अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

सीता सहित अनुज प्रभु आवत

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

अयोध्या मंे सभी लोग श्रीराम की प्रतीक्षा कर रहे हैं। भरत जी की व्याकुलता का कोई ठिकाना नहीं। उन्हें लगता है कि प्रभु श्रीराम ने मुझे कुटिल समझकर बिसरा दिया है। सभी लोग यही कल्पना कर रहे हैं कि जैसे अभी कोई कहेगा कि प्रभु श्रीराम अयोध्या आ गये। प्रभु श्रीराम ने हनुमान जी को अयोध्या भेजा था और कहा था कि तुम ब्राह्मण का वेश बनाकर श्री भरत का समाचार ले आओ और उन्हें मेरे आगमन की सूचना भी दे दो। हनुमान जी ब्राह्मण के वेश में आकर भरत जी को देखते हैं कि किस तरह वे प्रभु श्रीराम का भजन कर रहे हैं। हनुमान जी बहुत प्रसन्न होते हैं और कहते हैं कि हे भरत जी आप जिसके वियोग में दिन रात सोचते हैं और उनका निरंतर स्मरण करते हैं वे प्रभु श्रीराम भाई लक्ष्मण और जानकी जी के सहित आ रहे हैं। इस समाचार से भरत जी और अयोध्या के लोग किस तरह प्रसन्न हुए, यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो हनुमान जी भरत जी के पास पहुंचे-
बैठे देखि कुसासन जटा मुकुट कृसगात।
राम राम रघुपति जपत स्रवत नयन जलजात।
देखत हनूमान अति हरषेउ, पुलक गात लोचन जल बरषेउ।
मनमहं बहुत भांति सुख मानी, बोलेउ श्रवन सुधा सम बानी।
जासु बिरहं सोचहु दिन राती, रटहु निरंतर गुनगन पाती।
रघुकुल तिलक सुजन सुख दाता, आयउ कुसल देव मुनि त्राता।
रिपु रन जीति सुजस सुर गावत, सीता सहित अनुज प्रभु आवत।
सुनत बचन बिसरे सब दूखा, तृषावंत जिमि पाइ पियूषा।
हनुमान जी ने देखा कि दुर्बल शरीर भरत जी, जटाओं का मुकुट बनाए राम-राम रघुपति जपते और कमल के समान नेत्रों से अश्रु बहा रहे हैं। वे कुशा के आसन पर बैठे थे। श्रीराम के प्रति उनका अनन्य प्रेम देखकर हनुमान जी अत्यंत हर्षित हुए, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों से प्रेमाश्रु बरसने लगे। मन में बहुत प्रकार से सुख मानकर हनुमान जी ने अमृत के समान वाणी में कहा-हे भरत जी जिनकी विरह में आप दिन रात सोचा करते हैं और जिनके गुण समूहों की पंक्तियों को आप निरंतर रटते रहते हैं वे ही रघुकुल के तिलक, सज्जनों को सुख देने वाले और देवताओं तथा मुनियों के रक्षक श्रीराम जी सकुशल आ गये। हनुमान जी ने कहा शत्रु को (रावण को) रण में जीतकर सीता जी और लक्ष्मण जी सहित प्रभु आ रहे हैं। देवता उनका सुंदर यश गा रहे हैं।
ये बचन सुनते ही भरत जी सारे दुख भूल गये, जैसे प्यासा आदमी अमृत पाकर प्यास के दुख को भूल जाए।
को तुम तात कहां ते आए, मोहि परम प्रिय बचन सुनाए।
मारुत सुत मैं कपि हनुमाना, नामु मोर सुनु कृपा निधाना।
दीनबंधु रघुपति कर किंकर, सुनत भरत भेंटेउ उर सादर।
मिलत प्रेम नहिं हृदय समाता, नयन स्रवत जल पुलकित गाता।
कपि तव दरस सकल दुख बीते, मिले आजु मोहि राम पिरीते।
बार-बार बूझी कुसलाता, तो कहुं देउं काह सुनु भ्राता।
यहि संदेस सरिस जग माही, करि बिचारि देखेउं कछु नाही।
नाहिन तात उरिन मैं तोही, अब प्रभु चरित सुनावहु मोही।
तब हनुमंत नाइ पद माथा, कहे सकल रघुपति गुनगाथा।
भरत जी हनुमान जी के वचन सुनकर बहुत हर्षित हुए लेकिन पहचान नहीं पाए क्योंकि हनुमान जी प्रभु राम के निर्देश पर ब्राह्मण का वेश बनाकर आए थे। हनुमान जी भरत से पहले भी मिल चुके हैं जब संजीवनी बूटी लेकर अयोध्या के ऊपर से जा रहे थे और भरत जी ने बिना फल का तीर मारकर उन्हें पृथ्वी पर गिरा दिया था। प्रभु श्रीराम भी यह बात जानते थे, इसीलिए हनुमान को ब्राह्मण के वेश में जाने को कहा था। बहरहाल, भरत जी यह संदेश सुनकर बहुत प्रसन्न हुए और आतुरता से पूछने लगे कि हे भाई तुम कौन हो और कहां से आकर मुझे परम प्रिय बचन सुना रहे हो। हनुमान जी ने कहा हे कृपा निधान सुनिए मैं पवन का पुत्र और जाति का वानर हूं, मेरा नाम हनुमान है। मैं दीनों के वंधु श्री रघुनाथ जी का दास हूं। यह सुनते ही भरत जी उठकर आदरपूर्वक हनुमान जी के गले लग गये। गले मिलते उनका प्रेम हृदय में नहीं समाता है। नेत्रों से आनंद और प्रेम के अश्रु बह रहे हैं और शरीर पुलकित हो गया। भरत जी ने कहा-हे हनुमान तुम्हारे दर्शन से मेरे समस्त दुख समाप्त हो गये, तुम्हारे रूप में आज हमें श्रीराम जी मिल गये हैं। भरत जी ने बार-बार कुशल पूछी और कहा हे भाई, इस शुभ
संवाद के बदले में तुम्हें क्या दूं। इस संदेश के समान, इसके बदले में देने के लिए जगत में कोई पदार्थ मुझे नहीं दिखता। मैंने यह विचार कर देख लिया है।
इसलिए हे तात मैं तुमसे किसी प्रकार उऋण नहीं हो सकता। अब मुझे प्रभु का हाल बताओ, तब हनुमान जी ने भरत जी के चरणों में मस्तक नवाकर श्रीराम जी की पूरी गाथा कही। सीताहरण और लक्ष्मण जी को शक्ति लगने की बात तो हनुमान जी पहले ही बता चुके थे बाद में रावण वध और विभीषण के राजतिलक की कथा हनुमान जी ने सुनायी। यह सुनने के बाद भरत जी कहते हैं-
कहु कपि कबहुं कृपाल गोसाईं, सुमिरहिं मोहि दास की नाईं।
निज दास ज्यों रघुवंस भूषन, कबहुं मम सुमिरन कर्यो।
सुनि भरत बचन विनीत अति कपि पुलकि तन चरनन्हि पर्यो।
रघुवीर निज मुख जासु गुन गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ विनीत परम पुनीत सद्गुन सिंधु सो।
राम प्रान प्रिय नाथ तुम्ह सत्य बचन मम तात।
पुनि पुनि मिलत भरत सुनि हरष न हृदय समात।
हे हनुमान (कपि), कृपालु स्वामी श्रीरामचन्द्र जी कभी मुझे अपने दास की तरह याद भी करते हैं। भरतजी कहते हैं कि रघुवंश के भूषण श्रीराम जी क्या कभी अपने सेवक की भांति मेरा स्मरण करते रहे हैं? भरत जी के अत्यंत नम्र बचन सुनकर हनुमान जी पुलकित शरीर होकर उनके चरणों पर गिर पड़े और मन में विचारने लगे कि चराचर के स्वामी हैं श्री रघुवीर जी और अपने मुख से भरत जी के गुण समूहों का वर्णन करते हैं तो भरत जी ऐसे विनम्र, परम पवित्र और सद्गुणों के समुद्र क्यों न हों?
यही विचार कर हनुमान जी ने कहा कि हे नाथ आप श्री रामजी को प्राणों के समान प्रिय हो। हे नाथ मेरा बचन सत्य है। यह सुनकर भरत जी बार-बार हनुमान जी से गले मिलते हैं, उनके हृदय में खुशी समा नहीं रही है।
भरत चरन सिरु नाइ तुरित गयउ कपि राम पहि।
कही कुसल सब जाइ, हरषि चलेउ प्रभु जान चढ़ि।
भरत जी के चरणों में सिर नवाकर हनुमान जी तुरंत ही श्रीराम जी के पास लौट आए और भरत जी की कुशल प्रभु को सुनाई। प्रभु श्रीराम हर्षित होकर पुष्पक विमान पर च़ढ़कर अयोध्या की तरफ चल पड़े। -क्रमशः (हिफी)

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