
जिस तरह मर्यादा पुुरुषोत्तम श्रीराम के चरित्र को लेकर कहा गया है कि ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता…’ उसी प्रकार भगवान कृष्ण के मुखार बिन्दु से प्रस्फुटित हुई श्रीमद् भगवत गीता का सार भी अतल गहराइयों वाला है। विद्वानों ने अपने-अपने तरह से गीता के रहस्य को समझने और समझाने का प्रयास किया है। गीता का प्रारंभ ही जिस श्लोक से होता है उसकी गहराई को समझना आसान नहीं है। कौरवों और पांडवों के मध्य जो युद्ध लड़ा गया वह भी धर्म क्षेत्रे अर्थात धर्म भूमि और कुरु क्षेत्रे अर्थात तीर्थ भूमि पर लड़ा गया जिससे युद्ध में वीर गति प्राप्त होने वालों का कल्याण हो गया। इसी तरह की व्याख्या स्वामी रामसुख दास ने गीता प्रबोधनी में की है जिसे हम हिफी के पाठकों के लिए क्रमशः प्रकाशित करने का प्रयास करेंगे। हम स्वामी जी के आभारी हैं जिन्होंने गीता के श्लोकों की सरल शब्दों में व्याख्या की है। -प्रधान सम्पादक
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।। 5।।
सांख्य योगियों के द्वारा जो तत्त्व प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों के द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है। अतः जो मनुष्य सांख्य योग और कर्म योग फल रूप में एक देखता है वही ठीक देखता है।
व्याख्या-फल एक होने से ज्ञान योग और कर्मयोग दोनों साधन समकक्ष हैं।
सन्नयास्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः।
योग युक्तों मुनिब्र्रह्म नचिरणाधिगच्छति।। 6।।
परन्तु हे महाबाहो! कर्मयोग के बिना सांख्य योग सिद्ध होना कठिन है। मननशील कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
व्याख्या-कर्म योग में साधक सभी कर्म निष्काम भाव से केवल दूसरों के हित के लिए ही करता है, इसलिये उसका राग सुगमतापूर्वक मिट जाता है। कर्मयोग के द्वारा अपना राग मिटाकर सांख्य योग का साधन करने से शीघ्र सिद्धि होती है। भगवान् ने भी इसी कारण कर्मयोगी ‘सर्वभूतहिते रताः’ भाव को ज्ञान योग के अन्तर्गत लिया है अर्थात् इस भाव को ज्ञान योगी के लिये भी आवश्यक बताया है (गीता 5/25, 12/4)। यदि ज्ञान योगी में यह भाव नहीं होगा तो उसमें ज्ञान का अभिमान अधिक होगा।
योग युक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।। 7।।
जिसकी इन्द्रियाँ अपने वश में हैं, जिसका अन्तःकरण निर्मल है, जिसका शरीर अपने वश में है और सम्पूर्ण प्राणियों की आत्मा ही जिसकी आत्मा है, ऐसा कर्मयोगी कर्म करते हुए भी लिप्त नहीं होता।
व्याख्या-शरीर, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाने पर कर्मयोगी को प्राणि मात्र के साथ अपनी एकता का अनुभव हो जाता है। एक देशीयता मिटने पर जब कर्मयोगी में कर्तापन नहीं रहता, तब उसके द्वारा होने वाले सब कर्म अकर्म हो जाते हैं।
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्यते तत्त्ववित्।
पश्यंश्रृण्वन्स्पृशंजिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्।। 8।।
प्रलपन्विसृजन्गृहह्नन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।। 9।।
तत्त्व को जानने वाला सांख्य योगी देखता हुआ, सुनता हुआ, छूता हुआ, सूँघता हुआ, खाता हुआ, चलता हुआ, ग्रहण करता हुआ, बोलता हुआ, मल-मूत्र का त्याग करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ तथा आँख खोलता हुआ और मूँदता हुआ भी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में बरत रही हैं। ऐसा समझकर मैं स्वयं कुछ भी नहीं करता हूँ-ऐसा माने।
व्याख्या-अपरा प्रकृति के अहम् के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ने के कारण अविवेकी मनुष्य अपने को कर्ता मान लेता है-‘अहंकार विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता 3/27)। परन्तु जब वह विवेकपूर्ण अहम् से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है, तब उसे मैं कर्ता नहीं हूँ। इस प्रकार अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव हो जाता है।
हमारा वास्तविक स्वरूप चिन्मय सत्ता मात्र है। उस स्वरूप में कर्तृत्व-भोक्तृत्व न कभी था, न है, न होगा और न हो ही सकता है। अतः शरीर के द्वारा शास्त्र विहित क्रियाएँ होते हुए भी साधक की दृष्टि अपने स्वरूप की ओर रहनी चाहिये, जो कर्तृत्व-भोक्तृत्व से रहित है। ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता 13/31)।
ब्रह्मण्याध्याय कर्माणि संग त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पùपत्रमिवाम्भसा।। 10।।
जो भक्तियोगी सम्पूर्ण कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति का त्याग करके कर्म करता है, वह जल से कमल के पत्ते की तरह पाप से लिप्त नहीं होता।
व्याख्या-कर्म योगी सम्पूर्ण कर्मों को संसार के अर्पण करता है, ज्ञान योगी प्रकृति के अर्पण करता है और भक्ति योगी भगवान् के अर्पण करता है। तीनों का परिणाम एक ही होता है। तीनों योगों में अपने लिये कुछ न करना आवश्यक है।
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति संग त्यक्त्वात्मशुद्धये।। 11।।
कर्मयोगी आसक्ति का त्याग करके केवल (ममता रहित) इन्द्रियाँ, शरीर, मन और बुद्धि के द्वारा अन्तःकरण की शुद्धि के लिए ही कर्म करते हैं।
व्याख्या-ममता का सर्वथा नाश होना ही अन्तःकरण की शुद्धि है। कर्मयोगी साधक शरीर-इन्द्रियाँ मन, बुद्धि को अपना तथा अपने लिए न मानते हुए, प्रत्युत संसार का तथा संसार के लिए मानते हुए ही कर्म करते हैं। इस प्रकार कर्म करते-करते जब ममता का सर्वथा अभाव हो जाता है, तब अन्तःकरण पवित्र हो जाता है। पवित्र होने पर अन्तःकरण से सम्बन्ध-विच्छेद होकर स्वरूप में स्थिति हो जाती है।
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते।। 12।।
कर्मयोगी कर्मफल का त्याग करके नैष्ठि की शान्ति को प्राप्त होता है। परन्तु सकाम मनुष्य कामना के कारण फल में आसक्त होकर बँध जाता है।
व्याख्या-कर्म बाँधने वाले नहीं होते, प्रत्युत कर्मफल की इच्छा बाँधने वाली होती है। कर्म न तो बाँधते हैं, न मुक्त ही करते हैं। कर्मों में सकाम भाव ही बाँधने वाला और निष्काम भाव मुक्त करने वाला होता है।
सर्वकर्माणि मनसा सन्नयस्यास्ते सुखं वशी।
नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन्।। 13।।
जिसकी इन्द्रियाँ और मन वश में हैं, ऐसा देहधारी पुरुष नौ द्वारों वाले (शरीर रूपी) पुर में सम्पूर्ण कर्मों का विवेकपूर्ण मन से त्याग करके निःसन्देह न करता हुआ और न करवाता हुआ सुख पूर्वक अपने स्वरूप में स्थित रहता है।
व्याख्या-प्रकृति के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ने से जीव प्रकृति जन्य गुणों के अधीन हो जाता है-‘अवशः’ (गीता 3/5) और प्रकृति में होने वाली क्रियाओं का कर्ता बन जाता है। परन्तु जब जीव प्रकृति के साथ माने हुए सम्बन्ध को मिटा देता है, तब वह स्वाधीन हो जाता है-‘वशी’। स्वाधीन होने पर वह किसी भी क्रिया का कर्ता नहीं बनता। प्रकृति में क्रियता और स्वरूप न तो कर्म करता है और न कर्म करने की प्रेरणा ही करता है। (-क्रमशः साभार) (हिफी)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)