हरि अनंत हरि कथा अनंता(327) आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ वीर रस

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भरत जी से आज्ञा लेकर हनुमान जी चल पड़ते हैं तो थोड़ा विलम्ब हो ही गया। इसलिए प्रभु श्रीराम चिंता कर रहे हैं कि आधी रात बीतने को है और हनुमान जी नहीं आ पाए। लक्ष़्मण को मूर्च्छित देखकर प्रभु नर-लीला करते हुए तरह-तरह से विलाप कर रहे हैं। इसी बीच हनुमान जी आ जाते हैं तो सभी वीर वानर जोश में जय जयकार करने लगते हैं। करुणा में वीर रस का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। लक्ष्मण जी की मूर्च्छा टूट जाती है और यह समाचार रावण को मिलता है तो वह विषाद करते हुए कुंुभकर्ण के पास जाता है। कुंभकर्ण भी पहले उसे समझाने का ही प्रयास करता है। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो प्रभु श्रीराम नर लीला करते हुए प्रलाप कर रहे हैं-
सुत बित नारि सुहृद परिवारा, होंहि जाहिं जग बारहि बारा।
अस विचारि जियं जागहु ताता, मिलइ न जगत सहोदर भ्राता।
जथा पंख बिनु खग अति दीना, मनि बिनु फनि करि बर कर हीना।
अस मम जिवन बंधु बिनु तोही, जौं जड़ दैव जिआवै मोही।
जैहउं अवध कवन मुंहु लाई, नारि हेतु प्रिय भाइ गंवाई।
बरु अपजस सहतेउं जग माहीं, नारि हानि विसेष छति नाहीं।
अब अपलोकु सोकु सुत तोरा, सहिहि निठुर कठोर उर मोरा।
निज जननी के एक कुमारा, तात तासु तुम्ह प्रान अधारा।
सौंपेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी, सब विधि सुखद परमहित जानी।
उतरु काह दैहउं तेहि जाई, उठि किन मोहि सिखावहु भाई।
बहु बिधि सोचत सोच विमोचन, स्रवत सलिल राजिव दल लोचन।
उमा एक अखंड रघुराई, नरगति भगत कृपाल देखाई।
प्रभु श्रीराम कहते हैं कि पुत्र, धन, स्त्री, घर और परिवार-ये जगत में बार-बार होते हैं और चले भी जाते हैं लेकिन जगत में एक ही पेट से पैदा हुए भाई बार-बार नहीं मिलते। हृदय में ऐसा विचार कर हे तात जागो। प्रभु कहते हैं जैसे पंख बिना पक्षी, मणि बिना सर्प और सूड़ के बिना हाथी अत्यंत दीन हो जाते हैं, हे भाई, यदि कहीं जड़ दैव मुझे जीवित रखे तो तुम्हारे बिना मेरा जीवन भी ऐसा ही रहेगा। स्त्री के लिए प्यारे भाई को खोकर मैं कौन सा मुंह लेकर अयोध्या जाऊंगा? मैं जगत में बदनामी भले ही सह लेता कि राम में वीरता नहीं थी, इसलिए वन में स्त्री को खो बैठे लेकिन स्त्री की हानि से भाई को खोने की हानि ज्यादा है। स्त्री के खोने से कोई विशेष क्षति नहीं है। अब तो हे पुत्र, मेरा निष्ठुर और कठोर हृदय यह अपयश और तुम्हारा शोक दोनों ही सहन करेगा। हे तात, तुम अपनी माता के एक ही पुत्र और उसके प्राणाधार हो। सब प्रकार से हितकारी और सुख देने वाला जान तुम्हारी माता ने हाथ पकड़ कर मुझे सौंपा था। मैं अब जाकर
उन्हें क्या उत्तर दूंगा। हे भाई, तुम उठकर मुझे सिखाते अर्थात् समझाते क्यों नहीं कि तुम्हारी माता को क्या उत्तर दूं।
इस प्रकार सभी प्रकार की सोच से संसार को मुक्त करने वाले श्रीराम जी बहुत प्रकार से विलाप कर रहे हैं। उनके कमल की पंखुड़ी के समान नेत्रों से विषाद के आंसुओं का जल बह रहा है। शंकर जी पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि हे उमा, श्री रघुनाथ जी तो अखंड, जो जुड़ा नहीं अर्थात् वियोग रहित है। वियोग का अर्थ बिछुड़ने से दुखी भी होता है। इसलिए हे पार्वती भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान ने लीला करके मनुष्य की दशा दिखलाई है।
प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान, जिमि करुना महँ वीर रस।
हरषि राम भेंटेउ हनुमाना, अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना।
तुरत बैद तब कीन्हि उपाई, उठि बैठे लछिमन हरषाई।
हृदयं लाइ प्रभु भेंटेउ भ्राता, हरषे सकल भालु कपि ब्राता।
कपि पुनि बैद तहां पहुंचावा, जेहि विधि तबहि ताहि लइ आवा।
यह वृत्तांत दसानन सुनेऊ, अति विषाद पुनि पुनि सिर
धुनेऊ।
ब्याकुल कुंभकरन पहिं आवा, विविध जतन करि ताहि जगावा।
जागा निसिचर देखिअ कैसा, मानहु कालु देह धरि बैसा।
कुंभकरन बूझा कहु भाई, काहे तव मुख रहे सुखाई।
कथा कही सब तेहि अभिमानी, जेहि प्रकार सीता हरि आनी।
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे, महा महा जोधा संघारे।
दुर्मुख सुर रिपु मनुज अहारी, भट अतिकाय अकंपन भारी।
अपर महोदर आदिक बीरा, परे समर महि सब रनधीरा।
प्रभु श्रीराम प्रलाप कर रहे हैं तो इसे सुनकर वानरों के समूह व्याकुल हो गये। इतने में ही हनुमान जी आ गये जैसे करुणारस में वीर रस का प्रसंग आ गया हो। श्रीराम जी हर्षित होकर हनुमान जी से गले लगकर मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यंत हो कृतज्ञ है। वैद्य सुषेण ने तुरंत ही उपाय किया जिससे लक्ष्मण जी हर्षित होकर उठ बैठे। प्रभु अपने भाई लक्ष्मण को हृदय लगाकर मिले। भालू और वानरों के समूह भी बहुत हर्षित हो रहे हैं। हनुमान जी ने वैद्य सुषेण को उसी प्रकार लंका में पहुंचा दिया जिस प्रकार वे पहले उन्हें लेकर आए थे।
लक्ष्मण की मूर्च्छा समाप्त हो जाने का समाचार जब रावण ने सुना तो अत्यंत दुखी होकर वह अपना सिर पीटने लगा। वह व्याकुल होकर कुंभकर्ण के पास गया और बहुत से उपाय करके उसने कुम्भकर्ण को जगाया। कुंभकर्ण ने ब्रह्माजी से यही वरदान मांगा था कि वह छह महीने तक सोता रहेगा। कुंभकर्ण जागने के बाद इस तरह दिखाई देता है जैसे स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो। कुंभकर्ण ने पूछा कि हे भाई, कहो तो तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं अभिमानी रावण ने उससे, जिस
प्रकार से वह सीता को हर लाया था, तब से अब तक की कथा सुनाई, फिर कहा, हे तात, वानरों ने सभी राक्षस मार डाले बड़े-बड़े योद्धाओं का भी संहार कर डाला। दुर्मुख, देवशत्रु (देवांतक), मनुष्य भक्षक (नरान्तक), भारी योद्धा अतिकाय और अकंपन तथा महोदर आदि सभी रणधीर वीर रणभूमि में मारे गये।
सुनि दसकंधर बचन तब कुंभकरन बिलखान।
जगदंबा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान।
भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा, अब मोहि आइ जगाएहि काहा।
अजहूं तात त्यागि अभिमाना, भजहु राम होइहि कल्याना।
कुंभकर्ण ने जब रावण के बचन सुने तो वह बिलखते (दुखी होते) हुए बोला- अरे मूर्ख, जगत जननी जानकी को हर लाकर अब तू कल्याण चाहता है। हे राक्षस राज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया है? हे तात, अब भी अभिमान छोड़कर श्रीराम जी का भजन करो तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। -क्रमशः (हिफी)