
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
श्रीराम के समझाने पर भरत जी संतुष्ट हो जाते हैं और तीर्थों का पानी एक कुएं में अत्रि मुनि के निर्देश पर उड़ेल दिया जाता है। वही भरत कूप तीर्थ बना है। भरत जी वन में विचरण करते हैं। ऋषि-मुनियों से मिलकर उनका आशीर्वाद लेते हैं। इसके बाद अयोध्या वापस जाने की तैयारी होने लगती है। भरत जी कहते हैं कि हे प्रभु अब मुझे आज्ञा दीजिए जिससे 14 वर्ष की अवधि तक अयोध्या की सेवा करूं। रामायण काल में राजा अपने को प्रजा का सेवक ही समझता था इसलिए भरत जी ने कहा कि 14 वर्ष तक मैं
अयोध्या की सेवा करूंगा राज्य नहीं। आज तो सरकार अपने को राजा ही समझती है, सिर्फ कहती है कि मैं सेवक हूं। इस प्रसंग में यही बताया गया है। अभी तो भरत जी वन में विचरण कर रहे हैं-
कुस कंटक कांकरी कुराई, कटुक कठोर कुवस्तु दुराई।
महि मंजुल मृदु मारग कीन्हें, बहत समीर त्रिविध सुख लीन्हे।
सुमन बरषि सुर घन करि छाहीं, बिटप फूलि फलि तृन मृदुताहीं।
मृग बिलोकि खग बोलि सुबानी, सेवहिं सकल राम प्रिय जानी।
सुलभ सिद्धि सब प्राकृतहु राम कहत जमुहात।
राम प्रान प्रिय भरत कहुं यह न होइ बड़ि बात।
भरत जी के वन मे ंविचरण करते समय पृथ्वी के कुश, कांटे, कंकड़, दरारे आदि कड़वी, कठोर और बुरी वस्तुओं को छिपा लिया, और सुंदर कोमल मार्ग कर दिये। सुखदायक शीतल, मंद और सुगंध वायु चलने लगी। रास्ते में देवता फूल बरसाकर और बादल छाया करके, वृक्ष फल और फूलों से तथा तृण अपनी कोमलता से, मृग (पशु) भरत को देखकर और पक्षी अपनी सुंदर वाणी से भरत को श्रीराम का प्रिय समझकर सेवा कर रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जब एक साधारण मनुष्य को श्रीराम कहकर जमाई लेने से ही सब सिद्धियां सुलभ हो जाती हैं, तब रामचन्द्र जी के प्राण प्यारे भरत जी के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है।
एहि विधि भरतु फिरत बन माहीं, नेमु प्रेमुलखि मुनि सकुचाहीं।
पुन्य जलाश्रय भूमि विभागा, खग मृग तरु तृन गिरि वन बागा।
चारू विचित्र पवित्र बिसेषी, बूझत भरतु दिव्य सब देखी।
सुनि मनमुदित कहत रिषि राऊ, हेतु नाम गुन पुन्य प्रभाऊ।
कतहुं निमज्जन कतहुं प्रनामा, कतहुं बिलोकत मन अभिरामा।
कतहुं बैठि मुनि आयसु पाई, सुमिरत सीय सहित दोउ भाई।
देखि सुभाउ सनेहु सुसेवा, देहिं असीस मुदित बन देवा।
फिरहिं गएं दिनु पहर अढ़ाई, प्रभु पद कमल बिलोकहिं आई।
देखे थल तीरथ सकल भरत पाच दिन मांझ।
कहत सुनत हरिहर सुजसु गयउ दिवस भइ सांझ।
इस प्रकार भरत जी वन में विचरण कर रहे हैं उनके नियम और प्रेम को देखकर मुनि भी सकुचा जाते हैं। पवित्र जल के स्थान (नदी, बावली, कुंड आदि) पृथ्वी के पृथक-पृथक भाग, पक्षी, पशु, वृक्ष, तृण (घास), पर्वत, वन और बगीचे सभी विशेष रूप से सुंदर, विचित्र, पवित्र और दिव्य देखकर भरत जी पूछते हैं और उनका प्रश्न सुनकर ऋषिराज अत्रि प्रसन्न मन से सबके कारण, नाम, गुण और पुण्य प्रभाव को बताते हैं। भरत जी कही स्नान करते हैं, कहीं प्रणाम करते हैं, कहीं मनोहर स्थलों के दर्शन करते हैं और कहीं मुनि अत्रि की आज्ञा पाकर बैठ जाते हैं और श्रीराम व सीता-लक्ष्मण का स्मरण करते हैं। भरत जी के स्वभाव प्रेम और सुंदर सेवा भाव को देखकर वन देवता आनंदित होकर आशीर्वाद देते हैं यों घूम फिर कर ढाई पहर दिन बीतते ही लौट पड़ते हैं और आकर प्रभु श्री रघुनाथ का दर्शन करते हैं। इस प्रकार भरत जी ने पांच दिन में सब तीर्थ स्थानों के दर्शन कर लिये। भगवान बिष्णु और महादेव जी का सुंदर यश कहते-सुनते वह पांचवां दिन भी बीत गया और संध्या हो गयी।