(महासमर की महागाथा-32) आमजन के लिए भक्ति व कर्म के मार्ग

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
भगवद्गीता के अध्याय बारह के श्लोक 61, 72, 83 और 144 आदि में तथा अध्याय अठारह के श्लोक 655 एवं 666 में और अन्य कई स्थानों में कहा गया है, तुम मेरी शरण में आओ। मेरा प्रेम ऐसा है कि मेरी शरण में आने से तुम सभी क्लेशों से बच जाओगे। बारहवें अध्याय के प्रारंभ में प्रश्न उठाया गया है, आप तक कौन सा मार्ग आसानी से पहुँचाता है? श्लोक 57, 68 और 79 में उत्तर दिया गया है, जो सब कर्म मुझ पर छोड़ देते हैं और अनन्य भक्ति से मेरे पास आते हैं, उन्हें मैं मृत्यु के समुद्र से जल्दी पार करवा देता हूँ।
ज्ञान और ध्यान-ये दो मार्ग बहुत थोड़े मनुष्यों के लिए हैं। आम लोगों के लिए भक्ति और कर्म के मार्ग हैं। इन दोनों रास्तों पर चलना अपेक्षाकृत आसान है। प्रेम और भक्ति का भाव स्वभावतः हर मनुष्य के अंदर पाया जाता है। स्वार्थ एक ओर चलता है, प्रेम दूसरी ओर। ज्यों-ज्यों प्रेम बढ़ता है त्यों-त्यों आदमी सांसारिकता को भूलता जाता है। किसी मनुष्य में जब यह भाव पराकाष्ठा तक पहुँच जाता है तब उसके लिए शेष संसार का कोई अस्तित्व नहीं रहता। आमतौर पर प्रेम मनुष्य में काम-भाव के रूप में पाया जाता है परंतु विचार और सुसंगति से उसका रूप भक्ति और आध्यात्मिक प्रेम में बदल जाता है। तुलसीदास, सूरदास आदि इसके उदाहरण हैं। इसी प्रकार बहुत सी युवतियाँ भिक्षुणियाँ बन जाती हैं।
मजनू का किस्सा सब लोग जानते हैं। कहा जाता है कि वह लैला के ऊँट के पीछे-पीछे जा रहा था। हवा से लैला का कपड़ा हिला तो उसने समझा कि उसे ठहर जाने का इशारा किया गया है। वह वहीं खड़ा हो गया और भूखा-प्यासा देर तक खड़ा रहा। यहाँ तक कि उसके शरीर में हड्डियाँ मात्र रह गईं और आस-पास बड़ी-बड़ी घास बढ़ जाने से वह पूरी तरह ढक गया। वह सिर्फ लैला को याद करता था और उसे कुछ दिखाई नहीं देता था। एक शेर में उसके प्रेम का वर्णन यहाँ तक किया है कि जब उसे यह कहा गया कि तुमको प्रभु ने बुलाया है, तो उसका उत्तर स्पष्ट था-
अगर अल्लाह ने मिलना हो तो लैला बन के आ जाय!
भक्ति का एक रूप साधारण सभा-समाजों, मजहबी आंदोलनों और दल संगठनों में पाया जाता है। मनुष्य प्रायः अपने नेता पर इतना प्रेम और विश्वास करते हैं कि वे उसके लिए सबकुछ करने हेतु तैयार हो जाते हैं। हर एक आदमी अपनी प्रकृति के अनुसार किसी विशेष व्यक्ति को अपना नेता मान लेता है और उसके कामों को अपना काम और उसकी राय को अपनी राय बना लेता है। दूसरे शब्दों में, जनसाधारण अपने नेता के अस्तित्व में अपने अस्तित्व को भुला देते हैं।
साधारण लोगों में इस प्रकार का भाव प्रशंसनीय है परंतु भारत में कुछ चालाक आदमियों ने मजहबी तौर पर इसका गर्हणीय प्रयोग किया है। एक दल को अपना भक्त बनाकर उसके अंदर दासत्व उत्पन्न कर देना नीच कर्म है। यहाँ के कुछ धूर्त कहते हैं, ईश्वर मेरा मित्र है मैं उससे प्रतिदिन बातें करता हूँ। इसलिए मेरी बात को तुम अक्षरशः मानो। कुछ समय बाद वे एक नया तमाशा रच लेते हैं, ईश्वर का तो संसार में कोई अस्तित्व ही नहीं है मैं ही ईश्वर हूँ। मेरी ही पूजा किया करो। लेकिन यूरोप और अमेरिका के समाज ऐसे मूर्खों से नहीं बने हैं कि वहाँ ऐसे पाखंड चल सकें। न ही वे ऐसे गिरे हुए हैं कि उनमें ऐसे नीच कर्म करनेवाले आदमी पैदा हों। वहाँ के नेता अपने-अपने दल का भला चाहते हैं और उनके पीछे चलनेवालों की यही बड़ी कुर्बानी है कि अपने नेताओं की भक्ति और प्रेम में निस्स्वार्थ भाव का उदाहरण स्थापित करते हैं।
मत्सीनी का कहना है कि भावी युग का मजहब मानवता होगा। इसका उद्देश्य इस बात का प्रचार होगा कि परमात्मा की दृष्टि से प्रेम करो और दूसरों के सुख समझो। परमात्मा तुमसे यह नहीं पूछेगा कि तुमने मेरे लिए क्या किया, बल्कि यह कि तुमने अपने भाइयों के लिए क्या किया। दूसरों के उपकारार्थ काम करना ही सबसे बड़ी ईश्वर-पूजा है।
यों तो प्रायः सभी लोग परमात्मा से प्यार करते हैं, परंतु गीता के बारहवें अध्याय के श्लोक 121, 132 और 143 आदि में बताया गया है कि जो सब प्राणियों के लिए मित्रता और करुणा का भाव रखता है, ममता और अहंकार से रहित होता है, सुख-दुःख को बराबर समझता है, सदा धैर्य से काम लेता है और मन तथा बुद्धि मुझे अर्पित कर देता है, वह मुझको सबसे प्रिय है।
अबू बिन आदम की कहानी प्रसिद्ध है कि वह दिन-रात अपना समय मनुष्य की सेवा में बिताया करता था। एक रात उसे फरिश्ता नजर आया। उसके हाथ में एक सूची थी। पूछने पर उस देवदूत ने बताया कि इसमें उन लोगों के नाम हैं, जो प्रभु से प्यार करते हैं। अबू ने पूछा, क्या मेरा नाम इसमें है? उत्तर मिला, नहीं। वह कुछ दिन बहुत हैरान रहा कि यह क्या, मेरा काम तो प्रभु की प्रजा की सेवा है और मेरा नाम अभी तक इस सूची में नहीं आया। फिर एक रात वही देवदूत उसे दोबारा दिखाई दिया। अब उसके हाथ में एक दूसरी सूची थी। अबू ने पूछा कि यह सूची किन लोगों की है ? जवाब मिला कि यह उन लोगों की है जिनको प्रभु प्यार करता है। अबू ने देखा तो उसका नाम सबसे ऊपर था।
भगवद्गीता के अध्याय छह के श्लोक 30 में कहा गया है, जो मनुष्य मेरे अंदर सभी प्राणियों को और सभी प्राणियों में मुझको देखता है, वह मुझसे कभी पृथक् नहीं होता। जिसका किसी से कोई वैर नहीं, वही मेरा सच्चा भक्त है।
इस श्लोक की तरह कई अन्य स्थानों, उदाहरणार्थ- अध्याय ग्यारह में भी श्रीकृष्ण कहते हैं, मैं ही संसार की आत्मा हूँ। लोगों को यह पहेली समझने में बड़ी मुश्किल होती है कि एक मनुष्य संसार की आत्मा क्यों बन सकता है। इसको समझने के लिए हम एक दृष्टांत लेते हैं। मनुष्य की आत्मा को हम एक सूक्ष्म बिंदु मान लेते हैं। साधारण अवस्था में हर मनुष्य अपनी आत्मा को शरीर से सीमित समझता है। वह मनुष्य जो कुछ करता है, अपने शरीर के लिए ही। जब मनुष्य इससे उन्नत होकर अगली अवस्था में जाता है, तब वह अपनी आत्मा (सेल्फ) को फैलाकर अपने परिवार तक ले जाता है। इस अवस्था में वह परिवार को ही सबकुछ समझता है। -क्रमशः (हिफी)