लेखक की कलम

मोदी की प्रगति पर विश्व बैंक की मुहर

साठ साल तक गरीबी हटाओ सिर्फ एक चुनावी जुमला रहा जिसे खूब उछाला गया लेकिन नतीजा ठेंगा निकला। अब मोदी सरकार के आने के बाद गरीबी हटाओ सिर्फ लोक लुभावन नारा नही है ऐसा खुद विश्वबैंक मानता है। पिछले एक दशक में भारत ने गरीबी उन्मूलन की दिशा में जो प्रगति की है, वह निश्चित रूप से ऐतिहासिक कही जा सकती है। विश्व बैंक की हाल की रिपोर्ट के अनुसार भारत की अत्यधिक गरीबी दर 2011-12 के 27.1 प्रतिशत से घटकर 2022-23 में मात्र 5.3 प्रतिशत रह गई है। यह आंकड़ा दर्शाता है कि लगभग 26.9 करोड़ भारतीय इस अवधि में अत्यधिक गरीबी से बाहर निकल सके हैं। यह उपलब्धि ऐसे समय में आई है जब वैश्चिक स्तर पर महामारी, आर्थिक मंदी और युद्ध जैसे संकटों ने विकासशील देशों के सामने कई चुनौतियां खड़ी कर दी थीं। विश्व बैंक के मुताबिक, 2011-12 में देश में लगभग 34.4 करोड़ लोग अत्यधिक गरीची में जीवन यापन कर रहे थे, जिनकी संख्या अब घटकर मात्र 7.5 करोड़ रह गई है।
आपको बता दें कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 4 नवम्बर को ही यह दावा कि सरकार ने 2.5 करोड़ लोगों को बहुआयामी गरीबी से बाहर निकाला है। इसी कड़ी में केरल ने खुद को अत्यधिक गरीबी मुक्त राज्य घोषित कर दिया है। कुछ अतिशयोक्ति भले लगे, लेकिन समग्र रूप से देखें तो भारत ने गरीबी घटाने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। फिर भी सवाल उठता है, क्या गरीबी में यह गिरावट समान रूप से सभी वर्गों तक पहुंची है? हाल ही में आई जी-20 की एक्स्ट्राऑर्डिनरी कमिटी ऑन ग्लोबल इनइम्क्वैलिटी की रिपोर्ट इस सवाल का स्पष्ट उत्तर देती है कि नहीं। रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2000 से 2023 के बीच शीर्ष 1 प्रतिशत अमीरों की संपत्ति में 62 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। तुलना करें तो चीन में यह वृद्धि 54 प्रतिशत रही। यह आंकड़े बताते हैं कि आर्थिक विकास का लाभ समान रूप से नहीं बंटा, जबकि शीर्ष वर्ग की संपत्ति में तेजी से बढ़ोतरी हुई, देश की निचली आधी आबादी के पास अब भी संपत्ति का नगण्य हिस्सा है। यह आंकड़ा न केवल आर्थिक विषमता की भयावहता को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि विकास के लाभ समाज के सीमित वर्ग तक सिमट गए हैं।
पिछले दो दशकों में भारत ने जीडीपी वृद्धि, तकनीकी नवाचार और वैश्विक निवेश के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियां हासिल की हैं। लेकिन इन उपलब्धियों की कीमत सामाजिक और आर्थिक विषमता के रूप में चुकानी पड़ी है। शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों ने जहां 62 प्रतिशत अधिक संपत्ति अर्जित की है वहीं यह आंकड़ा बताता है कि विकास की गति भले ही तेज रही हो, लेकिन उसका वितरण बेहद असमान रहा है। ग्रामीण भारत में आज भी लाखों परिवार शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और पोषण जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं। शहरों की चमकदार ऊंचाइयों के बीच गांवों की दरिद्रता एक सच्चाई बनकर सामने आती है। यह असमानता केवल आय की नहीं, बल्कि अवसरों, संसाधनों और सामाजिक सम्मान की भी है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक स्तर पर शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों ने 2000 से 2024 के बीच नई संपत्ति का 41 प्रतिशत हिस्सा हासिल किया है, जबकि दुनिया की निचली आधी आबादी को केवल 1 प्रतिशत मिला। यह अनुपात किसी भी दृष्टिकोण से अस्वीकार्य है। यह स्थिति लोकतंत्र, आर्थिक स्थिरता और जलवायु कार्रवाई, तीनों के लिए खतरा है। जब संपत्ति कुछ हाथों में सिमट जाती है, तो राजनीतिक शक्ति भी उन्हीं हाथों में केंद्रित होने लगती है। इससे नीति निर्माण पर कॉर्पेरिट और संपन्न वर्गों का प्रभाव बढ़ता है, और जनहित पीछे छूट जाता है। दक्षिण अफ्रीका,
भारत और ब्राजील जैसे देशों में यह प्रवृत्ति और अधिक स्पष्ट है, जहां ऐतिहासिक रूप से असमानता की
जड़ें गहरी रही हैं। रिपोर्ट चेतावनी देती है कि जिन देशों में असमानता अधिक है, वहां लोकतांत्रिक पतन की संभावना सात गुना अधिक होती है, यानी आर्थिक विषमता अब केवल सामाजिक या नैतिक समस्या नहीं, बल्कि राजनीतिक अस्थिरता की जड़ बन चुकी है। जब समाज में असमानता बढ़ती है, तो उसका असर शिक्षा, स्वास्थ्य, और सामाजिक संरचना पर भी पड़ता है।
आपको बता दें कि रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया की आधी आबादी अभी भी आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित है। लगभग 1.3 अरब लोग अपनी जेब से स्वास्थ्य खर्च करने के कारण गरीबी में जी रहे हैं। इसके अलावा, 2.3 अरब लोग मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना कर रहे हैं, यह संख्या 2019 की तुलना में 33.5 करोड़ अधिक है। इसका सीधा अर्थ यह है कि वैश्विक आर्थिक वृद्धि के बावजूद भूख, बीमारी और बेरोजगारी में वास्तविक सुधार नहीं हुआ है। रिपोर्ट स्पष्ट कहती है कि अत्यधिक असमानता कोई प्राकृतिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि मानव निर्मित परिणाम है और इसे राजनीतिक इच्छाशक्ति से बदला जा सकता है। जब तक नीति निर्माण का केंद्र मानव विकास नहीं चनेगा, तब तक आर्थिक विकास केवल आंकड़ों में सीमित रहेगा। कराधान नीति, सामाजिक सुरक्षा योजनाएं, शिक्षा और स्वास्थ्य पर निवेश तथा श्रम बाजार में सुधार जैसे कदम असमानता को घटाने में मदद कर सकते हैं।
भारत जैसे देश में जहां युवाओं की आबादी सबसे अधिक है, वहां समान अवसर की गारंटी सबसे बड़ी नीति प्राथमिकता होनी चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत की गरीबी घटने की कहानी प्रेरक है, लेकिन यह अधूरी है यदि इसके साथ असमानता का पैमाना ऊंचा जाता रहे। आर्थिक विकास का असली अर्थ तभी पूरा होगा जब समाज के हर वर्ग को समान अवसर और सम्मानजनक जीवन मिले। अमीरों की संपत्ति का बढ़ना बुरा नहीं, लेकिन जब गरीबों की हिस्सेदारी घटती जाती है, तो विकास की दिशा पर पुनर्विचार आवश्यक हो जाता है। अब समय आ गया है कि हम जीडीपी के आंकड़ों से आगे बढ़कर मानव विकास सूचकांक और समानता सूचकांक को विकास का पैमाना बनाएं। क्योंकि जैसा कि रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है चरम असमानता एक चुनाव है, भाग्य नहीं।
भारत को अब यह तय करना है कि वह इस चुनाव में किस ओर खड़ा होना चाहता है अमीरी की चमक के साथ बढ़ती गरीबी की छाया में, या संतुलित विकास के उजाले में। भारत की प्रगति तभी सार्थक होगी जब विकास का लाभ हर व्यक्ति तक पहुंचे, चाहे वह शहर की गगनचुंबी इमारतों में रहने वाला नागरिक हो या गांव की मिट्टी में पसीना बहाने वाला किसान। राजनीतिक इच्छाशक्ति, नीति सुधार और सामाजिक संवेदना ये तीन
स्तंभ हैं जिन पर समानता आधारित विकास टिक सकता है। असमानता को कम करना केवल नैतिक कर्तव्य नहीं, बल्कि लोकतंत्र, आर्थिक स्थिरता और मानव गरिमा की रक्षा का अनिवार्य उपाय है।
सरकार को उसके प्रयासों के लिए साधुवाद दिया जाना चाहिए तथापि अभी बहुत काम करना बाकी है खासकर जनसंख्या नियंत्रण पर जोर देना चाहिए ताकि संसाधनों का निरंतर विकास और आबादी में संतुलन व सामंजस्य बनाया जा सके ।
(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)

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