मुफ्त की रेवडियां और बेशर्म सियासत

(अशोक त्रिपाठी-हिफी फीचर)
देश की सबसे बड़ी अदालत अर्थात सुप्रीम कोर्ट ने गत 12 फरवरी को राजनीतिकदलों पर सवाल उठाते हुए कहा कि चुनावों के दौरान मुफ्त की स्कीमों की घोषणा किए जाने के कारण लोग काम करने से बच रहे हैं और देश के विकास में हिस्सा नहीं ले रहे हैं। दरअसल हाल ही में सम्पन्न हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में तत्कालीन सत्तारूढ आम आदमी पार्टी से लेकर भाजपा और कांग्रेस ने भी मुफ्त की रेवडियां बांटने का आश्वासन दिया था। भारतीय जनता पार्टी को वहां सरकार बनाने का जनादेश मिला है । रेवडियों का क्या होगा यह तो भविष्य की बात है लेकिन इस घातक और राश्ट्र को पतन की तरफ ले जाने वाली कुपरम्परा पर सुप्रीम कोर्ट ने देश को चेताया है । बेशर्म राजनीति पर कोर्ट की चेतावनी का कोई असर पड़ेगा ऐसा नहीं लगता क्योंकि यह बीमारी कोई नयी नहीं है बल्कि रोग दिन प्रतिदिन असाध्य होता जब रहा है। अपने को आदर्शवादी बताने वाले राजनीतिकदलों ने भी कुर्सी पाने के लिए रेवडियां बांटना शुरू कर दिया है। इस रोग का इलाज हमारे देश के मतदाता ही कर सकते हैं। मतदाता अगर सावधान नहीं रहेंगे तो परजीवियों की आडवाणी बढती ही जाएगी।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई ने कहा कि दुर्भाग्य की बात है कि मुफ्त में मिलने वाली चीजों के कारण देश के मेहनतकश लोग भी काम करने से बचने लगे हैं। उन्हें मुफ्त में राशन मिल रहा है। उन्हें बिना कुछ काम किए ही पैसे मिल रहे हैं। राष्ट्र के विकास में योगदान देकर उन्हें समाज की मुख्यधारा का हिस्सा बनाने के बजाय क्या हम परजीवियों का एक वर्ग नहीं बना रहे हैं? न्यायमूर्ति बीआर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने बेघर व्यक्तियों के लिए आश्रय के अधिकार से संबंधित एक मामले की सुनवाई करते हुए ये बात कही। दुर्भाग्य से, इन मुफ्त सुविधाओं की वजह से, जो चुनावों के ठीक पहले घोषित की जाती हैं जैसे कोई लाडली बहना, कोई दूसरी योजना इस वजह से लोग काम करने को तैयार नहीं हैं। कोर्ट ने कहा उन्हें मुफ्त में राशन मिल रहा है। उन्हें बिना काम किए ही कुछ राशि मिल रही है। इसके बजाय क्या उन्हें समाज की मुख्यधारा का हिस्सा बनाना बेहतर नहीं होगा। विद्वान न्यायाधीशों ने स्पष्ट रूप से कहा कि उन्हें राष्ट्र के विकास में योगदान करने की अनुमति दी जानी चाहिए। उनको काहिल न बनाया जाए। इसका दूसरा पक्ष भी देखें। बताया जाता है कि देश में ‘मुफ्त की रेवड़ियों या फ्रीबीज पर सरकारें अथाह पैसा खर्च करती हैं। यह जानकर हमारे अर्थात सामान्य जन के होश ही उड जाएंगे। एक अनुमान के मुताबिक, केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर सौ खरब रुपये से भी ज्यादा मुफ्त में बांट देती हैं। यह काम परोपकार के तौर पर नहीं किया जाता है बल्कि वोट प्राप्त करने के लिए किया जाता है। वोट से सरकार बनायी जाती है और वोट से हम दूसरे दल की सरकार गिरा दी जाती है। बेशर्मी इतनी कि आदर्श बघारने वाले भी अब मुफ्त की रेवडियां बांटने में कोई संकोच नहीं करते । मुफ्त में राशन बांटने पर ही तकरीबन 2 लाख करोड़ रुपये खर्च हो रहे हैं। कोरोना काल में इसकी जरूरत थी लेकिन अब यह वोट की राजनीति का हिस्सा बन चुका है। इसी प्रकार पीएम किसान योजना के जरिए 75000 करोड़ रुपये दिए जा रहे हैं । यह धनराशि क्या सिर्फ जरूरतमंद किसान को ही मिल पाती है। इसी तरह मुफ्त-बिजली पानी पर देशभर में एक लाख करोड़ से ज्घ्यादा खर्च हो रहे हैं। सरकारें मुफ्त बसों की सवारी के नाम पर 20 हजार करोड़ से ज्यादा लुटा रही हैं । देश भर में महिलाओं को विविभन्न स्कीमों के नाम पर तीन लाख करोड़ रुपये तक दिये जा रहे हैं। इसप्रकार कई और योजनाएं हैं। न्यायपालिका अपना धर्म निभा रही है। लोकतंत्र में उसकी भी सीमाएं हैं । कई मौकों पर अदालत ने सीमा के अंदर अपना विचार रखता है। आर्थिक आरक्षण को लेकर भी विचार करने को सुप्रीम कोर्ट नई कहा था। राजनीति में अपराधियों को प्रवेश न देने के लिए स्पस्ट कानून बनाने का सुझाव भी दिया था। इनको अमली जामा पहनाने का अधिकार संसद के पास है। मुफ्त की रेवडियों को लेकर एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने इस पर गंभीर चिंता जताई है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, चुनाव जीतने के लिए ‘मुफ्त की रेवड़ियां बांटने की प्रथा लोगों को बेकार बना रही है। वे काम नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें मुफ्त में राशन और पैसा मिल जाता है। क्घ्या ऐसी योजनाओं से हम परजीवियों का एक वर्ग नहीं बना रहे हैं? जस्टिस बीआर गवई ने कहा, दुर्भाग्य की बात है कि फ्री में मिलने वाली चीजों के कारण लोग काम करने से बचने लगे हैं। उन्हें फ्री में राशन मिल रहा है। उनको बिना कुछ काम किए पैसे मिल रहे हैं, तो फिर वे काम क्यों करना चाहेंगे। इससे तो बेहतर होता कि उन्हें मेन स्ट्रीम का हिस्सा बनाया जाता और देश के विकास में योगदान देने का मौका दिया जाता। जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ बेघर लोगों के आश्रय के अधिकार से जुड़ी याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणियां दिल्ली विधान सभा चुनाव के बाद आई हैं, जिसमें बीजेपी, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने सत्ता में आने के लिए एक के बाद एक कई ऐलान किए थे। इसमें बिजली-पानी बिल माफ, महघ्लिाओं को 2100 से 2500 रुपये तक हर महीने, छात्रों, महिलाओं के लिए मुफ्त बस की यात्रा, तमाम वर्गों को पेंशन के नाम पर हजारों रुपये देने का वादा कघ्यिा गया था। ऐसी ही घोषणाएं मध्घ्य प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र चुनावों के वक्त भी की गयी थीं ।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम बेघर लोगों के लिए आपकी चिंता की सराहना करते हैं, लेकिन क्या उन्हें समाज की मुख्यधारा का हिस्सा बनाना और उन्हें राष्ट्र के विकास में योगदान देने की अनुमति देना बेहतर नहीं होगा। यह पहली बार नहीं है जब मुफ्त की योजनाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को घेरा है। बीते साल कोर्ट ने केंद्र और इलेक्शन कमीशन से पूछा था कि पॉलिटकल पार्टी हमेशा ही चुनावों से पहले मुफ्त स्कीमों की घोषणाएं करती हैं। अधिक वोट्स पाने के लिए पॉलिटिकल पार्टियां मुफ्त की योजनाओं पर निर्भर रहती हैं और इसका एक उदाहरण हाल ही में हुए दिल्ली चुनावों में भी देखा गया है। अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि केंद्र सरकार शहरी गरीबी उन्मूलन मिशन को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में है। इसका उद्देश्य शहरी बेघरों के लिए आश्रय समेत प्रमुख मुद्दों का समाधान करना है। इसके जवाब में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आप हमें बताएं कि इस मिशन को कब तक अंतिम रूप दिया जाएगा। कोर्ट ने मामले की अगली सुनवाई छह हफ्तों बाद की रखी है। बेघरों को घर मिले यह अच्छी बात है लेकिन लोग काहिल और कामचोर न हो जाएं इसपर विशेष रूप से ध्यान रखना होगा। मंशा प्रेमचन्द के नायक घीसू और माधव ऐसे हालात में ही पैदा होते हैं । (हिफी)