अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-1

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-1 के श्लोक 36 से 47 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः।।36।।
क्योंकि अगर मैं अपने गोत्र वालों का वध करूँगा, तो मैं दोष का भागी बनूँगा। साथ ही आप भी मेरे हाथ से निकल जाएँगे। कुल का नाश करने से अनेक पाप जागते है। ऐसे समय आपको कौन और कैसे पाएगा? जिस प्रकार बगीचे में आग जलाने पर कोयल पक्षी क्षण् भर के लिए भी वहाँ नहीं ठहरती, अथवा सरोवर कीचड़ से भर जाने पर वहाँ चकोर वास नहीं करता बल्कि उसका तिरस्कार कर वहाँ से चला जाता है उसी प्रकार हे देव, मेरा पुण्य का अंश समाप्त होने पर आप मुझे अपनी कृपा से वंचित कर देंगे।

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान् स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव।।37।।
इसलिए यह काम मैं कदापि नहीं करूँगा तथा इस समर भूमि में हाथ में शस्त्र भी नहीं उठाऊँगा, क्योंकि यह कार्य अनेक प्रकार से निन्दनीय है, ऐसा मेरा विचार है। हे कृष्ण! जब आपसे हमारा वियोग हो जाएगा, तो फिर हमारा महŸव ही क्या रह जाएगा। तुम्हारे बिना हमें जो दुःख होगा, उससे हमारा हृदय विदीर्ण हो जाएगा। इसलिए हे देव! हम कौरवों का नाश करें और राज्य का उपभोग करें, यह मुझसे न होने वाली बात है।

यद्यप्येते न पश्चन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्।।38।।
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्न्ािवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्य˜िर्जनार्दन।।39।।
ये कौरव अभिमान से उन्मुक्त होकर भले ही युद्ध करने आए हों, लेकिन हमें तो अपने हितों की रक्षा करनी होगी। अपने गोत्र वालों की हत्या मैं क्यों करूँ? समझ बूझकर विष क्यों ग्रहण किया जाए? अगर सामने से सिंह आ रहा हो तो उससे बचकर निकल जाने में ही भलाई है। जो प्रकाश सामने दिखाई दे रहा है, उसे छोड़कर, जानबूझकर अंधेरे कुएँ में जाकर बैठने में कौन सा लाभ है? या फिर सामने आग जल रही हो तो उससे हम दूर न हटें तो वह आग क्षण भर में हमें अपनी लपेट में ले लेगी। उसी प्रकार जब हम जानते हैं तो फिर हम वैसा काम करने के लिए ही क्यों प्रवृŸा हों? अर्जुन ने श्री कृष्ण से आगे कहा-‘यह पाप कितना बड़ा है, यह मैं तुम्हें बताता हूँ। सुनो।’

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत।।40।।
जिस प्रकार लकड़ी पर लकड़ी का घर्षण करने से अग्नि उत्पन्न होती है और आग लगने पर सारी लकड़ियाँ जल जाती है, उसी प्रकार एक ही गोत्र के लोग जब द्वेष के कारण एक दूसरे का घातक करने लगते हैं तो उस भयानक महादोष के कारण पूरे कुल का विनाश हो जाता है। इस कुल क्षय के पाप के कारण कुल धर्म नष्ट हो जाता है और फिर उस कुल में अधर्म का प्रवेश हो जाता है।

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वाष्र्णोय जायते वर्णसंकरः।।41।।
जब ऐसी अवस्था हो जाती है, तो भले और बुरे का विचार करना ही असम्भव हो जाता है। कर्तव्य और अकर्तव्य आदि नष्ट हो जाते हैं। दीपक होते हुए भी जो अंधेरे में भटकता है, वह सहज ही सीधे सादे रास्ते में भी लड़खड़ाकर गिर पड़ता है और चोट खाता है। उसी प्रकार जब कुल का क्षय हो जाता है, उस समय सनातन कुल धर्म लुप्त हो जाता है। फिर उस कुल में पाप के सिवाय और क्या रह जाएगा? उस समय मन और इन्द्रियों पर कोई बन्धन नहीं रह जाता। इन्द्रियाँ मनमाने ढ़ग से व्यवहार करने लगती हैं। इससे कुलीन स्त्रियाँ पापाचरण में लिप्त हो जाती हैं। उŸाम स्त्रियाँ अधम पुरूषों से संगत करने लगती है। जाति धर्म जड़ से नष्ट हो जाते हैं। ऐसे कुलों में महापापों का संचार होने लगता है।

संकरो नरकायैव कुलध्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषं लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।42।।
फिर उन कुलों को तथा उन कुलों का नाश करने वालें दोनों को ही नरक में जाना पड़ता है। फिर सारे वंश की वृद्धि रूक जाती है और उस कुल में स्वर्ग में निवास करने वाले पितर भी अपने आप गिर पड़ते है। जिस कुल में नित्य तथा नैमिŸिाक कर्म
नहीं होते वहाँ पितरों को तिलोदक कौन अर्पण
करेगा? ऐसी अवस्था में वे स्वर्ग में कैसे रहेंगे? निकट सम्बन्धियों का वध करने से उत्पन्न होने वाला पाप, सत्य लोक में पहुँचे सभी पूर्वजों को पतित कर
देता है।

दोषैरेतैः कुलध्नानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः।।43।।
उत्सन्न्ाकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम।।44।।
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः।।45।।
हे कृष्ण! यहाँ एक ओर महापातक भी होता है। इस दोष से लोकाचार नष्ट हो जाते हैं। उस कुल में अनेक प्रकार के दोष आ जाते हैं जिससे वह कुल नरक की यातना भुगतता है। यह सब हम अपने कान से सुनते हैं, फिर भी अपने मन में इससे भयभीत नहीं होते। अपने कुल का विनाश कर, जिस राजसुख की अभिलाषा की जाए, वह शरीर तो क्षणिक है। यह जानते हुए भी क्या हम कुल के क्षय करने का दोष निरन्तर करते रहें? हमारे सामने जो ये पूजनीय एवं बड़े लोग खड़े हैं, उनकी ओर हमने उनकी हत्या करने की दृष्टि से देखा, वही अपराध क्या कम है?

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्।।46।।
अब तो मैं सोचता हूँ कि जीवित रहने की अपेक्षा अपने शस्त्र फंेककर उनके बाणों का प्रहार सहन करूँ। ऐसा करने से यदि मृत्यु भी आ जाए तो वह भी ठीक ही है। लेकिन इनका वध कर पाप इकट्ठा करने की मेरी इच्छा नहीं है। मैं महापाप करना नहीं चाहता।

संजय उवाच
एवमुक्त्वार्जुनः सड्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्रमानसः।।47।।
संजय ने कहा-राजा धृतराष्ट्र सुनो! उस समर भूमि में अर्जुन ने ऐसी बातें कही। फिर वह नितांत दुःखी हो गया और अपनी उदासीनता को नहीं रोक सका। वह रथ में से नीचे कूद पड़ा। जिस प्रकार कोई राजकुमार पदच्युत हो जाने पर सर्वथा प्रभाहीन हो जाता है या राहु के कारण सूर्य में ग्रहण लग जाने पर वह जिस प्रकार कलाहीन हो जाता है अथवा महासिद्धि के लोभ में पड़ा हुआ तपस्वी भ्रमिष्ट हो जाता है तथा उस सिद्धि के सम्बन्ध में उसकी वह इच्छा उसके अन्तःकरण को दीन हीन कर देती है, उसी प्रकार धनुर्धर अर्जुन रथ पर से जब नीचे उतरा उस समय वह दुःख के कारण अत्यन्त व्याकुल दिखाई दे रहा था। संजय ने कहा-राजा! उसने धनुष बाण रख दिया और उसकी आँखों से निरन्तर अश्रुधारा बहने लगी। अब अर्जुन के इस प्रकार दुःखी हो जाने पर भगवान् कृष्ण उसे किस प्रकार तŸवज्ञान का ज्ञान कराएँगे, वह कथा उत्सुकता से अगले अध्याय में सुनेंगे, ऐसा श्री निवृत्तिनाथ के दास श्री ज्ञानेश्वर महाराज ने कहा।- क्रमशः (हिफी)

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