
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
राक्षस राज रावण अनेक प्रकार से माया करते हुए प्रभु श्रीराम से लड़ता रहा। प्रभु के लिए यह क्रीड़ा थी लेकिन देवता गण बेचैन हो रहे थे और सीता जी को भी चिंता होने लगी थी हालांकि उन्हंे त्रिजटा ने समझा दिया था कि रावण की मौत कैसे होगी। यह उसकी धैर्य बंधाने की कला थी। इसी प्रकार समझाकर त्रिजटा ने सीता जी को आत्मदाह करने से रोका था। बहरहाल प्रभु श्रीराम ने भी समझ लिया कि अब रावण का वध कर देना चाहिए। उन्होंने अपने शरणागत मित्र विभीषण की परीक्षा भी ले ली कि वे कितने विश्वसनीय हैं। विभीषण जी प्रभु के विश्वास पर खरे उतरे और बता दिया कि रावण की नाभि में अमृत का निवास है। प्रभु तो सब कुछ जानते हैं फिर भी उन्होंने लीला को पूरा किया और 31 तीर मारकर एक तीर से रावण की नाभि से अमृत को खत्म किया तब उसके सिर और भुजाएं काटीं। रावण धरती पर जब गिरा तो पृथ्वी हिल उठी। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो विभीषण जी ने भेद बताया है-
सुनत विभीषन बचन कृपाला, हरषि गहे कर बान कराला।
असुभ होन लागे तब नाना, रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना।
बोलहिं खग जग आरति हेतू, प्रगट भए नभ जहं तहं केतू।
दस दिसि दाह होन अति लागा, भयउ परब बिनु रबि उपरागा।
मंदोदरि उर कंपति भारी, प्रतिमा स्रवहि नयन मग बारी।
प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभि अति सक को कही।
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर विकल बोलहिं जय जए।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए।
विभीषण के बचन सुनते ही कृपालु श्री रघुनाथ जी ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिये। उस समय नाना प्रकार के अप शकुन होने लगे। बहुत से गधे, सियार, कुत्ते रोने लगे। जगत के दुःख (अशुभ) को सूचित करने के लिए पक्षी बोलने लगे। आकाश में जहां-तहां केतु (पुच्छल तारे) प्रकट हो गये। दशों दिशाओं में अत्यंत दाह होने लगा अर्थात आग जलने लगी। बिना ही पर्व (तिथि) के सूर्य ग्रहण होने लगा। मंदोदरी का हृदय बहुत कांपने लगा। मूर्तियां नेत्र मार्ग से जल बहाने लगीं। इस प्रकार तरह-तरह के अपशकुन हो रहे हैं। मूर्तियां रो रही है, आकाश से वज्रपात होने लगा, अत्यंत वेग से हवा चलने लगी, पृथ्वी हिलने लगी, बादल रक्त, बाल और धूल की वारिश करने लगे। इस प्रकार इतने अधिक अमंगल होने लगे कि उनका वर्णन नहीं हो सकता। अपरिचित उत्पात देखकर आकाश में देवता
व्याकुल होकर जय जय पुकार उठे। देवताओं को भयभीत जानकर कृपालु श्री रघुनाथ जी धनुष पर वाण संघान करने लगे।
खैंचि सरासन श्रवन लगि छाड़े सर इकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुं काल फनीस।
सायक एक नाभि सर सोषा, अपर लगे भुज सिर करि रोषा।
लैं सिर बाहु चले नाराचा, सिर भुजहीन रुंड महि नाचा।
धरनि धसइ धर धाव प्रचंडा, तब सर हति प्रभु कृत दुइ खंडा।
गर्जेउ मरत घोर रव भारी, कहां रामु रन हतौं पचारी।
डोली भूमि गिरत दसकंधर, छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर।
धरनि परेउ द्वौ खंड बढ़ाई, चापि भालु मर्कट समुदाई।
मंदोदरि आगे भुज सीसा,
धरि सर चले जहां जगदीसा।
प्रबिसे सबु निषंग महुं जाई, देखि सुरन्ह दुंदुभी बजाई।
तासु तेज समान प्रभु आनन, हरषे देखि संभु चतुरानन।
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मांडा, जय रघुवीर प्रबल भुजदंडा।
बरषहिं सुमन देव मुनि वृंदा, जय कृपाल जय जयति मुकुंदा।
जय कृपा कंद मुकुंद द्वंद हरन सरन सुख प्रद प्रभो।
खल दल विदारन परम कारन कारुनीक सदा विभो।
सुर सुमन बरषहिं हरष संकुल बाज दुंदुभि गहगही।
संग्राम अंगन राम अंग अनंग बहु सोभा लही।
सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।
जनु नीलगिरि पर तड़ित पटल समेत उड्डगन भ्राजहीं।
भुज दंड कर कोदंड फेरत रुधिर कन तन अति बने।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने।
श्री रघुनाथ जी ने कानों तक धनुष को खींचकर इकतीस बाण छोड़े। वे श्रीरामचन्द्र जी के बाण ऐसे चले मानो काल सर्प हों। सबसे पहले एक बाण ने रावण की नाभि के अमृत कुंड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सीस और भुजाओं को लेकर चले तो सिर और भुजाओं से रहित उसका धड़ पृथ्वी पर नाचने लगा।
धड़ प्रचण्ड वेग से दौड़ने लगा, जिससे धरती धंसने लगी तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर दिये। मरते समय रावण बड़े वेग से घोर शब्दों में गरजकर बोला-राम कहां हैं मैं ललकार कर उनको युद्ध में मारूं। रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गयी। समुद्र, नदियां, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण धड़ के दोनों टुकड़ों को फैलाकर वानर और भालुओं को नीचे दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। रावण की भुजाओं और सिरों को मंदोदरी के सामने रखकर राम के बाण वहां चले जहां जगदीश्वर श्रीराम जी थे। सब बाण जाकर तरकस में प्रवेश कर गये। यह देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए। रावण का तेज (आत्मा) प्रभु के मुख में समा गया। यह देखकर शिवजी और ब्रह्मा जी बहुत प्रसन्न हुए। ब्रह्माण्ड भर में जय जय की ध्वनि भर गयी। प्रबल भुजदण्डों वाले श्री रघुबीर की जय हो। देवता और मुनियों के समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं कि कृपालु की जय हो, मुकुन्द की जय हो, जय हो। हे कृपा के कन्द, हे मोक्षदाता मुकुंद हे राग-द्वैष, हर्ष-शोक और जन्म-मृत्यु आदि के द्वन्द्व को हरने वाले, हे शरणागत को सुख देने वाले प्रभो, हे दुष्ट दल को विदीर्ण करने वाले, हे कारणों के भी परम कारण, हे सदा करुणा करने वाले, हे सर्व व्यापक विभो-आपकी जय हो। देवता हर्ष में भरे पुष्प बरसाते हैं। धमाधम नगाड़े बज रहे हैं। रणभूमि में श्रीराम जी के शरीर के अंगों ने बहुत से कामदेवों की शोभा प्राप्त की है। उनके सिर पर जटाओं का मुकुट है जिसके बीच-बीच में अत्यंत मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं, मानो नीले पर्वत पर बिजली के समूह सहित नक्षत्र सुशोभित हो रहे हैं। श्रीराम जी अपने भुजदण्डों से बाण और धनुष फिरा रहे हैं। शरीर पर खून के छींटे अत्यंत सुंदर लग रहे हैं, मानो तमाल के वृक्ष पर बहुत सी लाल मुनियां चिड़ियां अपने महान सुख में मग्न हुई निश्चल बैठी हैं। -क्रमशः (हिफी)