लेखक की कलम

नारी नहीं, हमारी सोच है डायन

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)
बेशक एक भारतीय शुभांशु शुक्ला धरती की सीमाओं को पार कर अंतरिक्ष में भारतीय तिरंगा लहरा कर धरती पर वापस आ गये हैं लेकिन विज्ञान की इतनी उपलब्धि भी उस समय शून्य बन जाती है जब बिहार के एक गांव में एक परिवार के पांच सदस्यों को अंधविश्वास और पाखंड के चलते डायन करार देकर जिंदा जला दिया जाता है। देश के कई हिस्सों में समय-समय पर खासकर आदिवासियों और गरीबी से ग्रस्त समुदाय के लोगों को डायन बता कर मार देने का सिलसिला सैकड़ों साल से चल रहा है। आजादी के बाद भी हर साल दर्जनों महिलाओं, पुरुषों को डायन करार देकर मौत के घाट उतार दिया जाता है।
आपको बता दें बिहार के पूर्णिया जिले के टेटमा गांव में एक ही परिवार के पांच लोगों को डायन बताकर जिंदा जला दिया जाना आधुनिक भारत के माथे पर एक कलंक है। यह घटना किसी एक परिवार की त्रासदी नहीं बल्कि हमारे समाज की उस सामूहिक असफलता की गवाही है जिसमें विज्ञान की उपलब्धियों की चमक के बीच अंधविश्वास का अंधेरा आज भी कई जीवन निगल रहा है। आज भारत विश्व गुरु बनने की बात कर रहा है। चंद्रयान और गगनयान जैसे अभियानों पर करोड़ों का निवेश कर रहा है। एक ओर आर्टिफिशियल इंटेलिजेस और क्वांटम कंप्यूटिंग की दिशा में अग्रसर है लेकिन इन वैज्ञानिक उपलब्धियों के कोई मायने नहीं रह जाते है, जब हमारे गांवों में ही दो सौ से अधिक लोगों की भीड़ एक बीमार बच्चे के लिए किसी परिवार को जिम्मेदार ठहरा कर जादू-टोने का इल्जाम लगा कर जिंदा जला कर मार देती है। यह घटना साफ दर्शाती है कि हमारे देश में आज भी कानून व्यवस्था की स्थिति कितनी लचर और बेकार है कि लोग बेखौफ होकर लाचार गरीब अशिक्षित लोगों खासकर महिलाओं के खून से हाथ रंग रहे हैं उन्हें पुलिस और कानून किसी का भय नहीं है। भारत में विज्ञान के विस्तार और वैज्ञानिक चेतना के विस्तार के बीच एक गहरी खाई है। हम तरक्की कर रहे है, लेकिन समाज के भीतर वैज्ञानिक सोच नहीं बना पा रहे हैं। डायन प्रथा जैसी बर्बर कुप्रथा आज भी जीवित है। दरअसल हमने शिक्षा को केवल परीक्षा को पास करने का माध्यम बना दिया है। सोचने, तर्क करने और जिज्ञासा से सच्चाई तलाशने का अभ्यास नहीं कर रहे हैं। यह घटना सवाल उठाती है कि आखिर हमारी स्कूल व्यवस्था हमारे सामाजिक जागरूकता अभियान और हमारे जनप्रतिनिधि इस अंधविश्वास से लड़ने में क्यों विफल हो रहे हैं?
एक रिपोर्ट के अनुसार आज भी बिहार के हजारों गांवों में विज्ञान सिर्फ किताबों तक सीमित है। ग्रामीण स्कूलों में विज्ञान पढ़ाया तो जाता है, लेकिन विज्ञान की दृष्टि यानी आलोचनात्मक और तर्कपूर्ण सोच का विकास नहीं हो पाता। क्या बच्चों को यह समझाया जा रहा है कि बीमारी किसी डायन के कारण नहीं, बल्कि वैक्टीरिया वायरस, कुपोषण और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण होती है? क्या हम गांवों में यह बात पहुंचा पा रहे हैं कि हर प्राकृतिक घटना का वैज्ञानिक कारण होता है और इसका हल किसी ओझा या तांत्रिक के पास नहीं, डॉक्टर और वैज्ञानिकों के पास होता है। इस हत्याकांड की भयावहता और खुली बर्बरता इस बात की गवाही देती है कि लोगों के मन से पुलिस और कानून का भय खत्म हो चुका है। दो सौ से अधिक लोग एक परिवार को जिंदा जला रहे है और कहीं कोई प्रशासन, कोई हस्तक्षेप, कोई सुरक्षा नहीं है। यह राज्य विहीनता की स्थित्ति है। सरकार की भूमिका केवल एफआईआर और मुआवजे तक सीमित रह गई है। हमें स्वीकार करना ही होगा कि यह लड़ाई केवल अपराध से नहीं, बल्कि अज्ञान, भय और पीढ़ियों से चले आ रहे अंधविश्वास और जादू-टोना से है। इसका जवाब केवल कानूनी कार्रवाई नहीं हो सकती, इसके लिए जमीनी स्तर पर एक वैचारिक वैज्ञानिक चेतना अभियान चलाने की जरूरत है। सुझाव दिया जा सकता है कि इसके लिए हर पंचायत में विज्ञान क्लब बनाए जाएं, जिसमें बच्चों, महिलाएं और बुजुर्ग भाग लें और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपने जीवन से जोड़ सकें। स्कूलों की पाठ्यपुस्तकों में अंधविश्वास विरोधी अध्ययन शामिल किया जाए और डायन जैसी कुप्रथाओं के विरुद्ध खुलकर चर्चा हो। जन स्वास्थ्य सेवाओं और शिक्षा का गहरा आपस में समन्वय हो ताकि बीमारी की दशा में लोग ओझा, तांत्रिक के पास नहीं डॉक्टर के पास जाएं। पूर्णिया की यह घटना केवल दुखद नहीं, एक सामूहिक आत्मग्लानि का क्षण है। यह हमें याद दिलाती है कि अगर हम आधुनिकता और परंपरा के बीच सामंजस्य नहीं बना पाए तो विज्ञान के मंदिरों से निकलकर भी हम अंधविश्वास के दलदल में फंसे रहेंगे।
भारत के कई राज्यों में महिलाओं को डायन बताकर उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। महिलाओं को जिंदा जलाने, मल खिलाने, बाल काटने और कपड़े उतारकर घुमाने जैसी भयावह घटनाएं रिपोर्ट होती रहती हैं।
झारखंड, असम, राजस्थान, ओडिशा, छत्तीसगढ़, बिहार सहित कई राज्यों में ये कुप्रथा प्रचलित है। बिहार देश का पहला राज्य है जहां 1999 में डायन कुप्रथा को लेकर कानून बना था।
साल 2023 में निरंतर नाम की स्वयंसेवी संस्था ने बिहार के 10 जिलों में 118 गांव की 145 पीड़ित भोक्ता महिलाओं के बीच सर्वेक्षण किया था। इनमें से 97 फीसदी पीड़िता महिलाएं पिछड़ी, अति पिछड़ी और दलित समुदाय की थीं।
बिहार में महिलाओं के बीच काम करने वाले संगठन बिहार महिला समाज ने इस मामले के सामने आने के बाद अपना एक जांच दल पूर्णिया भेजा था और इस मामले के खिलाफ पूरे बिहार में आंदोलन करने को कहा था। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में 85 लोगों की हत्याएं डायन कुप्रथा की वजह से हुई हैं।
वहीं, झारखंड में डायन कुप्रथा के खिलाफ काम कर रही संस्था एसोसिएशन फॉर सोशल एंड ह्यूमन अवेयरनेस के संस्थापक अजय कुमार जायसवाल के मुताबिक, बीते 26
साल में झारखंड में 1800 महिलाएं मार दी गईं जिनमें 90 फीसदी आदिवासी हैं। डायन कुप्रथा के ज्यादातर मामलों में एक-दो व्यक्ति को पुलिस पकड़ती है और एक बड़ा समूह बचकर निकल जाता है। इन मामलों में कानून तभी प्रभावी होगा, जब सभी उत्तरदायी लोगों को सजा मिलेगी। (हिफी)

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