वामपंथ को नयी धार देने वाले येचुरी

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी सीपीआई (एम) के महासचिव सीताराम येचुरी का 12 सितंबर को निधन हो गया। उन्होंने 72 साल की उम्र में अंतिम सांस ली। वह पिछले कई दिनों से दिल्ली स्थित एम्स अस्पताल में भर्ती थे। सीताराम येचुरी अपने पीछे पत्नी सीमा चिश्ती येचुरी और बच्चों अखिला और आशीष येचुरी को छोड़ गए हैं। सीताराम येचुरी ने छात्र जीवन से ही राजनीति शुरू की थी और वह जेएनयू छात्र संघ का हिस्सा रहे थे। आपातकाल के दौर में जेल जाने से उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। उनके निधन के बाद परिवार ने बड़ा फैसला लेते हुए सीताराम येचुरी के पार्थिव शरीर को दिल्ली एम्स को दान कर दिया। इस प्रकार यश और काय दोनों रूपों में सीताराम येचुरी अमर हो गए हैं।
सीताराम येचुरी भारत में वामपंथ के सीनियर नेताओं में से एक थे। उन्होंने ऐसे समय में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का नेतृत्व किया था, जब भारतीय राजनीति में पार्टी का दबदबा कम हो गया था। सीताराम येचुरी काफी वक्त तक भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे। इस दौरान वो कई बार राज्यसभा सांसद भी रहे। येचुरी ने राज्यसभा में अपनी पार्टी की अगुआई भी की। सीताराम येचुरी राजनेता के साथ-साथ समाजसेवी, अर्थशास्त्री, पत्रकार और लेखक भी थे। राजनीतिक दस्तावेज तैयार करने में उनकी राय सर्वोपरि मानी जाती थी। कांग्रेस नेता पी चिदंबरम के साथ मिलकर उन्होंने 1996 में संयुक्त मोर्चा सरकार के लिए न्यूनतम साझा कार्यक्रम तैयार किया था। वे लंबे समय से अखबारों में कॉलम लिखते रहे । उन्होंने कई किताबें भी लिखीं, जिनमें ‘लेफ्ट हैंड ड्राइव’, ‘ये हिंदू राष्ट्र क्या है’, ‘घृणा की राजनीति’ (हिंदी में), ‘21वीं सदी का समाजवाद’ शामिल हैं।
प्राप्त जानकारी के अनुसार, एम्स में 72 साल के सीताराम येचुरी का तीव्र श्वसन पथ संक्रमण का इलाज चल रहा था। पिछले कई दिनों से वह रेस्पिरेट्री सपोर्ट पर थे। सीताराम येचुरी की गिनती देश के प्रमुख नेताओं में होती थी। पढ़ाई में अव्वल रहे येचुरी ने कैसे राजनीति में कदम रखा, इसकी कहानी भी बेहद दिलचस्प है। राजनीति का ऐसा चस्का लगा कि उन्हें जेल की हवा तक खानी पड़ी और अंततः उनकी पढ़ाई भी पीछे छूट गई। इस राजनीति के चक्घ्कर में वह ऐसे उलझे कि पढ़ाई में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाले येचुरी की पीएचडी बीच में ही छूट गई, लिहाजा अपने नाम के आगे डॉक्घ्टर लिखने का उनका सपना अधूरा ही रह गया।
सीताराम येचुरी मूल रूप से चेन्नई के रहने वाले थे। उनका जन्म 12 अगस्त 1952 को चेन्नई में हुआ था, लेकिन उनका बचपन हैदराबाद में बीता। उन्होंने हैदराबाद के ऑल सेंट्स हाई स्कूल में दसवीं कक्षा तक पढ़ाई की। इसके बाद 1969 के तेलंगाना आंदोलन के दौरान वह दिल्ली आ गए। येचुरी ने दिल्ली के प्रेसिडेंट एस्टेट स्कूल में दाखिला लिया और सीबीएसई बोर्ड की बारहवीं की परीक्षा में ऑल इंडिया टॉप किया। बारहवीं के बाद सीताराम येचुरी ने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में एडमिशन लिया, जहां उन्होंने अर्थशास्त्र में बीए (ऑनर्स) किया। यहां भी उन्होंने अपनी वार्षिक परीक्षा में पहला स्थान हासिल किया। इसके बाद पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में दाखिला लिया और अर्थशास्त्र में एमए की डिग्री प्राप्त की। जेएनयू से पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद उन्होंने यहां से अर्थशास्त्र में पीएचडी करने के लिए दाखिला लिया, लेकिन 1975 में आपातकाल के दौरान उनकी गिरफ्तारी हो गई, जिसके कारण उनकी पीएचडी बीच में ही छूट गई और उनका ‘डॉक्टर’ बनने का सपना अधूरा रह गया।
सीताराम येचुरी ने जेएनयू में पढ़ाई के दौरान 1974 में स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एस एफआई) से जुड़कर अपने राजनीतिक करियर की शुरुआत की। एक साल बाद वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (सीपीआई एम) के सदस्य बन गए। 1970 के दशक में, येचुरी तीन बार जेएनयू छात्रसंघ के
अध्यक्ष चुने गए। माना जाता है कि येचुरी और प्रकाश करात ने मिलकर जेएनयू में वामपंथ को मजबूती दी। इसके बाद उनका राजनीतिक करियर लगातार आगे बढ़ता गया। वह 1984 में सीपीआई (एम) की केंद्रीय समिति के सदस्य चुने गए और 1978 से 1998 तक पार्टी में उनका व्यक्तिगत और राजनीतिक कद बढ़ता गया।
आपातकाल के दौर में जेल जाने से उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। करीब 5 दशकों के अपने राजनीतिक करियर में वह वामपंथ की धुरी रहे। उन्हें वामपंथी दलों को गठबंधन की राजनीति में लाने का भी श्रेय दिया जाता है। यूपीए वन और यूपीए टू के दौर में उन्होंने ही वामपंथी दलों को सरकार का हिस्सा बनने के लिए राजी किया था। उन्हें अप्रैल 2015 में सीपीएम के महासचिव के तौर पर जिम्मेदारी मिली थी। इसके अलावा 2016 में राज्यसभा में सर्वश्रेष्ठ सांसद पुरस्कार से सम्मानित किए गए थे। सेकुलरिज्म, आर्थिक समानता जैसे मूल्यों के लिए सीताराम येचुरी आजीवन प्रतिबद्ध रहे। उनके शुरुआती जीवन की बात करें तो सीताराम येचुरी 12 अगस्त, 1952 को मद्रास में पैदा हुए थे। उनका ताल्लुक एक तेलुगु ब्राह्मण परिवार से थे। उनके पिता आंध्र प्रदेश रोडवेज में इंजीनियर के पद पर थे और मां भी एक सरकारी अधिकारी थीं। वह हैदराबाद में बड़े हुए और दसवीं कक्षा तक हैदराबाद के ऑल सेंट्स हाई स्कूल में पढ़ाई की।
इसके बाद उन्होंने दिल्ली का रुख किया और उच्च शिक्षा डीयूए एवं जेएनयू से हासिल की। दिल्ली विश्वविद्यालय से येचुरी ने अर्थशास्त्र में बीए ऑनर्स की डिग्री ली और फिर जेएनयू से अर्थशास्त्र में ही एमए किया। वह अर्थशास्त्र के विषय में ही पीएचडी भी करना चाहते थे, लेकिन फिर इमरजेंसी के दौरान वह आंदोलन का हिस्सा बन गए। उनकी गिरफ्तारी हुई और जेल जाना पड़ा। यहां से उनका पढ़ाई से नाता टूट गया और वह पूरी तरह से राजनीति में ही सक्रिय हो गए। सीताराम येचुरी के कांग्रेस, आरजेडी समेत कई दलों से अच्छे रिश्ते थे। समान विचारधारा वाले दलों को साथ लाने की वह हमेशा कोशिश करते रहे।
बात अक्टूबर 1977 की है। आपातकाल के बाद हुए लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी की सरकार जा चुकी थी। चुनावों में कांग्रेस पार्टी की करारी हार हुई थी। बावजूद इसके इंदिरा गांधी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) की कुलाधिपति यानी चांसलर बनी हुई थीं। जेएनयू के छात्र इसका प्रबल विरोध कर रहे थे। सीताराम येचुरी तब जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष थे और अर्थशास्त्र के विद्यार्थी थे। जेएनयू के छात्र इंदिरा गांधी के आपातकाल लगाने के फैसले से भड़के हुए थे और उन्हें तानाशाह करार दे रहे थे। छात्रों को यह कतई पसंद नहीं था कि कोई तानाशाह उनका चांसलर रहे। जब इंदिरा प्रधानमंत्री नहीं रहीं, फिर भी जेएनयू की चांसलर बनी रहीं, तब सीताराम येचुरी ने सैकड़ों छात्रों को लेकर इंदिरा गांधी के आवास तक पैदल मार्च किया था। छात्र इंदिरा के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे। जब काफी मशक्कत के बाद भी छात्र वहां से टस से मस नहीं हुए तो इंदिरा अपने आवास से बाहर आईं और छात्रों से बात करने लगीं। इसी दौरान सीताराम येचुरी ने गांधी के इस्तीफे की मांग करते हुए एक ज्ञापन पढ़ा। इस दौरान इंदिरा उनके बगल में खड़ी रहीं। इस घटना के बाद इंदिरा गांधी ने जेनएनयू के कुलाधिपति पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि, इस घटना के बाद येचुरी को गिरफ्तार कर लिया गया था।
सीताराम येचुरी राजनीति में सक्रिय हो चुके थे। तभी 1975 में इमरजेंसी के दौरान जेल जाना पड़ा। जब जेल काटकर लौटे तो देश में लोकतंत्र की बहाली की लड़ाई के लिए अंडरग्राउंड हो गए। यह उनके जीवन का सबसे अहम मोड़ था। इस वक्घ्त ने ही उनकी राजनीतिक सक्रियता और कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को मजबूत किया था। (हिफी)