अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान-पान कहुं एक

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भरत जी प्रभु श्रीराम से अयोध्या जाने के लिए विदा मांग रहे हैं और कहते हैं कि कुछ ऐसी शिक्षा दीजिए जिससे 14 वर्ष तक अयोध्या की देखभाल कर सकूं। इस पर भगवान श्रीराम उन्हें बताते हैं कि मुखिया कैसा होना चाहिए। प्रभु श्रीराम कहते हैं कि मुखिया को मुख के समान होना चाहिए जो खान-पान में एक जैसा व्यवहार करता है लेकिन अपने लिए कुछ नहीं रखता बल्कि सम्पूर्ण शरीर का पालन-पोषण करता है। काश! रामचरित मानस की इस बात को आज के राजनेता भी आत्मसात करते जो जनप्रतिनिधि बनकर जन को ही भूल जाते हैं।
दीनबंधु सुनि बंधु के बचन दीन छलहीन।
देसकाल अवसर सरिस बोले रामु प्रबीन।
तात तुम्हारि मोरि परिजन की, चिंता गुरहि नृपहि घर बनकी।
माथे पर गुर मुनि मिथिलेसू, हमहि तुम्हहि सपनेहु न कलेसू।
मोर तुम्हार परम पुरुषारथु, स्वारथु सुजसु धरमु परमारथु।
पितु आयसु पालिहिं दुहु भाईं, लोक बेद भल भूप भलाईं।
गुर पितु मातु स्वामि सिख पालें, चलेहुं कुमग पग परहिं न खालें।
अस बिचारि सब सोच बिहाई, पालहु अवध अवधि भरि जाई।
देसु कोसु परिजन परिवारू, गुर पद रजहिं लाग छरु भारू।
तुम्ह मुनि मातु सचिव सिख मानी, पालेहु पुहुमि प्रजा
रजधानी।
दीनबंधु और परम चतुर श्रीरामजी ने भाई भरत के छलहीन और दीन बचन सुनकर देश, काल और अवसर के अनुकूल बचन कहे। उन्होंने कहा, ते तात, तुम्हारी, मेरी परिवार की, घर की वन की सारी चिंता गुरु वशिष्ठ जी और महाराज जनक जी को है। हमारे सिर पर जब जनकजी, गुरु वशिष्ठ और मुनि विश्वामित्र हैं, तब हमें और तुम्हें स्वप्न में भी क्लेश नहंी है। मेरा और तुम्हारा तो परम पुरुषार्थ, स्वार्थ, सुयश धर्म और परमार्थ इसी में है कि हम दोनों भाई पिताजी की आज्ञा का पालन करें। राजा की भलाई अर्थात् उनके व्रत की रक्षा से ही लोक और वेद दोनों में भला है। गुरु, पिता, माता और स्वामी की शिक्षा-आज्ञा का पालन करने से कुमार्ग पर चलने से भी पैर गड्ढे में नहीं पड़ता अर्थात् पतन नहीं होता। ऐसा विचार कर, सब सोच छोड़कर अयोध्या जाकर अवधि (14 वर्ष) भर उसका पालन करो। देश, खजाना, कुटुम्ब, परिवार आदि सबकी जिम्मेदारी तो गुरु जी के चरण-रज पर है। तुम तो मुनि वशिष्ठ जी, माताओं और मंत्रियों की शिक्षा मानकर पृथ्वी, प्रजा और राजधानी का पालन अर्थात रक्षा करो।
मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान-पान कहुं एक।
पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक।
राज धरम सरबसु एतनोई, जिमि मन माहं मनोरथ गोई।
बंधु प्रबोधु कीन्ह बहु भांती, बिनु अधार मन तोषु न सांती।
भरत सील गुर सचिव समाजू, सकुच सनेह बिबस रघुराजू।
प्रभु करि कृपा पांवरी दीन्ही, सादर भरत सीस धरि लीन्ही।
चरन पीठ करुनानिधान के, जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के।
संपुट भरत सनेह रतन के, आखर जुग जनु जीव जतन के।
कुल कपाट कर कुसल करम के, बिमल नयन सेवा सुधरम के।
भरत मुदित अवलंब लहे ते, अस सुख जस सिय रामु रहे तें।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि प्रभु श्री राम ने भरत को बताया कि मुखिया मुख के समान होना चाहिए जो खाने-पीने को तो एक अकेला है लेकिन बिवेक पूर्वक सब अंगों का पालन पोषण करता है। उन्होंने कहा राजधर्म का सार इतना ही है, जैसे मन के भीतर मनोरथ छिपा रहता है। श्री रघुनाथ जी ने भाई भरत को बहुत प्रकार से समझाया लेकिन कोई ठोस अवलंबन के भरत जी के मन को संतोष नहीं हो रहा है क्योंकि वे अयोध्या के लिए श्रीराम व सीता-लक्ष्मण को लेकर नहीं जा पा रहे तो कोई ठोस वस्तु चाहिए। इसलिए उनके मन में शांति नहीं है। श्रीराम देखते हैं कि इधर तो भरत जी का शील, प्रेम और उधर, गुरुजनों, मंत्रियों तथा समाज की उपस्थिति। यह देखकर श्री रघुनाथ जी संकोच तथा स्नेह के वशीभूत हो गये। अंत में भरत जी के प्रेम वश प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने ठोस अवलंबन के रूप में अपनी खड़ाऊं दे दीं और भरत ने उन्हें आदर पूर्वक सिर पर धारण कर लिया। करुणानिधान श्री रामचन्द्र जी के दोनों खड़ाऊं प्रजा के प्राणों की रक्षा के लिए मानो दो पहरेदार हैं, भरत जी के प्रेम रूपी रत्न को रखने के मानों दो डिब्बे हैं और जीव के साधन के लिए मानो राम नाम के दो अक्षर हैं। रघुकुल की रक्षा के लिए मानो दो किवाड़े (पल्ले) हैं। कुशल (श्रेष्ठ) कर्म करने के लिए दो हाथ की भांति सहायक हैं और सेवा रूपी श्रेष्ठ धर्म को देखने के लिए दो निर्मल नेत्र हैं। भरत जी इस सहारे (अवलंब) के मिलने से परम आनंदित हैं। उन्हें ऐसा ही सुख हुआ, जैसा श्रीराम और सीता के साथ रहने का होता। -क्रमशः (हिफी)

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