खतरे में धरती, हवा और पानी

(अचिता-हिफी फीचर)
नेचर क्लाइमेट चेंज नामक पत्रिका मंे एक अध्ययन प्रकाशित हुआ है। इस अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र तटीय क्षेत्रों मंे रहने वाले लाखों लोगों का जीवन जोखिम से भर जाएगा। समुद्र का स्तर एक मीटर तक बढ़ने की संभावना जतायी गयी है। समुद्र का स्तर बढ़ने से वर्जीनिया से मियामी और फ्लोरिडा तक दक्षिण-पूर्वी अटलांटिक तट पर रहने वाले 14 मिलियन से अधिक लोग प्रभावित होंगे। अध्ययन के मुताबिक तटीय क्षेत्रों की 70 फीसद आबादी उथले या उभरते भूजल के सम्पर्क मंे आ जाएगी जो सामान्य बाढ़ की तुलना में कहीं अधिक जोखिम भरी होगी। इससे जन-धन दोनों की बड़े स्तर पर हानि उठानी पड़ सकती है। जलवायु परिवर्तन के कई कारण बताये जाते हैं। इनमें एक कार्बन उत्सर्जन भी है। कार्बन उत्सर्जन की मात्रा कम करने के लिए विश्व स्तर पर प्रयास किये जा रहे हैं लेकिन विकसित देशों की मंशा ठीक नहीं लगती। अभी हाल मंे ही अजर बैजान के बाकू मंे कॉप-29 सम्मेलन सम्पन्न हुआ था। इस सम्मेलन में 300 अरब डालर वार्षिक क्लाइमेट फाइनेंस का लक्ष्य तय किया गया लेकिन भारत ने इस पर आपत्ति जतायी है। भारतीय प्रतिनिधि चांदनी रैना कहती हैं कि यह दस्तावेज जलवायु समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता। विकसित देशों को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए और ब्राजील में 2025 मंे जब कॉप-30 का सम्मेलन हो, तब जलवायु परिवर्तन की समस्याओं को गंभीरता से समझा जाए। इसमें विकसित देशों को बढ़ चढ़कर हिस्सा लेना चाहिए। यदि हम अब भी गंभीर नहीं हुए तो ग्लेशियरों का पिघलना रोका नहीं जा सकेगा। ग्लेशियर पिघलेंगे तो समुद्र का जल स्तर बढ़ेगा।
हाल ही में अजरबैजान के बाकू में आयोजित कॉप-29 सम्मेलन में 300 अरब डॉलर वार्षिक क्लाइमेट फाइनेंस का लक्ष्य तय किया गया, जिससे विकासशील देशों को मदद मिल सके लेकिन समझौते पर भी विवादों के बादल छा गए। भारत ने इसे एक “दृष्टि भ्रम” बताते हुए कहा कि इससे असली जलवायु समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता। दरअसल, विकासशील देशों ने इसके लिए कम से कम एक ट्रिलियन डॉलर (1000 अरब डॉलर) की मांग की थी। इस समझौते की गहराई और भारत
समेत विकासशील देशों की चिंताएं। संयुक्त राष्ट्र के अंतिम आधिकारिक मसौदे के अनुसार, कॉप-29 का
मुख्य उद्देश्य जलवायु से जुड़ी पिछली फाइनेंस योजना को तीन गुना बढ़ाना था। पहले हर साल 100 अरब डॉलर की योजना थी, जिसे अब 300 अरब डॉलर (24.75 लाख करोड़ रुपये) किया गया है।
समझौते के मुताबिक, साल 2035 तक यह प्रयास किया जाएगा कि सार्वजनिक और निजी स्रोतों से विकासशील देशों को कुल 1.5 ट्रिलियन डॉलर (123.75 लाख करोड़ रुपये) तक की वित्तीय सहायता मिले। इसके अलावा, 1.3 ट्रिलियन डॉलर (1,07,25,000 करोड़ रुपये) विशेष रूप से अनुदानों और सार्वजनिक निधियों के रूप में कमजोर देशों के लिए सुनिश्चित किए जाएंगे। जब बात जलवायु परिवर्तन से निपटने की हो, तो यह केवल पर्यावरण का मुद्दा नहीं होता, बल्कि जीवन और मृत्यु का सवाल होता है। अमेरिका और चीन जैसे विकसित देश, विकासशील देशों की बात सुनते तक नहीं। यह कहने में गुरेज नहीं कि वे ‘मनमानी’ करते हैं। अब जबकि पूरी दुनिया के सामने कार्बन उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या मुंह खोले खड़ी है, तब भी उसे गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। चीन, अमेरिका जैसे विकसित देश किस तरह भारत जैसे विकासशील देशों की सांसें रोकने की कोशिश में जुटे हैं, यह उसी की एक बानगी भर है। भारत ने इस समझौते को नकारते हुए इसे “दृष्टि भ्रम” करार दिया। भारतीय प्रतिनिधि चांदनी रैना ने कहा, “यह दस्तावेज असल चुनौती का समाधान करने में असमर्थ है। यह केवल एक दिखावटी समझौता है, जो असली समस्याओं को हल नहीं कर सकता।” भारत ने विकसित देशों पर उनकी जिम्मेदारियों को पूरा न करने का आरोप लगाया। भारतीय पक्ष ने तर्क दिया कि यह समझौता विकासशील देशों की प्राथमिकताओं को अनदेखा करता है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने भी इस समझौते को “उम्मीदों से कम” बताते हुए कहा, “यह समझौता एक आधार है, लेकिन इसे समय पर और पूरी तरह लागू करना जरूरी है।” उन्होंने कहा, “हमारे सामने खड़ी विशाल चुनौतियों का सामना करने के लिए मुझे इससे कहीं अधिक बेहतर रिजल्ट की उम्मीद थी।” संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन मामलों के कार्यकारी सचिव साइमन स्टील ने कॉप29 में हुए नए वित्त समझौते को, “मानवता के लिए एक बीमा पॉलिसी” करार दिया है। साइमन स्टील ने कहा, “इस समझौते से क्लीन एनर्जी के विकास को बढ़ावा मिलेगा और अरबों जिंदगियां बचेंगी। मगर किसी भी अन्य बीमा पॉलिसी की तरह, यह तभी काम करेगी, जब इसके लिए किस्तें समय पर और पूरी तरह अदा की जाएंगी।” उन्होंने माना कि किसी भी देश को वो नहीं मिला, जो उन्होंने चाहा था और दुनिया पहाड़ जैसा काम लेकर बाकू से वापस लौट रही है। उन्होंने कह भी जोड़ा, “इसलिए, यह कोई जीत की खुशी में तालियां बजाने का समय नहीं है। हमें बेलेन के रास्ते पर अपनी नजर के साथ-साथ तमाम प्रयास करने होंगे।” बता दें कि 2025 का कॉप 30 सम्मेलन ब्राजील के पूर्वी अमेजन इलाके बेलेन में होगा।
भारतीय प्रतिनिधि चांदनी रैना ने इस समझौते पर नाखुशी जताई और कहा कि इसमें अपनी जिम्मेदारियां पूरी करने के लिए विकसित देशों की अनिच्छा झलकती है। रैना ने कहा, “मुझे यह कहते हुए अत्यंत खेद है कि यह दस्तावेज दृष्टि भ्रम के अलावा और कुछ नहीं है। क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला कहती है कि “300 अरब डॉलर का लक्ष्य एक अच्छी शुरुआत है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि यह धन कहां से आएगा। विकसित देशों से वित्त जुटाना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है।”
ध्यान रहे कि दुनिया में बर्फ पिघल रही है और यह महासागारों का जलस्तर बढ़ा कर मुंबई समेत दुनिया के कई बड़े शहरों को डुबा सकता है। ऐसे में आर्कटिक और अंटार्कटिक पर दुनिया के साइंटिस्ट्स की खासी नजर है। उन्हें अंटार्कटिका के मशहूर डूम्सडे ग्लेशियर के पिघलने की सबसे ज्यादा चिंता है क्योंकि वह तेजी से पिघल रहा है और वह इस संभावित दुर्घटना में बड़ा योगदान देने वाली साबित होगी। ऐसे में साइंटिस्ट्स ऐसे उपायों पर भी विचार कर रहे हैं कि डूम्सडे ग्लेशियर को पिघलने से रोका जा सके। ये जलवायु परिवर्तन के कारण बहुत तेजी से पिघल रहा है और इससे वैश्विक समुद्र का स्तर 10 फीट तक बढ़ने की संभावना है। (हिफी)