
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
सरस्वती नदी के तट पर था कुरुक्षेत्र
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय।। 1।।
प्रश्न-कुरुक्षेत्र किस स्थान का नाम है और उसे धर्मक्षेत्र क्यों कहा जाता है।
उत्तर-महाभारत, वन पर्व के तिरासिवें अध्याय में और शल्यपर्व के तिरपनवें अध्याय में कुरुक्षेत्र के माहात्म्य का विशेष वर्णन मिलता है। वहाँ इसे सरस्वती नदी के दक्षिण भाग और दृषद्वती नदी के उत्तर भाग के मध्य में बतलाया है। कहते हैं कि इसकी लंबाई-चैड़ाई पाँच-पाँच योजन थी। यह स्थान अंबाले से दक्षिण और दिल्ली से उत्तर की ओर है। इस समय भी कुरुक्षेत्र नामक स्थान वही है। इसका एक नाम समन्नत पश्चक भी है। शतपथ ब्राह्माणदि शाखों में कहा गया है कि यहाँ अग्नि, इन्द्र, ब्रह्मा आदि देवताओं ने तप किया था, राजा कुरू ने भी यहाँ बड़ी तपस्या की थी तथा यहाँ मरने वालों को उत्तम गति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त और भी कई बातें हैं, जिनके कारण उसे धर्म क्षेत्र या पुण्य क्षेत्र कहा जाता है।
प्रश्न-धृतराष्ट्र ने ‘मामका’ पद का प्रयोग किनके लिये किया है और ‘पाण्डवा’ का किनके लिये! और उनके साथ ‘समवेताः’ और ‘युयुत्सवः’ विशेषण लगाकर जो ‘किम् अकुर्वत’ कहा है- उसका क्या तात्पर्य है!
उत्तर-‘मामकाः’ पदका प्रयोग धृतराष्ट्र ने निज पक्ष के समस्त योद्धाओं सहित अपने दुर्योधनादि एक सौ एक पुत्रों के लिए किया है और ‘पाण्डवाः’ पद का युधिष्ठिर-पक्ष के सब योद्धाओं सहित युधिष्ठिारादि पाँचों भाइयों के लिए। ‘समवेताः’ और ‘युयुत्सवः’ विशेषण देकर और ‘किम् अकुर्वत’ कहकर धृतराष्ट्र ने गत दस दिनों के भीषण युद्ध का पूरा विवरण जानना चाहा है। कि युद्ध के लिये एकत्रित इन सब लोगों ने युद्ध का प्रारंभ कैसे किया? कौन किससे कैसे भिड़े, और किसके द्वारा कौन, किस प्रकार और कब मारे गये! आदि।
भीष्मपितामह के गिरने तक भीषण युद्ध का समाचार धृतराष्ट्र सुन ही चुके हैं, इसलिये उनके प्रश्न का यह तात्पर्य नहीं हो सकता कि उन्हें अभी युद्ध की कुछ भी खबर नहीं है और वे यह जानना चाहते हैं कि क्या
धर्म क्षेत्र के प्रभाव से मेरे पुत्रों की बुद्धि सुधर गयी और उन्होंने पाण्डवों का स्वत्व देकर युद्ध नहीं किया। अथवा क्या धर्मराज युधिष्ठिर ही धर्मक्षेत्र के प्रभाव से प्रभावित होकर युद्ध से निवृत्त हो गये? या अब तक दोनों सेनाएँ खड़ी ही हैं, युद्ध हुआ ही नहीं और यदि हुआ तो उसका क्या परिणाम हुआ? इत्यादि।
दृष्टा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्।। 2।।
प्रश्न-दुर्योधन को ‘राजा’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर- संजय के द्वारा दुर्योधन को ‘राजा’ कहे जाने मंे कई भाव हो सकते हैं-?
(क) दुर्योधन बड़े वीर और राजनीतिज्ञ थे तथा शासन का समस्त कार्य दुर्योधन ही करते थे।
(ख) संत सभी को आदर दिया करते हैं और संजय संत-स्वभाव थे।
(ग) पुत्र के प्रति आदर सूचक विशेषण का प्रयोग सुनकर धृतराष्ट्र को प्रसन्नता होगी।
प्रश्न-व्यूहरचनायुक्त पाण्डव-सेना को देखकर दुर्योधन आचार्य द्रोण के पास गया, इसका क्या भाव है?
उत्तर-भाव यह है कि पाण्डव-सेना की व्यूहरचना इतने विचित्र ढंग से की गयी थी कि उसको देखकर दुर्योधन चकित हो गये और अधीर होकर स्वयं उसकी सूचना देने के लिए द्रोणाचार्य के पास दौड़ गये। उन्होंने सोचा कि पाण्डव-सेना की व्यूहरचना देख-सुनकर धनुर्वेद के महान आचार्य गुरू द्रोण उनकी अपेक्षा अपनी सेना की और भी विचित्र रूप से व्यूहरचना करने के लिए पितामह को परामर्श देंगे।
प्रश्न-दुर्योधन राजा होकर स्वयं सेनापति के पास क्यों गये? उन्हीं को अपने पास बुलाकर सब बातें क्यों नहीं समझा दीं?
उत्तर-यद्यपि पितामह भीष्म प्रधान सेनापति थे, कौरव सेना में गुरू द्रोणाचार्य का स्थान भी बहुत उच्च और बड़े ही उत्तरदायित्व का था। सेना में जिन प्रमुख योद्धाओं की जहाँ नियुक्ति होती है, यदि वे वहाँ से हट जाते हैं तो सैनिक-व्यवस्था में बड़ी गड़बड़ी मच जाती है। इसलिये द्रोणाचार्य को अपने स्थान से हटाकर दुर्योधन ने ही उनके पास जाना उचित समझा। इसके अतिरिक्त द्रोणाचार्य वयोवृद्ध और ज्ञानवृद्ध होने के साथ ही गुरु होने के कारण आदर के पात्र थे, तथा दुर्योधन को उनसे अपना स्वार्थ सिद्ध करना था, इसलिए भी उन्हें सम्मान देकर उनका प्रियपात्र बनना उन्हें अभीष्ट था। पारमार्थिक दृष्टि से तो सबसे नम्रतापूर्ण सम्मानयुक्त व्यवहार करना कर्तव्य है ही, राजनीति में बुद्धिमान पुरुष अपना काम निकालने के लिये दूसरों का आदर किया करते हैं। इन सभी दृष्टियों से उनका वहाँ जाना उचित ही था।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां दु्रपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।। 3।।
प्रश्न-धृतद्युम्न दु्रपद का पुत्र है, आपका शिष्य है और बुद्धिमान है-दुर्योधन ने ऐसा किस अभिप्राय से कहा?
उत्तर-दुर्योधन बड़े चतुर कूटनीतिज्ञ थे। धृष्टाद्युम्न के प्रति प्रतिहिंसा तथा पाण्डवों के प्रति द्रोणाचार्य की बुरी भावना उत्पन्न करके उन्हें विशेष उत्तेजित करने के लिए दुर्योधन ने धृष्टाद्युम्न को द्रुपद पुत्र और आपका ‘बुद्धिमान शिष्य’ कहा। इन शब्दों के द्वारा वह उन्हें इस प्रकार समझा रहे हैं कि देखिये, दु्रपद ने आपके साथ पहले बुरा बर्ताव किया था और फिर उसने आपका वध करने के उद्देश्य से ही यज्ञ करके धृष्टाद्युम्न को पुत्र रूप से प्राप्त किया था। धृष्टाद्युम्न इतना कूटनीतिज्ञ है और आप इनते सरल
हैं कि आपको मारने के लिये पैदा होकर भी उसने आपके ही द्वारा धुनर्वेद की शिक्षा प्राप्त कर ली। फिर इस समय भी उसकी बुद्धिमानी देखिये
कि उसने आप लोगों को छकाने
के लिए कैसी सुन्दर व्यूहरचना
की है। ऐसे पुरूष को पाण्डवों ने अपना प्रधान सेनापति बनाया है। अब आप ही विचारिये कि आपका क्या कर्तव्य है। -क्रमशः (हिफी)