(महासमर की महागाथा-29) ईश्वर तक पहुंचने के चार प्रमुख मार्ग

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
भगवद्गीता के अध्याय सात के श्लोक 32 में कहा गया है, हजारों में से कोई एक सिद्धि चाहता है। उनमें से कोई विरला ही यत्न करता है। यत्न करने वालों में से कोई ही मुझको जान सकता है। क्यों? अध्याय तेरह के श्लोक 271 में कहा गया है, देखता वही है, जो समस्त संसार के अंतस्तल में एक सार को पहचानता है। फिर भी अध्याय चार के श्लोक 112 में इस कठिनाई को यों दूर कर दिया गया मनुष्य जिस किसी मार्ग से आते हैं, मैं उनको उसी मार्ग से स्वीकार करता हूँ। उस तरफ जाने के कई मार्ग हैं। अध्याय तेरह के श्लोक 243 में बताया गया है, इस अज्ञान को दूर करने के कई तरीके हैं। कई लोग ध्यान से, कई कर्म से और कई ज्ञान से पहुँचते हैं। भक्ति-मार्ग इनके अतिरिक्त एक और तरीका है।
इन चार बड़े मार्गों में से पहला मार्ग ध्यान का है। ध्यान करने का तरीका राजयोग कहलाता है। भगवद्गीता के छठे अध्याय में राजयोग का सुंदर, संक्षिप्त वर्णन है। शुद्ध स्थान में आसन लगाकर व्यक्ति प्राणायाम करे और ध्यान करने का अभ्यास डाले। यम, नियम आदि आठ सीढ़ियों का विस्तृत वर्णन योगदर्शन में पाया जाता है।
ध्यान-योग में मन की एकाग्रता प्राप्त करना आवश्यक है। मन को स्थिर करना ध्यान है । आँखें बंद करके देखिए, मन किधर से किधर घूमता है। इसे घूमने से रोकने का यत्न कीजिए। आप जितना ज्यादा यत्न करेंगे उतना ही ज्यादा यह इधर-उधर दौड़ेगा। इसी से शरीर की समता उस रथ से की गई है, जिसके घोड़े इंद्रियाँ हैं, मन उनकी बाग है और आत्मा सारथि है। बाग काबू में रखने से घोड़े वश में रहते हैं। मन स्थिर होने पर काबू में आ सकता है। यही बात सबसे कठिन है। इसकी कठिनाई का अनुमान इससे लग सकता है कि अर्जुन जैसा एकाग्रचित्त मनुष्य योग की व्याख्या सुनकर प्रश्न करता है, मन को काबू में करना ऐसा ही है जैसे आँधी को बाँधना। इसको किस तरह वश में करना चाहिए? अर्जुन की ध्यान शक्ति आचार्य द्रोण द्वारा ली गई परीक्षा से भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है।
आचार्य ने सब शिष्यों को एकत्र करके उनसे कहा कि पेड़ पर बैठे हुए पक्षी की आँख में तीर मारो। वे एक-एक को पास बुलाकर पूछते गए कि तुम क्या देखते हो। सबने जवाब में पक्षी या पेड़ की टहनी का नाम लिया। एक अर्जुन ही था जिसने कहा कि मुझे तो पेड़ पर बैठे पक्षी की आँख के सिवा और कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता।
जानवरों में बंदर सबसे अधिक चंचल है। वह एक पल भी चैन से नहीं बैठता। इसी से मन की तुलना बंदर से की गई है-ऐसे बंदर से, जो शराब पिए हो और जिसे बिच्छू ने काटा हो। मनुष्य में अभिमान और ईर्ष्या ही हैं क्रमशः उक्त शराब और बिच्छू । भगवद्गीता में अर्जुन को बताया गया है, यद्यपि मन बड़ा बलवान् है, फिर भी अभ्यास और वैराग्य से यह काबू में आ सकता है।
इस विषय में असंभव मालूम देनेवाली कुछ बातें अभ्यास से संभव हो जाती हैं। सर्कस में बंदर, हाथी आदि अभ्यास के कारण ही कैसे आश्चर्यजनक खेल करते हैं। मनुष्य अभ्यास के द्वारा आँखें बंद करके मात्र आवाज के ऊपर निशाना लगा सकता है। शारीरिक अभ्यास करने से दुबला-पतला आदमी भी पहलवान बन सकता है। योगी लोग शरीर को ऐसा बना लेते हैं कि केवल वायु पर जीवित रह सकते हैं। मन के अभ्यास का अर्थ है- उसे सब ओर से हटाकर किसी विशेष वस्तु या विचार पर लगाना। मन को अन्य चीजों से हटाने का माध्यम वैराग्य है। इस काम में सत्संग और धर्मोपदेश सहायक हैं, क्योंकि इस प्रकार संसार का ध्यान आता है और विषय-वासना कम होती है। भगवद्गीता में कहा गया है, ‘विषयों का ध्यान करने से काम पैदा होता है, काम से क्रोध, क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति जाती रहती है, बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि समाप्त हो जाने पर मनुष्य नष्ट हो जाता है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी एक जगह इसी बात को कहा है-
जा कहँ प्रभु दारुन दुख देहीं।
ताकर मति पहले हरि लेहीं।।
यदि मनुष्य पाप करता है तो ईश्वर उसकी अक्ल को मार देता है। यदि कोई व्यक्ति पाप करता है तो ईश्वर आकर उसे थप्पड़ नहीं लगाता, न उसे हथकड़ी- बेड़ी डालता है। वह तो बस, उसकी बुद्धि को मार देता है। पापी की मौत पाप-कर्म करने में ही होती है, ऊपर कहीं से नहीं आती।
इंद्रियों के वश में होकर मन विषयों के अधीन रहता है। विषयों की हवा उसे बुलाती रहती है और शांत नहीं होने देती। भगवद्गीता के अध्याय छह के श्लोक 181, 192 और 203 में बताया गया है, एकाग्रचित्त मनुष्य उस ज्योति के समान है, जो हवा से सर्वथा सुरक्षित गति-रहित जलती है। मन भी शांत होकर आत्मा को अपने अंदर देख सकता है।
भगवद्गीता के अध्याय छह के श्लोक 124 और 135 में कहा गया हैं, प्राणायाम मन को स्थिर करने में सहायता देता है। प्राणायाम का उद्देश्य साँस को बाकायदा बनाना और साथ ही लंबा करने की शक्ति पैदा करना है। अनुभव से सिद्ध है कि श्वास की नियमितता का नाड़ियों की मजबूती से विशेष संबंध है और इनके सबल होने से मन की स्थिरता असाधारण रूप से बढ़ जाती है। अध्याय चार के आरंभिक श्लोकों में यज्ञ का उल्लेख करके 266 वें और 277 वें श्लोकों में इंद्रियों को अपने अंदर डालने को भी यज्ञ कहा गया है। इंद्रियों के ये यज्ञ नाक, कान, आँख आदि के द्वारा किए जा सकते हैं। आम बात है कि किस प्रकार सम्मोहन करनेवाले आदमी एक काला दाग बनाकर आँख झपकाए बगैर उसकी तरफ देखते रहने का अभ्यास करते हैं। इससे उनकी दृष्टि में दूसरों पर प्रभाव डालने की शक्ति आ जाती है।
भगवद्गीता के अध्याय दो के श्लोक 581, 592 और 643 में कहा गया है, जब मनुष्य मन को उसी प्रकार इंद्रियों से पीछे हटा लेता है जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को सिकोड़ लेता है, तब विषय-वासना धीरे-धीरे कम होने लगती है। अंत में वासना का विचार मन से उड़ जाता है। तभी आत्मा का दर्शन होता है। आगे बताया गया है, इंद्रियों को निराहार या भूखा रखने से विषयों से पीछा छूट सकता है। इंद्रियों को व्रत में रखना बड़ा भारी तप है। यम और नियम इसके बड़े साधन। यम पाँच हैं, जिनका संबंध समाज से है। इनके बिना समाज चल नहीं सकता। यम ये हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (संग्रह न करना)। -क्रमशः (हिफी)