
राजा जनक कहते हैं कि मैं नित्य एवं शाश्वत आत्मपद पर स्थित हूं। इसलिए प्राप्त एवं अप्राप्त में समभाव है। इच्छाएं ही नहीं तो दीनता कैसी?
अष्टावक्र गीता-24
सूत्र: 2
यत्पदं प्रेप्सवो दीना शक्राद्याः सर्वदेवताः।
अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति।। 2।।
अर्थात: जिस पद की इच्छा करते हुए इन्द्रादि सम्पूर्ण देवता दीन हो रहे हैं, उस पर स्थित हुआ भी योगी हर्ष को प्राप्त नहीं होता-यही आश्चर्य है।
व्याख्या: इस सूत्र में राजा जनक कहते हैं कि ज्ञानी और अज्ञानी दोनों कर्म तो करते हैं किन्तु अज्ञानी उन कर्मों के फल की इच्छा आकांक्षा करता है जिससे वह लाभ-हानि, सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आदि से प्रभावित होता है।राजा जनक को एकत्व का बोध
इसका मुख्य कारण उसकी इच्छाएँ व अपेक्षाएँ हैं। अज्ञानी कर्म आरम्भ करने के पहले ही उसके फल की अपेक्षाएँ निश्चित कर लेता है कि इस कार्य से इतना लाभ होगा? इतना आनन्द मिलेगा। इसी लाभ के आधार पर वह अपने जीवन की आगे की सारी योजनाएं भी बना लेता है कि इससे मकान बनाऊँगा, कार खरीदूँगा, बच्चों की अच्छी पढ़ाई की व्यवस्था करूँगा आदि।
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जब उसकी अपेक्षाएँ पूरी नहीं होतीं तो शेखचिल्ली की योजनाओं की भाँति उसके कल्पना के महल ढह जाते हैं जिससे वह दुःखी हो रहा है। उसको भी खतरा है कि कोई मेरा सिंहासन छीन न ले। किसी ने कठोर तपस्या की कि इन्द्र का आसन डोलने लगता है। फिर उसे बचाने के लिए वह षड्यन्त्र आरम्भ कर देता है। इसी भोग की इच्छा के कारण ही सभी देवता दीन हो रहे हैं।
कभी इन्द्र के पास और कभी विष्णु के पास, कभी शिव को प्रसन्न करने पहुँच जाते हैं, गिड़गिड़ाते हैं कि हमारा संकट दूर करो। देवता व इन्द्र भी वासना ग्रस्त होने से ही इस आत्मारूपी एवं मुक्ति रूपी परम पद को नहीं पा सके हैं। वे इसको पाने की इच्छा के कारण बड़े दीन हो रहे हैं किन्तु जो योगी ऐसे महत्वपूर्ण पद को पाकर भी हर्ष को प्राप्त नहीं होता है यही आश्चर्य है।
यानि मैं उस पद को प्राप्त करके भी हर्षित नहीं हूँ क्योंकि द्वन्द्व से ही पार हो गया हूँ। द्वन्द्वातीत स्थिति ही मुक्ति है। मैं अब प्राप्त और अप्राप्त में समभाव से स्थित हूँ। मैं नित्य एवं शाश्वत आत्मपद पर स्थित हूँ। #राजा जनक दीन वह नहीं है जिसके पास कुछ नहीं है बल्कि वह है जो निरन्तर अधिक की इच्छा करता है। इच्छाएँ मात्र दीनता का कारण हैं।
सूत्र: 3
तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते।
न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानाऽिप संगतिः।। 3।।
अर्थात: उस पद को जानने वाले के अन्तःकरण का स्पर्श वैसे ही पुण्य और पाप के साथ नहीं होता जैसे आकाश का सम्बन्ध भासता हुआ भी धुएँ के साथ नहीं होता।
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व्याख्या: अन्तःकरण का दोहरा कार्य है। जब यह शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों के साथ होकर इच्छाओं एवं वासनाओं से ग्रस्त होता हे तो यह पाप-पुण्य का भागी होता है किन्तु यह शुद्ध होने पर आत्मा का अनुभव करता है तब यह विकास रहित होने से पाप-पुण्य का भागी नहीं होता। ये पाप-पुण्य के भाव उसका स्पर्श भी नहीं कर पाते।
पाप-पुण्य एक धारणा मात्र है, यह कृत्य में नहीं भावना में है, ये शरीरकृत नहीं मानसिक है जिसका प्रभाव अहंकार के कारण होता है। जब चित्तवृत्ति अहंकार रहित हो जाती है तब अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। आत्मज्ञानी का अहंकार खो जाता है, कर्तापन ही खो जाता है फिर पाप-पुण्य का प्रभाव किस पर हो सकता है।
कर्तापन ही पाप-पुण्य का कारण है। इसलिए जनक कहते हैं कि उस आत्मपद को जानने वाले के अन्तःकरण का स्पर्श अब ये पाप-पुण्य नहीं कर सकते जैसे आकाश का कि धुएँ से सारा आकाश गन्दा हो गया है। ऐसे ही लोग चाहे यह समझें कि ज्ञानी भी संसारी जैसे ही कार्य कर रहा है अतः वह ज्ञान नहीं हैं, भोगी ही हैं, पाखण्ड कर रखा है, दुनिया को धोखा देने के लिए ज्ञानी बन बैठा है।
उसने कपड़े छोड़े नहीं, महल छोड़े नहीं, सभी राग-रंग वैसा ही है, सब खाता-पीता है, अतः यह ज्ञानी हो ही नहीं सकता। ज्ञानी कैसा होता है, इसकी परिभाषा भी जब अज्ञानी करने लगते हैं तो अपनी मूढ़ता उस पर थोप देते हैं कि ज्ञानी नंगा रहता है, खाता-पीता नहीं है, उपवास करता है, जिसका चेहरा लटका हुआ हो, जिसे एनीमिया हो गया हो, जो कृशकाय हो गया हो, जिसकी बोलने की शक्ति न हो, आँखों में तेज न हो, जो मरे हुए जैसा जीता हो वह ज्ञानी होता है।
यदि किसी बन्दर को परमात्मा की आकृति बनाने को कहा जाये तो वह उसकी आकृति बन्दर जैसी ही बनायेगा, वह मनुष्य जैसी क्यों बनायेगा। जनक को ज्ञान प्राप्त हुआ इसलिए वे इसकी सही व्याख्या दे पा रहे हैं। इस कारण को भी अष्टावक्र जैसा ज्ञानी गुरु ही समझ सकता है। अज्ञानी इसे समझ नहीं पायेगा कि जो घटा है वह वास्तविक है अथवा भ्रान्ति ही है।
सूत्र: 4
आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना।
यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धु क्षमेत कः।। 4।।
अर्थात: जिस महात्मा ने इस सम्पूर्ण जगत् को आत्मा की तरह जान लिया है, उस ज्ञानी को अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने से कौन रोक सकता है।
व्याख्या: जो अपने को आत्मा से भिन्न मानकर मन एवं अहंकारवश जो कर्म करता है वही कर्म उसे पाप-पुण्य का फल देते हैं तथा उन कर्मों के फल का भोक्ता भी वही मन और अहंकार होता है किन्तु जो इनसे पार चैतन्य आत्मा में स्थिर हो गया, जिसने इस सम्पूर्ण जगत् को आत्मा की तरह जान लिया है तो फिर न कर्म करने वाला बचता है, न उसका फल भोगने वाला क्योंकि आत्मा न कर्ता है, न भोक्ता तथा जो मन और अहंकार कत्र्ता-भोक्ता था वह जा चुका। अब उसका अस्तित्व ही नहीं है इसलिए पाप-पुण्य होता ही नहीं है। जनक यही बात कह रहे हैं कि जिस महात्मा ने इस सम्पूर्ण जगत् को आत्मा की तरह जान लिया है उस ज्ञानी को अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करने से कौन रोक सकता है। ऐसा व्यक्ति सामाजिक, राजनैतिक, व्यावहारिक, शास्त्रीय आदि सभी बन्धनों से मुक्त होकर केवल ईश्वरीय नियमों के अनुसार कार्य एवं व्यवहार करता है, उसका समस्त कार्य एवं व्यवहार स्वविवेक पर आधारित होता है। इसलिए वह अपनी इच्छा यानि आत्मा की इच्छानुसार कार्य करता है। वह मन बुद्धि, अहंकार व शरीर आदि की इच्छा अनुसार नहीं चलता। इन सब बन्धनों से वह मुक्त होकर परम स्वतन्त्रता का अनुभव करता है। जब दूसरा मौजूद है तभी पाप-पुण्य की सम्भावना होती है। जब दो हैं ही नहीं, तो कौन पाप करने वाला है, किसके साथ पाप किया जायेगा, कौन भोक्ता है, कौन भोग्य है। यह पाप-पुण्य द्वैत की ही भाषा है, अज्ञानी की भाषा है। ज्ञानी में एकत्व भाव आ जाता है फिर कैसा पाप-पुण्य? जिस प्रकार शरीर का एक अंग किसी दूसरे अंग को कष्ट नहीं पहुँचाता एवं सहयोग ही करता है। यदि भूल-चूक में कष्ट पहुँचा भी दिया तो न तो दूसरा अंग उसका बदला लेता है, न उससे क्षमा ही मँगवाता है, न पहले अंग को कोई पाप ही लगता है कि वह इस कर्म का फल भुगतेगा ही, वह अंग नरक में जायेगा, बाकी अंग स्वर्ग जायेंगे। ऐसा कभी होता नहीं। यह पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक, दया, क्षमा आदि द्वैतवादी धर्म की मान्यताएँ हैं जो मात्र अज्ञानी के लिए हैं। अद्वैत को उपलब्ध हुआ ज्ञानी इन सबसे पार हो जाता है। उसे एकत्व का बोध हो जाता है फिर कोई पाप-पुण्य नहीं है।-क्रमशः (हिफी)
(साभार अष्टावक्र गीता)
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)