तामस तप व सात्विक दान
धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (सत्तरहवां अध्याय-08)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके।-प्रधान सम्पादक
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थ वा तत्तामसमुदाहृतम्।। 19।।
प्रश्न-यहाँ ‘तपः’ के साथ ‘यत्‘ पद के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिस तप का वर्णन इसी अध्याय के पाँचवें और छठे श्लोक में किया गया है, जो अशाóीय, मनः कल्पित, घोर और स्वभाव से ही तामस है, जिसमें दम्भ की प्रेरणा से या अज्ञान से पैरों को पेड़ की डाली में बाँधकर सिर नीचा करके लटकना, लोहे के काँटों पर बैठना तथा इसी प्रकार की अन्यान्य घोर क्रियाएँ करके बुरी भावना से कष्ट सहना किया जाता है यहाँ ‘तामस तप’ के नाम से उसी का निर्देश है यही भाव दिखलाने के लिये ‘तपः’ के साथ ‘यत्’ पद का प्रयोग किया गया है।
प्रश्न-‘मूढग्राह’ किसको कहते हैं और उसके द्वारा तप करना क्या है?
उत्तर-तप के वास्तविक लक्षणों को न समझकर जिस किस भी क्रिया को तप मानकर उसे करने का जो हठ या दुराग्रह है, उसे ‘मूढग्राह’ कहते हैं और ऐसे आग्रह से किसी शारीरिक, वाचिक या मानसिक कष्ट सहन करने की तामसी क्रिया को तप समझकर करना ही मूढतापूर्ण आग्रह से तप करना है।
प्रश्न-आत्म सम्बन्धी पीड़ा के सहित तप करना क्या है?
उत्तर-यहाँ आत्मा शब्द मन, वाणी और शरीर-इन सभी का वाचक है और इन सबमें सम्बन्ध रखने वाला जो कष्ट है उसी को आत्म सम्बन्धी पीड़ा कहते हैं अतएव मन, वाणी और शरीर इन सबको या इनमें से किसी एक को अनुचित कष्ट पहुँचाकर जो अशाóीय तप किया जाता है, उसी को आत्म सम्बन्धी पीड़ा के सहित तप करना कहते हैं।
प्रश्न-दूसरों का अनिष्ट करने के लिये तप करना क्या है?
उत्तर-दूसरों की सम्पत्ति का हरण करने, उसका नाश करने, उनके वंश का उच्छेद करने अथवा उनका किसी प्रकार कुछ भी अनिष्ट करने के लिये जो अपने मन, वाणी और शरीर को ताप पहुँचाना है वही दूसरों का अनिष्ट करने के लिए तप करना है।
प्रश्न-यहाँ ‘वा’ अव्यय के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘वा’ अव्यय का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जो तप उपर्युक्त लक्षणों में से किसी एक लक्षण से भी युक्त है, वह भी तामस ही है।
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।। 20।।
प्रश्न-यहाँ ‘इति’ अव्यय के सहित ‘दातव्यम्’ पद के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-इनका प्रयोग करके भगवान् सत्त्वगुण की पूर्णता में निष्काम भाव की प्रधानता का प्रतिपादन करते हुए यह दिखलाते हैं कि वर्ण, आश्रम, अवस्था और परिस्थिति के अनुसार शाó विहित दान करना अपने स्वत्व को यथा शक्ति दूसरों के हित में लगाना मनुष्य का परम कर्तव्य है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो मनुष्य से गिरता है और भगवान् के कल्याणमय आदेश का अनादर करता है। अतः जो दान केवल इस कर्तव्य बुद्धि से ही दिया जाता है जिसमें इस लोक और परलोक के किसी भी फल की जरा भी अपेक्षा नहीं होती वही दान पूर्ण सात्त्विक है।
प्रश्न-यहाँ ‘देश’ और ‘काल’ शब्द किस देश काल के वाचक है?
उत्तर-जिस देश और जिस काल में जिस वस्तु की आवश्यकता हो उस वस्तु के दान द्वारा सबको यथा योग्य सुख पहुँचाने के लिये वही योग्य देश और काल है। जैसे जिस देश में, जिस समय दुर्भिक्ष या सूखा पड़ा हो, अन्न और जल का दान करने के लिये वही देश और वही समय योग्य देश काल है। चाहे वह तीर्थ स्थल या पर्वकाल न हो। इसके अतिरिक्त साधारण अवस्था में कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, मथुरा, काशी, प्रयाग, नैमिषारण्य आदि तीर्थ स्थान और ग्रहण, पूर्णिमा, अमावास्या, संक्रान्ति, एकादशी आदि पुण्यकाल जो दान के लिये शाóों में प्रशस्त माने गये हैं वे तो योग्य देश काल हैं ही। इन्हीं सबके वाचक ‘देश’ और ‘काल’ शब्द है।
प्रश्न-‘पात्र’ शब्द किसका वाचक है?
उत्तर-जिसके पास जहाँ जिस समय जिस वस्तु का अभाव हो, वह वहीं और उसी समय उस वस्तु के दान का पात्र है। जैसे भूखे, प्यासे, नंगे, दरिद्र, रोगी, आर्त, अनाथ और भयभीत प्राणी अन्न, जल, वस्त्र, निर्वाह योग्य धन, औषध, आश्वासन, आश्रय और अभयदान के पात्र हैं। आर्त प्राणियों की पात्रता में जाति, देश और काल का कोई बन्धन नहीं है। उनकी आतुर दशा ही पात्रता की पहचान है। इनके सिवा जो श्रेष्ठ आचरणों वाले विद्वान, ब्राह्मण, उत्तम ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तथा सेवाव्रती लोग हैं जिनको जिस वस्तु का दान देना शाó में कर्तव्य बतलाया गया है। वे तो अपने-अपने अधिकार के अनुसार यथाशक्ति धन आदि सभी आवश्यक वस्तुओं के दानपात्र हैं ही।
प्रश्न-यहाँ ‘अनुपकारिणे’ पद का प्रयोग किस उद्देश्य से किया गया है? क्या अपना उपकार करने वालों को कुछ देना अनुचित या राजस दान है?
उत्तर-जिसका अपने ऊपर उपकार है, उसकी सेवा करना तथा यथा साध्य उसे सुख पहुँचाने का प्रयास करना तो मनुष्य का कर्तव्य ही है। कर्तव्य ही नहीं, अच्छे मनुष्य उपकारी की सेवा किये बिना रह ही नहीं सकते। वे जानते हैं कि सच्चे उपकार का बदला चुकाने जाना तो उसका तिरस्कार करना है, क्योंकि सच्चे उपकार का बदला तो कोई चुका नहीं सकता इसलिये वे केवल आत्म सन्तोष के लिये उनकी सेवा करते हैं और जितनी करते हैं उतनी ही उनकी दृष्टि में थोड़ी ही जँचती है। वे तो कृतज्ञता से दे रहते हैं। श्री रामचरित मानस में भगवान् श्रीराम भक्त हनुमान से कहते हैं-
सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा।।
श्रीम˜ागवत में भगवान् श्रीकृष्ण अपने को श्री गोपीजनों का ऋणी घोषित करते हैं। ऐसी अवस्था में उपकार करने वालों को कुछ देना अनुचित या राजस कदापि नहीं हो सकता, परन्तु वह दान की श्रेणी में नहीं है। वह तो कृतज्ञता प्रकाश की एक स्वाभाविक चेष्टा होती है। उसे जो लोग दान समझते हैं, वे वस्तुतः उपकारी का तिरस्कार करते हैं और जो लोग उपकारी की सेवा नहीं करना चाहते, वे तो कृतघ्न की श्रेणी में हैं, अतएव अपना उपकार करने वाले की तो सेवा करनी ही चाहिये।
यहाँ अनुपकारी को दान देने की बात कहकर भगवान् यह भाव दिखलाते हैं कि दान देने वाला दान के पात्र से बदले में किसी प्रकार के जरा भी उपकार पाने की इच्छा न रक्खे। जिससे
किसी भी प्रकार का अपना स्वार्थ का सम्बन्ध मन में नहीं है, उस मनुष्य को
जो दान दिया जाता है-वही सात्त्विक है। इससे वस्तुतः दाता की स्वार्थ
बुद्धि का ही निषेघ किया गया
है।-क्रमशः (हिफी)