अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

गरुड़ जी ने कागभुशुंडि जी से कई प्रश्न एक साथ पूछ लिये लेकिन कागभुशुंडि जी को वे प्रश्न बहुत अच्छे लगे। प्रश्न करना हमारी भारतीय संस्कृति का एक अंग है, इससे ज्ञान का आदान-प्रदान भी होता है। कागभुशुंडि जी ने भी अपने गुरु से बहुत प्रश्न किये थे और इसी के फलस्वरूप उन्हें कौए का शरीर भी मिला था। कागभुशुंडि जी अपने इस शरीर के बारे में विस्तार से बता रहे हैं। पूर्व जन्म में वे क्या थे और कौए का शरीर कैसे पाया, यही प्रसंग यहां बताया जा रहा है।
पन्नगारि असि नीति श्रुति संमत सज्जन कहहिं।
अति नीचहु सन प्रीति, करिअ जानि निज परम हित।
पाट कीट ते होइ तेहि तें पाटंबर रुचिर।
कृमि पालइ सबु कोइ परम अपावन प्रान सम।
स्वारथ साँच जीव कहुँ एहा, मन क्रम बचन राम पद नेहा।
सोइ पावन सोइ सुभग सरीरा, जो तनु पाइ भजिअ रघुबीरा।
राम बिमुख लहि बिधि सम देही, कवि कोविद न प्रसंसहिं तेही।
राम भगति एहिं तन उरजामी, ताते मोहि परमप्रिय स्वामी।
तजउँ न तनु निज इच्छा मरना, तन बिनु बेद भजन नहिं बरना।
प्रथम मोहँ मोहि बहुत बिगोवा, राम बिमुख सुख कबहुँ न सोवा।
नाना जनम कर्म पुनि नाना, किए जोग जप तप मख दाना।
कवन जोनि जनमेउँ जहँ नहीं, मैं खगेस भ्रमि भ्रमि जगमाहीं।
देखेउँ करि सब करम गोसाईं, सुखी न भयउँ अबहिं की नाईं।
सुधि मोहि नाथ जन्म बहु केरी, सिव प्रसाद मति मोहँ न घेरी।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे गरुड़ जी, वेदों में मानी हुई ऐसी नीति है और सज्जन भी कहते हैं कि अपना परम हित जानकर अत्यंत नीच से भी प्रेम करना चाहिए। रेशम कीड़े से पैदा होता है, उससे सुंदर रेशमी वस्त्र बनते हैं। इसी से उस परम अपवित्र कीड़े को भी सब कोई प्राणों के समान पालते हैं। जीव के लिए सच्चा स्वार्थ यही है कि मन, वचन और कर्म से श्री राम जी के चरणों में प्रेम हो। वही शरीर पवित्र और सुंदर है, जिस शरीर को पाकर श्री रघुबीर जी का भजन किया जाए। इसके विपरीत जो श्रीराम जी के बिमुख हैं, वे यदि ब्रह्मा जी के समान शरीर पा जाएं तो भी कवि और पंडित उनकी प्रशंसा नहीं करते। इसी शरीर से मेरे हृदय में रामभक्ति उत्पन्न हुई, इसी से हे स्वामी यह शरीर मुझे परम प्रिय है। मेरा मरण अपनी इच्छा पर है लेकिन फिर भी मैं यह शरीर नहीं छोड़ता क्योंकि वेदों ने वर्णन किया है कि शरीर के बिना भजन नहीं होता। पहले मोह ने मेरी बड़ी दुर्दशा की। श्रीराम जी के बिमुख होकर मैं कभी सुख से नहीं हो सका। अनेक जन्मों में मैंने अनेक प्रकार के योग, जप, तप, यज्ञ और दान आदि कर्म किये। हे गरुड़ जी, जगत में ऐसी कौन यौनि है, जिसमें मैंने बार-बार, घूम-फिर कर जन्म न लिया हो। हे गोसाईं, मैंने सब कर्म करके देख लिये, पर अब (इस जन्म) की तरह मैं कभी सुखी नहीं हुआ। हे नाथ, मुझे बहुत से जन्मों की याद है क्योंकि श्री शिवजी की कृपा से मेरी बुद्धि को मोह ने नहीं घेरा।
प्रथम जन्म के चरित अब कहउँ सुनहु बिहगेस।
सुनि प्रभु पद रति उपजइ जातें मिटहिं कलेस।
पुरुब कल्प एक प्रभु जुग कलिजुग मल मूल।
नर अरु नारि अधर्म रत सकल निगम प्रतिकूल।
तेहिं कलिजुग कोसलपुर जाई, जन्मत भयउँ सूद्र तनु पाई।
सिव सेवक मनक्रम अरु बनी, आन देव निंदक अभिमानी।
धन मद मत्त परम वाचाला, उग्र बुद्धि उर दंभ विसाला।
जदपि रहेउँ रघुपति रजधानी, तदपि न कछु महिमा तब जानी।
अब जाना मैं अवध प्रभावा, निगमागम पुरान अस गावा।
कवनेहुँ जन्म अवध बस जोई, राम परायन सो परि होई।
अवध प्रभाव जान तब प्रानी, जब उर बसहिं रामु धनु पानी।
सो कलिकाल कठिन उरगारी, पाप परायन सब नर नारी।
कागभुशुंडि जी गरुड़ जी से कहते हैं कि हे पक्षीराज सुनिए, अब मैं अपने प्रथम जन्म के चरित्र कह रहा हूं, जिन्हें सुनकर प्रभु श्रीराम के चरणों में प्रीति उत्पन्न होती है और उससे सभी क्लेश मिट जाते हैं। हे प्रभो, पूर्व के एक कल्प (युग) में पापों का मूल युग कलियुग था, जिसमें पुरुष और स्त्री सभी अधर्म परायण और वेद-विरोधी थे। उसी कलियुग में अयोध्यापुरी में मैं शूद्र का शरीर पाकर जन्मा। मैं मन, वचन और कर्म से शिव जी का सेवक और दूसरे देवताओं की निंदा करने वाला अभिमानी था। मैं धन के मद से मतवाला बहुत ही बकवादी और उग्र बुद्धि वाला था। मेरे हृदय में बड़ा भारी दंभ था। यद्यपि मैं श्री रघुनाथ जी की राजधानी में रहता था, तथापि मैंने उस समय उसकी महिमा कुछ भी नहीं जानी। अब मैं अवध का प्रभाव जान गया हूं। वेद, शास्त्र और पुराणों ने ऐसा गाया है कि किसी भी जन्म में जो कोई भी अयोध्या में बस जाता है, वह अवश्य ही श्रीराम जी का भक्त हो जाएगा। अवध का प्रभाव जीव तभी जानता है, जब हाथ में धनुष धारण करने वाले श्रीराम जी उसके हृदय में निवास करते हैं। हे गरुड़ जी, वह कलियुग बड़ा कठिन था। उसमें सभी नर-नारी पाप परायण अर्थात पापों में ही लिप्त रहते थे।
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सद् गं्रथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।
भए लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म।
सुनु हरिजान ग्याननिधि कहउँ कछुक कलिधर्म।
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी, श्रुति विरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन, कोउनहिं मान निगम अनुसासन।
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा, पंडित सोइ जो गाल बजावा।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई, ता कहुं संत कहइ सब कोई।
उस कलियुग के पापों ने सभी धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गये। दंभियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिये। सभी लोग मोह के वश हो गये, शुभ कर्मों को लोभ ने हड़प लिया। हे ज्ञान के भंडार, हे श्री हरि के वाहन सुनिए, अब मैं कलियुग के कुछ धर्म कह रहा हूं। कलियुग में न वर्ण धर्म रहता है, न चारों आश्रम रहते हैं सब पुरुष-स्त्री वेदों के विरोध में लगे रहते हैं। ब्राह्मण वेदों को बेचने वाले और राजा प्रजा को खा डालने वाले होते हैं अर्थात् ब्राह्मण वेदों से कमाई करते हैं और राजा प्रजा का शोषण करता है। वेद की आज्ञा कोई नहीं मानता,
जिसको जो अच्छा लग जाए, वही मार्ग है, जो डींग मारता है, वही
पंडित है जो आडम्बर रचता है और जो दम्भ में रत है, उसी को सभी संत कहते हैं। -क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button