अध्यात्मधर्म-अध्यात्म

पानी का ही रूप हैं तरंगें

अष्टावक्र गीता-13

 

आत्मबोध होने पर राजा जनक को अनुभव होने लगा कि पानी की तरंगें, फेना और बुदबुदा अलग-अलग भले ही दिखता है लेकिन है एक ही। इसी प्रकार गन्ने का रस और शक्कर में भी कूल रूप से कोई अन्तर नहीं है राजा जनक अपने आत्मबोध की स्थिति मंे आत्मा एवं विश्व की एकता का अनुभव करने लगे। उन्हंे वस्त्र और धागे में समरूपता दिखाई पड़ने लगी। राजा जनक कहते हैं-

अष्टावक्र गीता-13

सशरीरमहो विश्वं परित्यज्य मयाऽधुना।
कुतश्चित्कौशलादेव परमात्मा विलोक्यते।। 3।।

अर्थात: आश्चर्य है कि शरीर सहित विश्व को त्यागकर किसी कुशला से ही (उपदेश से ही) अब मैं परमात्मा को देखता हूँ।
व्याख्या: राजा जनक को आत्म ज्ञान हो गया। आत्मा का स्वरूप स्पष्ट दिखाई दिया व यह भी ज्ञात हो गया कि आत्मा और परमात्मा भिन्न नहीं है। इसलिए वे कहते हैं कि मैं गुरु की कुशलता से ही परमात्मा को देखता हूँ एवं इस ज्ञान के कारण मुझे शरीर सहित विश्व का भी त्याग हो गया है। आसक्ति वश मैं शरीर को अपना समझता था तथा संसार को मैं जिस दृष्टि से देखता था वह सब छूट गया। जनक ने त्याग किया नहीं, घट गया। त्याग किया नहीं जाता है। जहाँ करने की बात है वहाँ अहंकार है, कत्र्तापन मौजूद है। त्याग बोध का प्रतिफल है। सत्य एवं शाश्वत का बोध होने पर असत्य एवं अनित्य छूट जाता है। छोड़ने का प्रयास नहीं करना पड़ता। कुछ धर्म कहते हैं-यहाँ त्याग करो वहाँ स्वर्ग में मिलेगा। कुछ कहते हैं कि सब कुछ त्याग दो, नग्न हो जाओ तभी मोक्ष मिलेगा। किन्तु त्याग मोक्ष पाने की कोई शर्त नहीं है। ये सौदेबाज मोक्ष को भी सौदे की तराजू पर तोलते हैं। त्याग का अर्थ किसी वस्तु को छोड़ना नहीं है बल्कि ऐसी दृष्टि आ जाये कि जिससे ज्ञात हो सके कि यह सभी ईश्वर का है, मेरा कुछ नहीं है। जो तुम्हारा है ही नहीं उसे तुम छोड़ कैसे सकते हो। ईशावास्य उपनिषद् कहता है, ‘जो कुछ सृष्टि में है वह सभी ईश्वर का है। इसलिये तुम उसका त्यागपूर्वक भोग करो।’ जैसे स्वप्न में तुम सम्राट हो गये व स्वप्न टूटने पर यह नहीं कहते हो मैंने साम्राज्य का त्यागकर दिया वैसे ही आत्म स्वरूप का बोध हो जाने पर संसार, शरीर आदि के प्रति जो भी आसक्ति है सब छूट जाती है। त्याग करना नहीं पड़ता। इससे पूर्व किये गये त्याग का महत्व नहीं है। जनक आगे कहते हैं-यह सब ज्ञान बड़ी कुशलता से हुआ। कोई हिमालय को भाग रहा है, योग, उपासना, भजन, कीर्तन, जप, तप, यज्ञ सब कर रहा है किन्तु परमात्मा मिलता नहीं। मुझे न त्याग करना पड़ा, न कहीं आना जाना पड़ा। यहीं बैठे-बैठे घट गया। यह जीवन खेल व नाटकवत् हो गया, जो गम्भीरता थी सब समाप्त हो गई। यह सब बड़ी कुशलता से, बड़ी चतुराई से हो गया।

सूत्र: 4
यथा न तोयतो भिन्नास्तरंगाः फेनबुद्बुदाः।
आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतम्।। 4।।
अर्थात: जैसे जल से तरंग, फेन और बुदबुदा भिन्न नहीं है, वैसे ही विश्व आत्मा से भिन्न नहीं है किन्तु आत्मा से ही निकला हुआ है।
व्याख्या: राजा जनक को स्वयं की आत्मा का तो बोध हो गया किन्तु साथ ही यह भी बोध हो गया कि ये समस्त आत्माएँ भी भिन्न-भिन्न नहीं हैं एवं यह समस्त विश्व की आत्मा से भिन्न नहीं है बल्कि आत्मा ही से निकला हुआ है, उसी का फैलाव मात्र है, उसी की अभिव्यक्ति है, उसी का रूप है। वे इसे उदाहरण देकर समझाते हैं कि जिस प्रकार जल से तरंग, फेन और बुदबुदा भिन्न नहीं है उसी प्रकार आत्मा से विश्व भिन्न नहीं है। भिन्न मानने का अर्थ ही है उन्हें अभी आत्मा का ज्ञान हुआ नहीं, वे अभी मन से अभी मन से पार गये नहीं। मन के स्तर तक ही भिन्नता का अनुभव होता है, आगे सब भिन्नताएँ समज्ञपत होकर एकत्व का बोध हो जाता है। ध्यानी जब मानसिक स्तर की उच्चतम स्थिति में होता है तभी उसे आत्मा की थोड़ी सी झलक मिल जाती है किन्तु पूर्ण आत्म ज्ञान की स्थिति में नहीं पहुँचने से उसे भिन्न-भिन्न आत्माएँ ही प्रतीत होती हैं। यह ज्ञान की अपूर्ण स्थिति है कि ज्ञान अभी हुआ नहीं है। ज्ञानी को यदि सब में एक ही परमात्मा न दिखाई दे तो समझ लो अभी ज्ञान हुआ ही नहीं है। अभी अज्ञान शेष है। अब तो वैज्ञानिक भी यही कहते हैं कि यह सारा अस्तित्व एक ही ऊर्जा का रूपान्तरण है। ऐसी स्थिति में आत्माओं को भिन्न-भिन्न मानना एवं कहना कि आत्माएँ अनन्त हैं, आत्मा और सृष्टि भिन्न है आदि तथ्य अज्ञान जनित ही हैं।

सूत्र: 5
तन्तुमात्रो भवेदेव पटो यद्वद्विचारतः।
आत्मतन्मात्रमेवेदं तद्वद्विश्वं विचारितम्।। 5।।
अर्थात: जैसे विचार करने से वस्त्र तन्तु मात्र ही होता है वैसे ही विचार करने से यह संसार आत्मसत्ता मात्र ही है।
व्याख्या: राजा जनक अपने आत्मबोध की स्थिति में आत्मा एवं विश्व की एकता का अनुभव कर रहे हैं। इसे वे एक और उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं कि वस्त्र दिखाई देता है किन्तु वह तन्तुओं से बना है। मूल तो तन्तु ही है जिससे वस्त्र बना। बिना तन्तु के वस्त्र नहीं हो सकता, इसी प्रकार आत्मारूपी तन्तु से यह विश्व बना है फिर यह विश्व इससे भिन्न कैसे हो सकता है। यदि आत्मा है ही नहीं तो विश्व किस प्रकार बन सकता है। वस्तुतः आत्मा ही वह मूल तत्व है जो विश्व का आधार है फिर दोनों को भिन्न कैसे कहा जा सकता है, वैज्ञानिक इस मूल तत्व को विद्युत कहते हैं किन्तु विद्युत जड़-शक्ति है एवं आत्मा चैतन्य है। यह विद्युत भी चैतन्य आत्मा की ही शक्ति है। मूल तत्व विद्युत नहीं चैतन्य आत्मा है एवं उसी का सारा फैलाव है। जड़-विद्युत से जड़ पदार्थों का निर्माण तो सम्भव है किन्तु इससे चैतन्य उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं है।

सूत्र: 6
यथैवक्षुरसे क्लृप्ता तेन व्याप्तैव शर्करा।
तथा विश्वं मयि क्लृप्तं मया व्याप्तं निरन्तरम् ।। 6।।
अर्थात: जैसे ईख के रस बनी हुई शर्करा ईख के रस में व्याप्त है, वैसे ही मुझसे बना हुआ संसार मुझमें भी व्याप्त है।
व्याख्या: राजा जनक एक और उदाहरण देकर विश्व एवं आत्मा की अभिन्नता को स्पष्ट करते हैं कि-ईख के रस से चीनी बनती है तो वह उस रस में व्याप्त अवश्य है अन्यथा बनती कैसे? इसी प्रकार यह समस्त विश्व उस आत्म तत्व (ब्रह्म) में व्याप्त है वरना इसकी उत्पत्ति कैसे होती? इसी प्रकार चीनी में जो मिठास है वह उस रस का ही मिठास है अनेकों प्रकार की मिठाइयों में जो मिठास है वह उस रस में व्याप्त मिठाई ही है। जिसे इस रस का ज्ञान नहीं वे चीनी, मिश्री, गुड़ मिठाई आदि को भिन्न-भिन्न मानेंगे, उनमें अभिन्नता नहीं देख पायेंगे, उन्हें एकत्व का बोध नहीं होगा। वे कहेंगे चीनी, गुड़, मिश्री आदि के रूप, रंग, गुण भिन्न-भिन्न हैं, फिर वे एक कैसे हो सकते हैं? किन्तु ज्ञानी जो उस रस को जानते हैं वे ही कहते हैं कि यह सम्पूर्ण मिठास उस रस में व्याप्त है एवं इस मिठास में वह रस व्याप्त है। ऐसे ही आत्मा से बना हुआ यह संसार आत्मा से भिन्न नहीं है। आत्मा में संसार व्याप्त है एवं संसार में आत्मा व्याप्त है। राजा जनक को इस परम-तत्व आत्मा की सत्यानुभूति हुई जिससे इन्हंे इस अभिन्नता का अनुभव हुआ।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)

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