(महासमर की महागाथा-14) राग-द्वेष, सुख-दुख हैं जीव के लक्षण

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
हिंदू शास्त्रों में जीव के लक्षण राग, द्वेष, सुख, दुःख, इच्छा और प्रयत्न बताए गए हैं। जीव जीवन या जिंदगी के अर्थ में समझना चाहिए। जीवन विद्या के जाननेवालों ने भी जीवन के लक्षण प्रायः ऐसे ही बताए हैं। जीवन का बीज प्रकृति के अंदर पुरुष बनकर आरंभ से ही हर सजीव वस्तु में विद्यमान होता है और उसकी भावी उन्नति बाह्य तथा आंतरिक परिस्थिति पर निर्भर होती है। बाह्य संस्कारों से प्रभावित होकर हर एक सजीव वस्तु को आंतरिक रूप से अपने आपको उसके अनुकूल बनाना पड़ता है। विशेष संस्कारों द्वारा बार-बार प्रभावित होने से वे विशेष शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनको इंद्रियाँ कहा जाता है। इन्हीं बाह्य संस्कारों के अधीन हर एक प्राणी के ऐसे बाह्य भाग-खाल और नसें-पैदा हो जाते हैं, जिनके द्वारा संस्कार शरीर के अंदर प्रवेश करते हैं।
प्राणि-विद्या का अध्ययन इस बात को स्पष्ट करता है कि किस प्रकार बहुत छोटे स्तर के प्राणियों में केवल एक ही इंद्रिय होती है। इसी से वे अपना सारा काम करते हैं। इर्द-गिर्द की परिवर्तनशील परिस्थिति ज्यों-ज्यों उन पर अपना प्रभाव डालती है त्यों-त्यों उनमें विभिन्न हवास’ और इंद्रियों की विधिपूर्वक उन्नति होती जाती है। पहले-पहल सभी प्रभाव केवल त्वचा या बाह्य खाल पर होते हैं। धीरे- धीरे रीढ़ उत्पन्न होती है। इसके साथ मस्तिष्क बनता है। यह मस्तिष्क या दिमाग समझदार पशुओं के अंदर अधिक उन्नत अवस्था में होता है। वहशी या असभ्य मनुष्य का मस्तिष्क पशुओं के मस्तिष्क के समान होता है। सभ्य मनुष्य के अंदर मस्तिष्क बहुत उन्नत अवस्था में पाया जाता है। उनकी उन्नति के साथ-साथ इंद्रियों की उन्नति होती है। इस प्रकार निरिंद्रिय अहंकार से उत्पन्न हुए पाँच भूत सह- इंद्रिय प्रकृति पर प्रभाव डालकर इंद्रियों का अस्तित्व स्थूल अवस्था में ले आते हैं। सांख्य-शास्त्र इसके साथ एक अन्य बात जोड़ देता है। वह यह कि यद्यपि सह- इंद्रिय प्रकृति पर प्रकाश का प्रभाव पड़ने से आँख उत्पन्न होती है, परंतु देखने की इच्छा पहले से ही विद्यमान रहती है।
भगवद्गीता के अध्याय तेरह के श्लोक 191 और 202 में कहा गया है, पुरुष और प्रकृति अनादि हैं। सभी गुण और विकार प्रकृति में उत्पन्न होते हैं। कार्य-कारण के क्रम का स्रोत भी यही है। श्लोक 303 में बताया गया है, जो मनुष्य अनेक को एक से निकले हुए जानता है, वही ज्ञान प्राप्त करता है उसी प्रकार जिस प्रकार सूत एक ही होता है, परंतु कपड़े विभिन्न बनते हैं। लोहा एक ही होता है, परंतु औजार विभिन्न बनते हैं। अध्याय चौदह का श्लोक 19 कहता है, प्रकृति पुरुष का स्वभाव है, पुरुष प्रकृति से परे है। जैसे मकड़ी अपने गिर्द जाला बुनती है और रेशम का कीड़ा अपने गिर्द कोश या कोकून बनाता है वैसे ही यह सारा संसार प्रकृति से बना है।
यह सृष्टि प्रकृति के अंदर गति का परिणाम है। इसमें जन्म-मरण केवल रूप-परिवर्तन और गति-भेद के तौर पर हैं। गति सापेक्ष है। चलती गाड़ी में बैठे हुए मनुष्य को बाहर की स्थिर वस्तुएँ गतिमान नजर आती हैं। सांख्य का मत है कि प्रकृति अपने आपको पुरुष के सामने पुस्तक के पन्नों की तरह रखती जा रही है। जिस प्रकार किश्ती में बैठे हुए मनुष्य को नदी का किनारा चलता दिखलाई देता है उसी प्रकार पुरुष घूमती हुई प्रकृति को न जानकर अपने आपको गतिमान समझा करता है।
यदि संसार को समष्टिगत रूप से देखा जाय तो उसमें गति का होना संभव नहीं है। इसीलिए जब प्रकृति स्थिर हुई तो उसमें न गति हुई, न कुछ उत्पन्न हुआ और न कुछ नष्ट हुआ। इसी आधार पर कहा जा सकता है कि ब्रह्म के दृष्टिकोण से न कभी कोई परिवर्तन होता है, न हुआ है परंतु मनुष्य के दृष्टिकोण से उत्पत्ति और प्रलय वास्तविक घटनाएँ हैं और ये वैसी ही वास्तविकता रखती हैं जैसे आप और हम। इन दोनों दृष्टिकोणों को सदा सामने रखने से भगवद्गीता की वे समस्याएँ हल हो जाती हैं, जिनको कुछ लोग परस्पर विरोधी बातें समझते हैं। उदाहरणार्थ-
भगवद्गीता के अध्याय तेरह के श्लोक 141, 152 और 163 में कहा गया है, ब्रह्म की इंद्रियाँ नहीं हैं, परंतु वह सबकुछ करता है। वह निर्गुण है, परंतु उसमें सभी गुण हैं। वह भीतर-बाहर से अचल है, परंतु गति करता है। वह दूर-से-दूर और निकट- से-निकट है। अभाज्य
होकर भी वह विभक्त है। वह सृष्टि को उत्पन्न करता, चलाता और जज्ब करता है।
ऋषि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा, बड़ का एक बीज ले आओ। वह ले आया। फिर कहा, इसको तोड़ो और देखो, इसमें क्या है? उसने तोड़कर देखने के बाद उत्तर दिया, इसमें असंख्य नन्हें-नन्हें बीज हैं। उसके अंदर से एक नन्हा सा बीज उठाकर उद्दालक ने कहा, देखो, इसमें क्या नजर आता है? श्वेतकेतु बोला, बस, इस बीज के अतिरिक्त और कुछ नजर नहीं आता। इस पर ऋषि उद्दालक ने कहा, जिसके अंदर तुमको कुछ दिखाई नहीं देता, वहाँ पर बड़ का एक वृक्ष है। इसी नन्हे बीज के अंदर वृक्ष का तना, शाखाएँ, पत्ते और फल पैदा करने के अवयव विद्यमान हैं।’
एक उदाहरण लेकर देखिए। एक बड़ा सुंदर नगर है। उसके अंदर बड़े शानदार महल, मकान और हवेलियाँ हैं। ये सब किससे बने हैं? ईंट, चूने और पत्थर से । ईंट, चूना और पत्थर क्या हैं? ये सब प्रायः रेत के कणों से मिलकर बनते है। अंत में ये कण या जर्रे हैं, जिनके मेल से इतनी बड़ी विभिन्नताओं का प्रदर्शन इस नगर के रूप में होता है।
हमने देखा है कि अणुओं से समस्त सृष्टि बनी है। जीव-विद्या (बॉयोलॉजी) हमें बतलाती है कि सभी प्रकार के प्राणी, जिनमें वनस्पतियाँ भी सम्मिलित हैं, बहुत ही बारीक बीजों से बनते हैं। इस बीज को कोश कहा जाता है। यह इतना छोटा होता है कि इसे नंगी आँखों से नहीं देख सकते।
यह अणुवीक्षण यंत्र के द्वारा देखा
जाता है। यह कोश जीवन का केंद्र
है। इसे हम जीवन-कोश कह सकते हैं।-क्रमशः (हिफी)