मनुष्यों के स्वभाव अनुरूप वर्ण विभाजन
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-18)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
प्रश्न-वह सुख तामस है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि निद्रा, प्रमाद और आलस्य-ये तीनों ही तमोगुण के कार्य हैं अतएव इनसे उत्पन्न होने वाला सुख तामस सुख है और इन निद्रा, आलस्य और प्रमाद आदि में सुख बुद्धि करवाकर ही यह तमोगुण मनुष्य को बाँधता है। इसलिये कल्याण चाहने वाले मनुष्य को इस क्षणिक, मोह कारक और प्रतीति मात्र के तामस सुख में नहीं फँसना चाहिये।
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः।
सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः।। 40।।
प्रश्न-यहाँ पृथिव्याम् दिवि और देवुषु पद अलग-अलग किन-किन के वाचक हैं तथा पुनः पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-पृथिव्याम् पद पृथ्वीलोक का, उसके अंदर के समस्त पातालादि लोकों का और उन लोकों में स्थित समस्त स्थावर-जंगम प्राणियों तथा पदार्थों का वाचक है। ‘दिवि’ पद पृथ्वी से ऊपर अन्तरिक्ष लोक का तथा उसमें स्थित समस्त प्राणियों और पदार्थों का वाचक है। एवं ‘देवेषु’ पद समस्त देवताओं का और उनके भिन्न-भिन्न समस्त लोकों का तथा उनसे सम्बन्ध रखने वाले समस्त पदार्थों का वाचक है। इनके सिवा और भी समस्त सृष्टि में जो कुछ भी वस्तु या जो कोई प्राणी हैं, उन सबका ग्रहण करने के लिये पुनः पद का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-‘सत्त्वम्’ पद किसका वाचक है और ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-‘सत्त्वम्’ पद यहाँ वस्तु मात्र का यानी सब प्रकार के प्राणियों का और समस्त पदार्थों का वाचक है तथा ऐसा कोई भी सत्त्व नहीं है जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो, इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि सम्पूर्ण पदार्थ प्रकृति जनित सत्त्व, रज और तम-इन तीनों गुणों के कार्य हैं तथा प्रकृति जनित गुणों के सम्बन्ध से ही प्राणियों का नाना योनियों में जन्म होता है। इसलिये पृथ्वी लोक, अन्तरिक्ष लोक तथा देवलोक के एवं अन्य सब लोकों के प्राणियों एवं पदार्थों में कोई भी पदार्थ या प्राणी ऐसा नहीं है जो इन तीनों गुणों से रहित वा अतीत हो और समस्त प्राणियों का उन गुणों से और गुणों के कार्य रूप पदार्थों से सम्बन्ध है, इससे ये सब भी तीनों गुणों से युक्त ही हैं।
प्रश्न-सृष्टि के अंदर गुणातीत पुरुष भी तो हैं, फिर वह बात कैसे कही कि कोई भी प्राणी गुणों से रहित नहीं है?
उत्तर-यद्यपि लोकदृष्टि से गुणातीत पुरुष सृष्टि के अंदर हैं, परंतु वास्तव में उनकी दृष्टि में न तो सृष्टि है और न सृष्टि के या शरीर के अंदर उनकी स्थिति ही है वे तो परमात्मा में ही अभिन्न भाव से नित्य स्थिति हैं अतः परमात्मा स्वरूप ही हैं। अतएव उनकी गणना साधारण प्राणियों में नहीं की जा सकती। उनके मन, बुद्धि और इन्द्रिय आदि के संघात रूप शरीर को, जोकि सबके प्रत्यक्ष हैं लेकर यदि उन्हें प्राणी कहा जाय तो आपत्ति नहीं है क्योंकि वह संघात तो गुणों का ही कार्य है, अतएव उसे गुणों से अतीत कैसे कहा जा सकता है। इसलिये यह कहने में कुछ भी आपत्ति नहीं है कि सृष्टि के अंदर कोई भी प्राणी या पदार्थ तीनों गुणों से रहित नहीं है।
ब्राह्मण क्षत्रियविशां शूद्राणां च परंतप।
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः।। 41।।
प्रश्न-‘ब्राह्मणक्षत्रियविशाम्’ इस पद में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-इन तीन शब्दों का समास करने का तथा ‘शूद्राणाम्’ पद से शूद्रों को अलग करके कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-ये तीनों ही द्विज हैं। तीनों का ही यज्ञोपवीत धारण पूर्वक वेदाध्ययन में और यज्ञादि वैदिक कर्मों में अधिकार है, इसी हेतु से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों शब्दों का समास किया गया है। शूद्र द्विज नहीं हैं, अतएव उनका यज्ञोपवीत धारण में तथा वेदाध्ययन में और यज्ञादि वैदिक कर्मों में अधिकार नहीं है-यह भाव दिखलाने के लिये ‘शूद्राणाम्’ पद से उनको अलग कहा गया है।
प्रश्न-‘गुणैः’ पद के साथ स्वभाव प्रभवैः विशेषण देने का क्या भाव है और उन गुणों के द्वारा उपर्युक्त चारों वर्णों के कर्मों का विभाग किया गया है, इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-प्राणियों के जन्म-जन्मान्तरों में किये हुए कर्मों के जो संस्कार हैं, उनका नाम स्वभाव है, उस स्वभाव के अनुरूप ही प्राणियों के अन्तःकरण में सत्त्व, रज और तम इन तीनों गुणों की वृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं, यह भाव दिखलाने के लिये ‘गुणैः’ पद के साथ ‘स्वभाव प्रभवैः’ विशेषण दिया गया है तथा गुणों के द्वारा चारों वर्णों के कर्मों का विभाग किया गया है। इस कथन का यह भाव है कि उन गुणवृत्तियों के अनुसार ही ब्राह्मण आदि वर्णों में मनुष्य उत्पन्न होते हैं, इस कारण उन गुणों की अपेक्षा से ही शाó में चारों वर्णों के कर्मों का विभाग किया गया है जिसक स्वभाव में केवल सत्त्वगुण अधिक होता है, वह ब्राह्मण होता है इस कारण उसके स्वाभाविक कर्म शम-दमादि बतलाये गये हैं जिसके स्वभाव में सत्त्वमिश्रित रजोगुण अधिक होता है वह वैश्य होता है इसलिये उसके स्वाभाविक कर्म कृषि, गोरक्षा आदि बतलाये गये हैं और जिसके स्वभाव में रजो मिश्रित तमोगुण प्रधान होता है, वह शूद्र होता है इस कारण उसका स्वाभाविक कर्म तीनों वर्णों की सेवा करना बतलाया गया है। यही बात चैथे अध्याय के तेरहवें श्लोक की व्याख्या में विस्तारपूर्वक समझायी गयी है।
शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम्।। 42।।
प्रश्न-‘शम्’ किसको कहते हैं?
उत्तर-अन्तःकरण को अपने वश में करके उसे विक्षेप रहित शान्त बना लेना तथा सांसारिक विषयों के चिन्तन का त्याग कर देना ‘शम’्’ है।
प्रश्न-‘दम’ किसको कहते हैं?
उत्तर-समस्त इन्द्रियों को वश में कर लेना तथा वश में की हुई इन्द्रियों को बाह्य विषयों से हटाकर परमात्मा की प्राप्ति के साधनों में लगाना ‘दम’ है।-क्रमशः (हिफी)