 1865 में लिखा था, तब वे महज 27 साल के थे। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। बंकिम चंद्र को बंगला साहित्य को जनमानस तक पहुंचाने वाला पहला साहित्यकार भी माना जाता है। करीब 56 वर्ष की आयु में 08 अप्रैल, 1894 को 19वीं सदी के इस क्रांतिकारी उपन्यासकार ने दुनिया को सदैव के लिए अलविदा कह दिया था। बंकिम चंद्र ने 1857 में बीए पास की थी। तब वे पहले भारतीय बने थे, जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से बीए की उपाधि प्राप्त की थी। 1869 में कानून की डिग्री प्राप्त की। कानून की पढ़ाई खत्म होने के तुरंत बाद उन्हें डिप्टी मजिस्ट्रेट पद पर नियुक्ति मिल गई। कुछ साल तक तत्कालीन बंगाल सरकार में सचिव पद पर भी काम किया। बंकिम ने रायबहादुर और सीआईई जैसी उपाधियां भी अर्जित कीं। उन्होंने सरकारी नौकरी से 1891 में सेवानिवृत्त ले ली थी। बंकिम चंद्र ने बंगला और हिंदी दोनों भाषाओं में अपनी लेखनी से एक अलग पहचान कायम की। 1874 में उनका लिखा गीत वंदे मातरम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान में क्रांतिकारियों का प्रेरणास्रोत और मुख्य उद्घोष बन गया था। बंकिम चंद्र ने 1875 में देशभक्ति का भाव जगाने वाले गीत वंदे मातरम की रचना की थी। इस रचना के पीछे एक रोचक कहानी है। जानकारी के अनुसार, अंग्रेजी हुक्मरानों ने इंग्लैंड की महारानी के सम्मान वाले गीत- गॉड! सेव द क्वीन को हर कार्यक्रम में गाना अनिवार्य कर दिया था। इससे बंकिम चंद्र समेत कई देशवासी आहत हुए थे। इससे जवाब में उन्होंने 1874 में वंदे मातरम शीर्षक से एक गीत की रचना की। इस गीत के मुख्य भाव में भारत भूमि को माता कहकर संबोधित किया गया था। यह गीत बाद में उनके 1882 में आए उपन्यास आनंदमठ में भी शामिल किया गया था। ऐतिहासिक और सामाजिक तानेबाने से बुने हुए इस उपन्यास ने देश में राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने में बहुत योगदान दिया। 1896 में कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक अधिवेशन हुआ था। उस अधिवेशन में पहली बार वंदे मातरम गीत गाया गया था। थोड़े ही समय में राष्ट्र प्रेम का द्योतक यह गीत अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ भारतीय क्रांतिकारियों का पसंदीदा गीत और मुख्य उद्घोष बन गया। (हिफी)



