(महासमर की महागाथा-39) एक ही स्रोत से निकले सभी मजहब

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
अज्ञानता के युग में चमत्कारों के किस्से-कहानियों ने भी मजहबी तब्दीली में बहुत काम किया है। प्रचारकों और मिशनरियों के त्यागमय जीवन भी इसे सहायता देते रहे हैं। स्कूलों और अस्पतालों को भी मजहब फैलाने का साधन बनाया गया है। भारत में अत्यधिक गरीबी के कारण अकाल के दिनों में अनाथ बच्चों को ऐसे काबू में किया जाता है जैसे पक्षी पकड़ने वाले जाल के साथ दाना डालकर कबूतरों को फँसाते हैं।
इन बातों पर जितना अधिक विचार किया जाय उतना ही यह तथ्य अधिक स्पष्ट होता है कि जिन लोगों ने इन प्रभावों के अधीन होकर अपना मजहब बदला है, उन्होंने न तो कोई नैतिक उन्नति की है, न मजहब को चुनने में सोच-विचार से कुछ काम लिया है, न ही ये तरीके किसी मजहब के सच्चा होने का कोई तर्क हैं।
मजहबों की तुलनात्मक विद्या इस परिणाम पर पहुँची है कि विभिन्न मजहब एक ही स्रोत से निकले हैं और इनकी प्रकट भिन्नताएँ वास्तव में उन्हीं सिद्धांतों के उलट-पलट और बिगड़े हुए रूप हैं।
प्राचीनकाल में भारत, बेबीलोनिया और मिस्र ने उन्नति की थी। इनकी सभ्यताओं के अंदर बहुत हद तक पारस्परिक समानता दीख पड़ती है। जीवात्मा का आवागमन, समाज की वर्ण-व्यवस्था, देवताओं का पूजन-ये बातें सबमें मिलती हैं। फ्रांसीसी विद्वान् जकालियो, जो कि चंद्रनगर में मुख्य न्यायाधीश था, ने अपनी भारत में बाइबल नाम की पुस्तक में कई अकाट्य युक्तियों से यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अपने मजहब और कानून में प्राचीन मिस्रवासियों ने हिंदू धर्मशास्त्रों का अनुकरण किया है। इन बातों को यहूदियों ने मिस्र में निर्वासन के समय सीखा और अपनी तौरेत में दर्ज किया। इसके साथ ही यहूदी कबीले ने बेबीलोनिया की सभ्यता को भी अपने अंदर आत्मसात् कर लिया। फलतः चिरकाल तक उनमें देवताओं का पूजन प्रचलित रहा। देवताओं के संघर्ष में मॉलाक जेहोवा अंत में जीत गया और वह सबसे बड़ा माना जाने लगा।
प्राचीन ईरानियों का भारतीय आर्यों से बहुत घनिष्ठ संबंध था। एक विद्वान् डार्मेस्टेटर का कहना है कि जेंद अवेस्ता की शैली और विषय वेद से बहुत मिलते हैं। पारसी मत की रीतियों-होम, अग्नि, पूजा, पवित्र सूत्र (यज्ञोपवीत की तरह) आदि से सिद्ध होता है कि दोनों सभ्यताएँ किसी समय एक थीं। ईरानियों में यहूदी ईसाई बनने से पूर्व मिश्रा देवता की पूजा प्रचलित थी। यही देवता वेदों में मित्र कहलाता
है, जिसका अर्थ सूर्य है। इटली के लोगों का सबसे बड़ा त्योहार इस
देवता की जातीय पूजा थी, जो दिसंबर मास के अंत में, सूर्य के उत्तरायण के समय, की जाती थी। पहले-पहल ईसाइयों ने थोड़ी शक्ति प्राप्त करने
पर इस त्योहार को रोकने की
कोशिश की किंतु जब देखा कि
इटली के लोग इसे नहीं छोड़ेंगे तो बाद में ईसाइयों ने युक्तिपूर्वक इस त्योहार को ईसा का कल्पित जन्मदिन बताकर क्रिसमस का त्योहार बना लिया।
ईसा के जन्म से कुछ समय पूर्व बौद्ध प्रचारकों ने ईरान, सीरिया आदि में अपने विचारों का पर्याप्त प्रचार किया। अफगानिस्तान तो पूर्णरूप से बौद्ध मत के अधीन था। इधर बर्मा, चीन और जापान में भी बौद्ध मत जोर पकड़ रहा था। पक्षपात-रहित विद्वानों की राय है कि ईसा की शिक्षा में जो ऊँचे नैतिक तथा आध्यात्मिक विचार पाए जाते हैं, वे गौतम बुद्ध की शिक्षा के प्रचार के फल हैं। यही नहीं, शुरू के चर्च ने बौद्ध मत से बहुत से रिवाज नकल किए। मांक्स और नंज (अर्थात् भिक्षु और भिक्षुणियाँ), पादरियों की तसबीह या सुमिरनी, गिरजों में मूर्तियाँ, मूर्ति के सामने धूप-दीप जलाना आदि सभी रीतियाँ बौद्ध मत की थीं। सदियों बाद जब यूरोप के ईसाई पादरी पहले-पहल भारत में आए तब मंदिरों आदि में ये रिवाज देखकर वे चकित हो गए थे और समझने लगे थे कि शैतान उनकी नकलें उतरवा रहा है।
बौद्ध मत के निर्वाण, बुद्धि, योग, बुद्धि-युक्ति आदि शब्द भगवद्गीता में पाए जाते हैं। बौद्ध मत के अर्हत् और भगवद्गीता के स्थितप्रज्ञ के लक्षण सर्वथा एक जैसे हैं। भगवद्गीता के कई श्लोक, उदाहरणार्थ- अध्याय दो का श्लोक 691, अध्याय सात का श्लोक 292 और अध्याय बारह का श्लोक 153 अक्षरशः बौद्ध पुस्तकों में हैं।
अरब की सभ्यता और राजनीतिक शक्ति को संसार में इसलाम ने कायम किया। अरब की प्राचीन सभ्यता बेबीलोनिया की सभ्यता की एक शाखा थी। काल के हेर-फेर से यह बिखर चुकी थी। हजरत मुहम्मद ने एक ऐसी अग्नि उत्पन्न कर दी, जिसने लड़ने-झगड़नेवाले पुराने अंगों को जलाकर नया जीवन उत्पन्न कर दिया, जिसने दुनिया का तख्ता हिला दिया। यह जिंदगी यहूदी मत की बातों के द्वारा पैदा की गई, जिस पर हजरत मुहम्मद की पैगंबरी की मुहर लगी है। इसलाम के अंतर्गत पैगंबरी का सिद्धांत, संसार की उत्पत्ति, आदम और हौवा, दोजख और बहिश्त की कल्पना, हराम और हलाल, पाक और नापाक की धारणाएँ, सुन्नत की प्रथा, सूअर के विरुद्ध कस्म इत्यादि यहूदी मजहब की बातें हैं। फर्क इतना है कि यहूदी इन्हें अपने कबीले के लिए ही समझते रहे और उन्होंने कभी दूसरों को अपने अंदर लाने की कोशिश नहीं की, जबकि मुसलमानों ने दूसरों के अंदर इनका प्रचार करके उनको अपने मजहब में शामिल कर लिया। यह रोग तो केवल बौद्ध मत से शुरू हुआ है। अरब के पुराने निवासी, जो मुहम्मद साहब के विरोधी थे, उन पर ये बड़ी भारी आपत्ति करते थे कि जितने विषय उनकी पवित्र पुस्तक में बताए गए हैं, वे सब ढकोसले हैं। इसका उत्तर यह दिया जाता था कि इसका निर्माण खुदा करेगा।
मुहम्मद साहब अपने कार्य का विशेष महत्त्व समझते थे। कहते हैं, एक बार वे किसी ऐसी जगह थे, जहाँ की ज्यादातर आबादी ईसाइयों की थी। दैवयोग से वे यरूशलम (जो ईसाइयों का एक पवित्र स्थान है) की ओर मुँह करके नमाज पढ़ रहे थे। हजारों ईसाई उनके पीछे नमाज के लिए एकत्र हो गए। किसी ने
उन्हें बताया कि वे सब लोग यरूशलम (के प्रति श्रद्धा) के कारण उनके
पीछे हैं। दूसरी बार मुहम्मद साहब ने मुँह विपरीत दिशा में कर लिया।
सब लोग उठकर चले गए। केवल सात व्यक्ति वहाँ रह गए। मुहम्मद साहब ने हर एक को गले लगाया और कहा, तुम मेरे हो, वे सब मेरे न थे।-क्रमशः (हिफी)