(महासमर की महागाथा-53) मूर्खता और विद्रोह एक जैसे शत्रु

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
इसमें संदेह नहीं कि अंग्रेज जाति के द्वारा भारत का भला जरूर हुआ है। दो पत्थर मिलते हैं, उनमें रगड़ पैदा होती है। एक पर दूसरे की क्रिया से अग्नि उत्पन्न होती है। इसी प्रकार दो समाजों के मेल से उनकी परस्पर क्रिया होती है, जो कई नई शक्तियों को जन्म देती है। इसी को क्रिया और प्रतिक्रिया का नियम कहा जाता है। भारत के पतन का यदि कोई वास्तविक कारण है तो यह कि यहाँ का समाज चिरकाल तक ऐसे एकांत की स्थिति में रहा कि संसार के साथ उसका कोई संबंध ही न रहा। इसमें स्वस्थ रगड़ न होने से जीवन के लक्ष्य ही नहीं रहे थे। बौद्ध मत ने कुछ रगड़ पैदा की, जिसके फलस्वरूप त्याग के चिह्नों के रूप में सैकड़ों के साधु-संन्यासी अभी तक देश में पाए जाते हैं। जब इसलाम की लहर चली तो उत्तर-पश्चिम की ओर से एक नई क्रिया हिंदू समाज पर हुई। इस क्रिया का एक राजनीतिक पक्ष यह था कि लूटमार के आधार पर असंख्य व्यक्तिगत राज्य देश में स्थापित हो गए। जफर खाँ जैसे कितने ही आदमी उठे, जिन्होंने अपने शासन स्थापित कर लिये। राजनीतिक दृष्टि से जन-साधारण केवल एक भैंस की तरह थे जिसके हाथ में लाठी होती उसके आगे चल पड़ते। परिणाम यह हुआ कि हिंदुओं में ऐसे व्यक्ति पैदा हो गए, जिन्होंने इसी ढंग को अपना लिया और कई हिंदू राज्य स्थापित कर लिये। मराठे, जाट और सिख राज्य इसके उदाहरण हैं जिनकी बची हुई रियासतें हाल तक दिखाई देती थीं। अंग्रेजी राज्य की नींव भारत में स्वजाति-प्रेम के भाव में है। उन्होंने अपनी बुद्धि और देशभक्ति के बल पर अपना साम्राज्य खड़ा किया है। इस कारण अंग्रेजी राज्य में आकर न केवल भिन्न-भिन्न प्रांतों और समाजों में एकता की भावना पैदा हुई है, बल्कि पहली बार यह ज्ञान प्राप्त हुआ है कि समाज का प्रत्येक सदस्य- छोटे-से-छोटे से लेकर बड़ों-से-बड़ों तक- विशेष राजनीतिक अधिकार रखता है। गिरोहों के या वैयक्तिक स्वार्थों को सामने रखकर स्वतंत्रता बनाए रखने या प्राप्त करने के जो प्रयत्न किए गए हैं, वे अंग्रेजी राज्य के साथ टकराकर चूर-चूर हो गए।
आधार पर देशप्रेम की लहर का चलना है। यह राष्ट्र-भाव एक दृष्टि से नया है। यह भाव एक तरह की अग्नि है, जिसमें हिंदुओं की ऊँच-नीच की प्रवृत्ति एवं हिंदू- मुसलमान आदि के मजहबी मतभेद जलकर राख हो सकते हैं और उनके स्थान में मानवी स्वतंत्रता तथा समानता की सुगंध निकल सकती है। इस आग में भारत के सदियों के पाप और मलिनता जल जाएगी किंतु इस आग को प्रज्वलित करने के लिए निजी स्वार्थ की आहुति देने का कर्तव्य भी है।
अंग्रेज जाति ने भारत में शांति और मानवी समानता पैदा करके लोगों के दिलों को जीत लिया। समय आया, जब लोगों ने देखा कि यद्यपि वे आपस में एक-दूसरे के समान हैं, किंतु दूसरों की तुलना में उनके साथ बहुत नीच समझकर बरताव किया जाता है। दूसरा यह कि शांति का प्रयोजन उन दोनों को उन्नत करना नहीं, राज की अशांति को दूर रखकर भारत का आर्थिक व व्यापारिक शोषण करने का है। अंग्रेज जाति के अंदर एक विचार व्यापक मालूम होता है कि भारत पर सदा-सर्वदा के लिए उनका कब्जा बना रहे। अगर लोगों के हृदय अंग्रेजी राज्य के साथ हों तो वह कब्जा मित्रता का रूप ले लेता है, साथ न हो तो गुलामी का। भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि राज्य के छह दुर्गों में प्रजा का प्रेम सबसे दृढ़ दुर्ग है। प्रश्न पूछा जा सकता है कि क्या कोई ऐसा उपाय है, जिससे लोगों के दिल उसके साथ रह सकें। इसका केवल एक ही उपाय है। वह यह कि अंग्रेज जाति के हृदय में यहाँ के लोगों के लिए कम-से-कम इतना सम्मान और प्रेम तो हो ही, जो मनुष्य के लिए होना आवश्यक है। मुझे तो यह प्रश्न आर्थिक लाभ या देश की बड़ाई का इतना नहीं प्रतीत होता जितना सम्मान का। यदि भारत को साथ रखते हुए अंग्रेजों का राजनीतिक महत्त्व बढ़ता रहे तो इसमें हमारे लिए दुःख का कोई कारण नहीं। यदि उनके व्यापार को विशेष लाभ हो तो उसमें कोई हानि नहीं। जैसे जातियों के विभिन्न वर्गों में व्यापार आवश्यक है वैसे ही अलग- अलग जातियों में भी पारस्परिक व्यापार जरूरी है। अंग्रेज जाति के अंदर धनी वर्ग विद्यमान है, जो निर्धन वर्गों का लाभ उठाता है। जब तक संसार में आर्थिक समानता कायम नहीं की जाती तब तक यह नियम प्रचलित रहेगा। हमारा उद्देश्य केवल इतना है कि हमारा अस्तित्व संसार से मिट न जाए। राष्ट्रीय सभ्यता का नाश करना उस जाति को संसार से मिटाना है। ब्रिटिश चर्च और सभ्यता का बीज उनका अपना नहीं है, बल्कि उसमें यहूदी जाति के किस्से-कहानियाँ भरे हैं। जाति या कुल की दृष्टि से अंग्रेज यहूदी जाति से नहीं, आर्य जाति से मिलती है। आर्य जाति की आरंभिक सभ्यता को केवल हिंदुओं ने अब तक बचाए रखा है।
आर्य नस्ल होने के कारण अंग्रेज जाति का कर्तव्य है कि सभ्यता की रक्षा में सहायता दे।
जहाँ-जहाँ अरब लोगों ने विजय पाई, वहाँ-वहाँ के लोगों को अपने साथ संबद्ध करने के लिए वहाँ के लोगों की सभ्यता मिटाकर उन्होंने अपनी सभ्यता और भाषा फैलाई। ईरान और मिस्र में उन्होंने पुरानी भाषाओं की जगह अरबी भाषा प्रचलित की। जर्मन लोगों ने एल्सास और लॉरेन के प्रदेशों को विजित करने के पश्चात् उनमें फ्रांसीसी भाषा के स्थान में जर्मन भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने की कोशिश की। आयरलैंड में आयरिश की जगह अंग्रेजी भाषा को पूर्ण विजय प्राप्त हुई। यूरोपीय जातियों ने असभ्य जातियों के अंदर तो ऐसा करना आवश्यक कर्तव्य समझ रखा है। भारत में अंग्रेजी को अदालतों की तथा उच्च शिक्षा की भाषा निश्चित कर अंग्रेजों ने भी यही किया है। लोगों का आंग्लीकरण करना उन्होंने अपने लिए लाभप्रद समझा है। निस्संदेह दूसरों को अपने साथ संबद्ध करने का एक तरीका यही है कि उनके अंदर अपनी सभ्यता के लिए प्रेम पैदा किया जाय। किंतु यह ठीक होता, यदि भारतीयों की संख्या थोड़ी सी होती। यद्यपि अंग्रेजी सभ्यता पर मोहित एक वर्ग यहाँ पैदा होता रहेगा, किंतु वह सदा समाज से पृथक् होता जाएगा। इसलिए भारतीयों को अपने साथ जोड़ने का जो दूसरा ढंग अंग्रेज जाति इस्तेमाल कर सकती है, वह यह कि वह अपनी जाति के अंदर यहाँ की सभ्यता के लिए प्रेम और अनुराग तथा यहाँ की भाषा व साहित्य को सीखने का शौक पैदा करे। साथ ही इस देश की भाषा और साहित्य को उन्नत करने के लिए अदालतों व विश्वविद्यालयों की भाषा के रूप में प्रचलित कर दे। यह आसानी से किया जा सकता है कि जो अंग्रेज यहाँ सरकारी नौकरी में आएँ, वे यहाँ की भाषा और साहित्य के सुपरिचित हों। उन्हें शिक्षा देने का यथोचित प्रबंध होना चाहिए। उनके हृदयों में हमारे लिए प्रेम होगा और उस प्रेम से हमारे दिलों को जीत सकेंगे। यहूदी लोग रोम के सम्राटों के अधीन थे। यूनान और रोम के लोगों ने उनसे अपना मजहब प्राप्त किया और सारे यूरोप की आर्य जातियों को यहूदी मत का अनुयायी बनाया।
क्या आपत्ति है, यदि अंग्रेज अपने
विजितों से प्रारंभिक आर्य सभ्यता को ग्रहण करके फिर से आर्य जाति में विचार करें ?-क्रमशः (हिफी)