लेखक की कलम

सियासत की भंवर में महिलाएं

अभी पिछले दिनों बिहार में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हो गये। इसको लेकर तमाम चर्चाओं के बीच यह बहस भी हुई कि महिलाओं ने बम्पर मतदान किया है। इसका तात्पर्य यह है कि महिलाओं के मत से चुनावों के नतीजे तय होते हैं। इस तथ्य के सामने आते ही बिहार विधानसभा चुनाव में महिलाओं से किये गये वादे याद आते हैं। सत्तारूढ़ से लेकर विपक्ष तक सभी ने महिलाओं से तरह-तरह के वादे कर रखे हैं। नकद सहायता से लेकर रोजगार देने तक का वादा किया गया है। इसी बीच 10 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका पर सुनवाई हुई जिसमें महिला आरक्षण कानून को सीधे लागू करने की मांग की गयी है। ध्यान रहे कि संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 फीसद आरक्षण का कानून बना दिया गया लेकिन वर्तमान कानून के अनुसार यह आरक्षण सीमा निर्धारण प्रक्रिया के बाद ही लागू हो सकेगा। यह प्रक्रिया अब तक सरकार ने शुरू नहीं की है। सुप्रीम कोर्ट ने इस संदर्भ में सरकार को नोटिस जारी
किया है। महिला आरक्षण के लिए डिलिमिटेशन अर्थात सीमाकरण जनगणना के बाद ही होगा जो अब तक शुरू नहीं हुई है। लगता है महिला आरक्षण कानून सियासत की भंवर में फंस गया है।
सुप्रीम कोर्ट ने उस याचिका पर सोमवार को सुनवाई की जिसमें महिला आरक्षण कानून (33 फीसद आरक्षण) को सीधे लागू करने की मांग की गई है। वर्तमान कानून के अनुसार यह आरक्षण सीमा-निर्धारण प्रक्रिया के बाद ही लागू होगा, जो अभी तक शुरू भी नहीं हुई है। इस मामले की सुनवाई जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की बेंच ने की। मामले में देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को नोटिस जारी किया है। याचिकाकर्ता के वकील ने कहा कि सरकार ने 33 फीसद महिला आरक्षण तो दे दिया, लेकिन इसे एक ऐसी प्रक्रिया से जोड़ दिया है जो न जाने कब शुरू होगी। उन्होंने कहा कि अभी तक जनगणना भी शुरू नहीं हुई, जबकि डिलिमिटेशन उसी के बाद होना है। कानून बन चुका है, तो लागू करने में ऐसी अनिश्चित शर्त नहीं लगाई जानी चाहिए। आगे उन्होंने कहा कि कोई तार्किक आधार नहीं है, कुछ नहीं बताया गया कि कब शुरू होगा, कब खत्म होगा।
जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि किस कानून को कब लागू करना है, यह सरकार (एग्जीक्यूटिव) का काम है। हम सिर्फ इतना पूछ सकते हैं कि वे इसे कब लागू करने का प्रस्ताव रखते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि शायद सरकार इसे वैज्ञानिक डेटा पर आधारित करना चाहती हो। इस पर वकील ने कहा कि जब सरकार ने 33 फीसद आरक्षण का प्रावधान बनाया है, तो मान लेना चाहिए कि उनके पास पहले से वैज्ञानिक डेटा मौजूद था। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से सरकार को नोटिस जारी किया गया है। मामले की अगली सुनवाई में सरकार को बताना होगा कि वह महिला आरक्षण लागू करने की समय सीमा को लेकर क्या सोचती है।
महिला आरक्षण कानून दो मुख्य कानूनों को संदर्भित करता हैरू पहला पंचायती राज अधिनियम के तहत अनुच्छेद 243 है, जो पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए न्यूनतम 33 फीसद आरक्षण अनिवार्य करता है। दूसरा नारी शक्ति वंदन अधिनियम, 2023 है, जिसे संविधान (106वां संशोधन) अधिनियम, 2023 भी कहा जाता है, जो लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसद सीटें आरक्षित करता है, हालांकि यह जनगणना और परिसीमन के बाद ही प्रभावी होगा। संसद में महिलाओं के लिए आरक्षण का विचार भारत में लंबे समय से विवादित रहा है, तथा विभिन्न कारणों से यह विचार राजनीतिक परिवेश में बार-बार उभरता रहता है। अधिकांश महिलाओं के लिए, लिंग, वर्ग और जाति की बाधाएँ, पितृसत्ता के व्यापक प्रभाव से और भी जटिल होकर, उनकी समग्र राजनीतिक भागीदारी के लिए जटिल और अंतर्विरोधी चुनौतियाँ प्रस्तुत करती हैं। महिलाओं के राजनीतिक आरक्षण और भागीदारी के किसी भी अध्ययन में इन कारकों को ध्यान में रखना आवश्यक होगा। भारत, तुर्की और चीन जैसे देशों में 7 फीसद से भी कम महिला मंत्री हैं। सकारात्मक पहलू यह है कि रिपोर्ट में इस तथ्य पर भी ध्यान दिया गया है कि भारत में 25.3 प्रतिशत समानता दर्ज की गई है, जहाँ 15.1 प्रतिशत सांसदों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व है- जो 2006 में पहली रिपोर्ट के बाद से देश में सबसे ज्यादा है। हालाँकि, यह अभी भी एक असंतोषजनक आँकड़ा है, खासकर तब जब महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के संदर्भ में हमें अभी भी जाति, वर्ग और जनसांख्यिकीय अंतरों को ध्यान में रखना है और इस मोर्चे पर अभी बहुत काम किया जाना बाकी है।
महिला आरक्षण विधेयक का, अंततः अधिनियम बनने से पहले, एक लंबा और उथल-पुथल भरा इतिहास रहा है। पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार, संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने हेतु संविधान संशोधन विधेयक 1996, 1998, 1999 और 2008 में पेश किए गए थे। पहले तीन विधेयक अपनी-अपनी लोकसभाओं के भंग होने के साथ ही रद्द हो गए। 2008 का विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया और पारित हो गया, लेकिन 15वीं लोकसभा के भंग होने के साथ ही यह भी रद्द हो गया। 1996 के विधेयक की संसद की एक संयुक्त समिति ने जाँच की थी, जबकि 2008 के विधेयक की कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय संबंधी स्थायी समिति ने जाँच की थी। पुनर्जीवित करने के कई प्रयासों के बावजूद, विधेयक को लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ा। महिलाओं के लिए 33 फीसद संसदीय सीटें आरक्षित करने के उद्देश्य से लाए गए इस विधेयक को 2014 में अंतिम झटका लगा, जब ओबीसी और एससी/एसटी श्रेणियों के लिए उप-आरक्षण के अनसुलझे मुद्दे के कारण यह विधेयक निरस्त हो गया। 2023 विधेयक को लोकसभा और राज्यसभा दोनों में लगभग सर्वसम्मति से समर्थन मिला। यह विधेयक लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और दिल्ली (निर्वाचित विधानसभा वाले केंद्र शासित प्रदेश के रूप में) में सभी सीटों में से एक-तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित करता है। हालाँकि यह एक स्वागत योग्य कदम था, लेकिन इसका वास्तविक कार्यान्वयन अनिश्चित भविष्य के लिए टाल दिया गया है, क्योंकि यह केवल दशकीय जनगणना और सीटों के परिसीमन के पूरा होने के बाद ही होगा। चूँकि पिछले परिसीमन आयोग को अपनी रिपोर्ट देने में लगभग पाँच साल लग गए थे, इसलिए ज्यादातर विशेषज्ञों का अनुमान है कि 2029 के लोकसभा चुनावों में भी महिलाओं के लिए आरक्षण लागू होना असंभव है। इस विधेयक के कार्यान्वयन को जनगणना और परिसीमन की दो दीर्घकालिक प्रक्रियाओं से जोड़ना कई लोगों को समझ में नहीं आता, और ऐसा लगता है कि सशक्तिकरण में फिलहाल देरी हो रही है। इस अधिनियम के कार्यान्वयन का एक लक्ष्य 2047 तक विकसित भारत का निर्माण करना है, हालाँकि, भारत के भविष्य की कल्पना के लिए प्रयुक्त विशिष्ट शब्दों का, विशेष रूप से ऐसे शब्दों के राजनीतिक अर्थों के संदर्भ में, अधिक विश्लेषण की आवश्यकता है। इसके अलावा, इस अधिनियम को इतने विशिष्ट समय-सीमा में इतनी जल्दी क्यों पेश किया गया, जबकि इसे वर्षों से टाला जा रहा था? इसका उत्तर अभी बाकी है।
(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)

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