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विपरीत बुद्धि का सर्वथा करें त्याग

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (अट्ठारहवां अध्याय-15)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक

अधर्म धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान्विपरीतांश्व बुद्धिः सा पार्थ तामसी।। 32।।
प्रश्न-अधर्म को धर्म मानना क्या है और धर्म को अधर्म मानना क्या है?
उत्तर-ईश्वर निन्दा, देव निन्दा, शाó विरोध, माता-पिता, गुरू आदि का अपमान, वर्णाश्रम धर्म के प्रतिकूल आचरण, असन्तोष, दम्भ, कपट, व्यभिचार, असत्य भाषण, परपीड़न, अभक्ष्य भोजन, यथेच्छाचार और पर-सत्त्वापहरण आदि निषिद्ध पाप कर्मों को धर्म मान लेना और वृत्ति, क्षमा, मनोनिग्रह, अस्तेय, शौच, इन्दिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य अक्रोध, ईश्वर पूजन, देवोपासना, शाó सेवन, वर्णश्रम धर्मानुसार आचरण, माता-पिता आदि गुरुजनों की आज्ञा का पालन, सरलता, ब्रह्मचर्य, सात्त्विक भोजन, अहिंसा और परोपकार आदि शाó विहित पुण्य कर्मों को अधर्म मानना यही अधर्म को धर्म और धर्म को अधर्म मानना है।
प्रश्न-अन्य सब पदार्थों को विपरीत मान लेना क्या है?
उत्तर-अधर्म को धर्म मान लेने की भाँति ही अकर्तव्य को कर्तव्य, दुःख को सुख, अनित्य को नित्य, अशुद्ध को शुद्ध और हानि को लाभ मान लेना आदि जितना भी विपरीत ज्ञान है-वह सब अन्य पदार्थों को विपरीत मान लेने के अन्तर्गत है।
प्रश्न-वह बुद्धि तामसी है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि तमोगुण से ढकी रहने के कारण जिस बुद्धि की विवेक शक्ति सर्वथा लुप्त सी हो गयी है, इसी कारण जिसके द्वारा प्रत्येक विषय में बिल्कुल उलटा निश्चय होता है, वह बुद्धि तामसी है। ऐसी बुद्धि मनुष्य को अधोगति मंे ले जाने वाली है। इसलिये कल्याण चाहने वाले मनुष्यों को इस प्रकार की विपरीत बुद्धि का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।
योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी।। 33।।
प्रश्न-यहाँ अव्यभिचारिण्या विशेषण के सहित धृत्या पद किसका वाचक है? और उससे ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करना क्या है?
उत्तर-किसी भी क्रिया, भाव या वृत्ति को धारण करने की उसे दृढ़तापूर्वक स्थिर रखने की जो शक्ति विशेष है, जिसके द्वारा धारण की हुई कोई भी क्रिया, भावना या वृत्ति विचलित नहीं होती, प्रत्युत चिरकाल तक स्थिर रहती है, उस शक्ति का नाम धृति है, परन्तु इसके द्वारा मनुष्य जब तक भिन्न-भिन्न उद्देश्यों से नाना विषयों को धारण करता रहता है, तब तक इसका व्यभिचार दोष नष्ट नहीं होता जब इसके द्वारा मनुष्य अपना एक अटल उद्देश्य स्थिर कर लेता है, उस समय यह ‘अव्यभिचारिणी’ हो जाती है। सात्त्विक धृति का एक ही उद्देश्य होता है। परमात्मा को प्राप्त करना। सी कारण उसे ‘अव्यभिचारिणी’ कहते हैं। इसी प्रकार की धारण शक्ति का वाचक यहाँ ‘अव्यभिचारिण्या’ विशेषण के सहित धृत्या पद है। ऐसी धारण शक्ति से जो परमात्मा को प्राप्त करने के लिये ध्यान योग द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को अटल रूप से परमात्मा से रोके रखना है-यही उपर्युक्त धृति से ध्यान योग के द्वारा मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करना है।
प्रश्न-वह धृति सात्त्विकी है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे यह भाव दिखलाया गया है कि जो धृति परमात्मा की प्राप्ति रूप एक ही उद्देश्य से सदा स्थिर रहती है, जो अपने लक्ष्य से कभी विचलित नहीं होती, जिसके भिन्न-भिन्न उद्देश्य नहीं हैं तथा जिसके द्वारा मनुष्य परमात्मा की प्राप्ति के लिये मन और इन्द्रिय आदि को परमात्मा में लगाये रखता है और किसी भी कारण से उनको विषयों में आसक्त और चंचल न होने देकर सदा-सर्वदा अपने वश में रखता है। ऐसी धृति सात्त्विक है। इस प्रकार की धारण शक्ति मनुष्य को शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति करने वाली होती है। अतएव कल्याण चाहने वाले पुरुष को चाहिये कि वह अपनी धारण शक्ति को इस प्रकार सात्त्विक बनाने की चेष्टा करे।
यया तु धर्मकामार्थानधृत्या धारयतेऽर्जुन।
प्रसंगेन फलाकांक्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।। 34।।
प्रश्न-‘फलाकांगी’ पद कैसे मनुष्य का वाचक है तथा ऐसे मनुष्य का धारण शक्ति के द्वारा अत्यन्त आसक्ति से धर्म, अर्थ और काम इन तीनों को धारण करना क्या है?
उत्तर-फलाकांक्षी पद कर्मों के फल रूप इस लोक और परलोक के विभिन्न प्रकार के भोगों की इच्छा करने वाले सकाम मनुष्य का वाचक है। ऐसे मनुष्य का जो अपनी धारण शक्ति के द्वारा अत्यन्त आसक्ति पूर्वक धर्म का पालन करना है-यही उसका धृति के द्वारा धर्म को धारण करना है एवं जो धनादि पदार्थों और उनसे सिद्ध होने वाले भोगों को ही जीवन का लक्ष्य बनाकर अत्यन्त आसक्ति के कारण दृढ़तापूर्वक उनको पकड़े रखना है, यही उसका धृति के द्वारा अर्थ और कामों को धारण करना है।
प्रश्न-वह धारण शक्ति राजसी है, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इस कथन से यह भाव दिखलाया गया है कि जिस धृति के द्वारा मनुष्य मोक्ष के साधनों की ओर कुछ भी ध्यान न देकर केवल उपर्युक्त प्रकार से धर्म, अर्थ और काम-इन तीनों को ही धारण किये रहता है, वह धृति रजोगुण से सम्बन्ध रखने वाली होने के कारण राजसी है, क्योंकि आसक्ति और कामना-ये सब रजोगुण के ही कार्य हैं। इस प्रकार की धृति मनुष्य को कर्मों द्वारा बाँधने वाली है, अतएव कल्याणकामी मनुष्य को चाहिये कि अपनी धारण शक्ति को राजसी न होने देकर सात्त्विकी बनाने की चेष्टा करे।
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।
न विमुञश्वति दुर्गेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।। 35।।
प्रश्न-‘दुर्मेधाः‘ पद कैसे मनुष्य का वाचक है तथा यहाँ इसके प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-जिसकी बुद्धि अत्यन्त मन्द और मलिन हो, जिसके अन्तःकरण में दूसरों का अनिष्ठ करने आदि के भाव भरे रहते हों-ऐसे दुष्टबुद्धि मनुष्य का वाचक दुर्मेधाः पद है इसका प्रयोग करके यह भाव दिखलाया गया है कि ऐसे मनुष्यों में तामसी धृति हुआ करती है।-क्रमशः (हिफी)

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