
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम विभीषण, अंगद और हनुमान जी को भेजकर सीता जी को बुलवाते हैं। इसके बाद सीता जी की अग्नि परीक्षा होती है। कुछ लोग कहते हैं कि सीता जी की अग्नि परीक्षा क्या उचित थी? इसी का जवाब गोस्वामी तुलसीदास जी ने दिया है। प्रभु श्रीराम ने खर-दूषण का वध करने से पूर्व ही जब लक्ष्मण फल-फूल लेने वन को गये थे तब सीता जी से कहा था कि मैं नर लीला करना चाहता हूं तब तक तुम अग्नि में निवास करो। अब अग्नि से सीता जी को वापस आना है तो उन्हें अग्नि में प्रवेश करना ही था। इसी प्रकार लौकिक अपवाद भी दूर करना था क्योंकि सीता जी काफी दिनों तक रावण के यहां रहीं। इस प्रकार प्रतिविम्ब और लौकिक
कलंक दोनों को दूर करने के लिए सीता जी की अग्नि परीक्षा हुई थी। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो राक्षसियां सीता जी को अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनाकर श्रीराम के पास भेज रही हैं-
बहु प्रकार भूषन पहिराए, सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए।
ता पर हरषि चढ़ी वैदेही, सुमिरि राम सुखधाम सनेही।
बेतपानि रक्षक बहु पासा, चले सकल मन परम हुलासा।
देखन भालु कीस सब आए, रच्छक कोपि निवारन धाए।
कह रघुवीर कहा मम मानहु, सीतहिं सखा पयादे आनहु।
देखहुं कपि जननी की नाईं, बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं।
सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे, नभ ते सुरन्ह सुमन बहु वरषे।
सीता प्रथम अनल महुं राखी, प्रगट कीन्ह चह अंतरसाखी।
तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानी सब लागीं करै विषाद।
विभीषण का निर्देश पाकर राक्षसियों ने सीता जी को बहुत प्रकार से स्नान कराया, फिर अनेक प्रकार के आभूषण पहनाए। इसके बाद एक सुंदर पालकी सजाकर लायी गयी। सीता जी प्रसन्न होकर सुख के धाम प्रियतम श्रीराम जी का स्मरण करके उस पर हर्ष के साथ चढ़ीं। चारों ओर हाथों में छड़ी लेकर रक्षक चले। सबके मन में परम उल्लास (उमंग) है। रीछ-वानर सब सीता जी को देखने के लिए दौड़ पड़े तो रक्षक क्रोध करके उन्हें भगाने लगे। यह देखकर श्री रघुवीर जी ने कहा हे मित्र मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, जिससे वानर उनको (सीता को) माता की तरह देखें। श्रीराम जी ने ऐसा हंसकर कहा। प्रभु के वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गए। आकाश से देवताओं ने बहुत सारे फूल बरसाये। सीता जी के असली स्वरूप को तो पहले ही अग्नि में रखा गया था, अब भीतर के साक्षी अर्थात इस रहस्य को जानने वाले भगवान उनको प्रकट करना चाहते हैं।
इसी कारण करुणा के भंडार श्रीराम जी ने नर लीला के चलते सीता जी के बारे में कुछ कड़े वचन कहे जिन्हें सुनकर सब राक्षसियां विषाद करने लगीं।
प्रभु के बचन सीस धरि सीता, बोली मन क्रम बचन पुनीता।
लछिमन होहु धरम के नेगी, पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी।
सुनि लछिमन सीता कै बानी, बिरह विवेक धरम निति सानी।
लोचन सजल जोरिकर दोऊ, प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ।
देखि राम रुख लछिमन धाए, पावक प्रगटि काठ बहु लाए।
पावक प्रबल देखि बैदेही, हृदय हरष नहि भय कछु तेही।
जौ मनबच क्रम मम उर माहीं, तजि रघुबीर आन गति नाहीं।
तौ कृसानु सबकै गति जाना, मो कहुं होउ श्रीखंड समाना।
श्रीखंड सम पावक प्रवेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बंदित चरन रति अति निर्मली।
प्रतिविम्ब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुं जरे।
प्रभु चरित काहुं न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे।
धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग विदित जो।
जिमि छीर सागर इंदिरा, रामहि समर्पी आनि सो।
सो राम बाम विभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नवनील नीरज निकट मानहुं कनक पंकज की कली।
प्रभु के मुख से अग्नि परीक्षा की बात सुनते ही मन वचन और कर्म से पवित्र सीता जी बोलीं-हे लक्ष्मण। तुम मेरे धर्म के आचरण में सहायक बनो और तुरंत आग तैयार करो। श्री सीता जी की विरद, विवेक और धर्म व नीति से सनी हुई वाणी सुनकर लक्ष्मण जी के नेत्रों में विषाद के आंसू भर आए। वे दोनों हाथ बांधकर खड़े रहे। प्रभु श्रीराम से कुछ कह भी नहीं सकते। इसी बीच प्रभु श्रीराम ने उन्हें इशारा किया तो लक्ष्मण जी दौड़े और आग तैयार करके बहुत सी लकड़ी ले आए। अग्नि को खूब बढ़ी हुई देखकर जानकी जी के हृदय में बहुत हर्ष हुआ, उन्हें किंचित मात्र भय नहीं है सीता जी ने कहा कि यदि मन, वचन और कर्म से मेरे हृदय में श्री रघुवीर जी को छोड़कर दूसरी गति अर्थात अन्य किसी का आश्रय नहीं है तो अग्नि देव जो सबके मन की गति जानते हैं वे मेरे मन की गति भी जानकर मेरे लिए चंदन के समान शीतल हो जाएं। इसके बाद प्रभु श्रीराम का स्मरण करके और जिनके चरण महादेव जी के द्वारा वंदित हैं तथा जिनमें सीता जी की अत्यंत विशुद्ध प्रीति है उन कोशलपति की जय बोलकर जानकी जी ने चंदन के समान शीतल हुई आग में प्रवेश किया। सीता जी की छाया मूर्ति (प्रतिविम्ब) और उनके ऊपर जो लौकिक कलंक लगा वह सब प्रचण्ड अग्नि में जल गये। प्रभु के इन चरित्रों को किसी ने नहीं जाना। देवता सिद्ध और मुनि सभी आकाश में खड़े देखते रहे, तब अग्नि ने शरीर धारण करके वेदों में और जगत में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीता जी) को हाथ पकड़कर श्रीराम जी को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने विष्णु भगवान को लक्ष्मी समर्पित की थी। वे सीता जी श्री रामचन्द्र जी के वाम भाग में विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यंत ही सुंदर है मानो नए खिले हुए नीले कमल के पास सोने के कमल की कली सुशोभित हो।
बरषहिं सुमन हरषि सुर बाजहिं गगन निसान।
गावहिं किन्नर सुर वधू नाचहिं चढ़ी विमान।
जनक सुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार।
देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे। आकाश में डंके बजने लगे किन्नर गाने लगे। विमानो पर चढ़ीं अप्सराएं नाचने लगीं। श्री जानकी जी समेत प्रभु श्रीरामचन्द्र जी की अपरिमित
और अपार शोभा देखकर रीछ-वानर हर्षित हो गये और सुख के सार
श्री रघुनाथ जी की जय बोलने
लगे। -क्रमशः (हिफी)