अध्यात्म

गीता ज्ञानधारा अध्याय-5

गीता ज्ञानधारा

(हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवद् गीता भारत के वेदान्त एवं उपनिषदों का सार है। इसमें मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य-तत्व ज्ञान की प्राप्ति हेतु ज्ञान योग, कर्म योग, भक्ति योग तथा क्रिया योग का पूर्ण रूप से विवेचन हुआ है। मनुष्य यह समझ सके कि वह केवल यह देह नहीं अपितु आत्मा है जिसका परम लक्ष्य परमानन्द ईश्वर तक पहुंचना है, यही गीता का मूल उद्देश्य है। गीता मनुष्य जीवन की समस्याओं का समाधान भी करती है। इसे पढ़कर मनुष्य गृहस्थ जीवन में रहकर प्रसन्नतापूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करता हुआ अहंकार तिरोहित कर मोक्ष की प्राप्ति भी कर सकता है। प्रस्तुत लेख में भगवद् गीता के अध्याय-5 के श्लोक 1 से 10 का संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित भावार्थ लोकहित में प्रसारित किया जा रहा है।

अर्जुन उवाच
सन्नयासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्।।1।।
अर्जुन श्री कृष्ण से कहते हैं – पहले आपने सारे कर्मों का त्याग करने के बारे में निरुपण किया, तो अब कर्म करने के लिए बार-बार आग्रह क्यों कर रहे हैं? यदि एक तत्व का बोध कराना हो तो केवल एक ही मार्ग के बारे में बतलाइए। यह भी बतलाइए कि इन दोनों मार्गों में उŸाम मार्ग कौन सा है?

श्रीभगवानुवाच
सन्न्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ।
तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।।2।।
भगवान बोले – हे कुन्तीपुत्र! कर्मयोग तथा कर्मत्याग ये दोनों ही मोक्षदायक हैं। इस संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए यह कर्मयोग वास्तव में सुलभ है। इसके आचरण करने से अनायास ही कर्म त्याग का फल मिल जाता है। यह कर्मयोग और कर्म सन्यास दोनों एक ही है।

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निद्र्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं
बन्धात्प्रमुच्यते।।3।।
जो खोई हुई वस्तु का स्मरण कर दुःखी नहीं होता, और कोई चीज न मिलने पर उसकी इच्छा नहीं करता, जिसके अन्तःकरण में ‘मैं’ और ‘मेरा’ इस प्रकार की भावना नहीं रहती, वह नित्य ही सन्यासी है, यह जान लो। ऐसे मनुष्य को गृहत्याग आदि कुछ भी नहीं करना पड़ता। जिसकी बुद्धि में ‘मैं कर्ता हूँ’ आदि अभिमान नहीं होता वह कर्म-बन्धन में नहीं पड़ता। जब मन की ‘मैं’ और ‘मेरा’ ये भावनाएँ नष्ट हो जाती हैे तभी सन्यास प्राप्त होता है। इसी कारण कर्मयोग और कर्मसन्यास दोनों एक समान है।

साड्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।4।।
जो सर्वथा अज्ञानी हैं वे ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं, ऐसा कहते हैं, लेकिन देखो! क्या अनेक दीपकों का प्रकाश भिन्न-भिन्न है? जिन्होंने समयक् ज्ञान से परब्रह्म स्वरूप का तत्व समझ लिया है, वे इन दोनों योगों को एक ही मानते हैं।

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्चति स पश्यति।।5।।
ज्ञानयोग से जो मोक्ष होता है वही कर्मयोग से भी होता है, इसलिए इन दोनों में सहज ही एकत्व है। दोनों में कोई भेद नहीं है। जिसने ऐसा जान लिया उसने ही आत्मस्वरूप देख लिया है।

सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुयोगतः।
योगयुक्तो मुनिब्र्रह्म नचिरेणाधिगच्छति।।6।।
जो कर्मयोग से मोक्षरूपी पर्वत पर चढ़ता है, वह उस पर्वत के ब्रह्मरूपी शिखर पर शीघ्र ही पहुँच जाता है अन्यथा जो कर्मयोग का आचरण नहीं करते है वे ज्ञान प्राप्ति की व्यर्थ ही इच्छा करते हैं।

योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।
सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते।।7।।
जिसने अपने मन को भ्रान्तियों से मुक्त करके, गुरु वाक्य से शुद्ध कर, आत्मस्वरूप में लीन कर लिया है, जिसका मन संकल्प से मुक्त होकर ब्रह्म स्वरूप मं मिल गया है, उसका मन एक देशीय भले ही लगता हो, लेकिन वह पूरे त्रिभुवन में स्थापित हो गया। फिर कर्ता, कर्म और क्रिया से ये बातें उसके स्वभाव से ही निकल जाती हैं। फिर उसके सारे कर्म, न करने जैसे हैं।

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तŸववित्।
पश्य´्शृण्वन्स्पृशंजिघ्रन्नश्रन्गच्छन्स्वप´्श्वसन्।।8।।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति
धारयन्।।9।।
हे पार्थ! जब उसके शरीर में आत्मबुद्धि का ही स्मरण नहीं होगा तो फिर उसमें ‘मैं कर्ता हूँ’ का अभिमान कहाँ से आ पाएगा? उसमें निराकार ब्रह्म के सभी गुण दिखलाई पड़ते हैं। वह देखता, सुनता हुआ भी शरीर के भावों में लिप्त नहीं होता। उसे स्पर्श का अनुभव होता है, वह नाक से सुगन्ध लेता है और समयोचित भाषण भी कर सकता है, वह भोजन करता है, जिसका त्याग करना है उसे छोड़ देता है, नींद के समय आराम से सोता है, अपनी इच्छानुसार चलता है, साँस लेना और आँखें बन्द करना और खोलना आदि सारी बातें उसमें दिखाई देती हैं किन्तु आत्मानुभव के आधार पर वह कर्ता नहीं है।

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि संग त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।।10।।
जिस प्रकार दीपक के प्रकाश में घर के सारे व्यवहार चलते रहते हैं लेकिन दीपक उन सबसे अलिप्त रहता है, उसी प्रकार ज्ञानियों के द्वारा कर्म होते रहते है लेकिन वह कमल पत्र की भाँति उनसे लिप्त नहीं होता। वह कर्मों के बन्धन में नहीं फँसता। – क्रमशः (हिफी)

 

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