अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-43) भाग्य और पुरुषार्थ

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
पंजाब में लाहौर नगर सदा के लिए स्मरणीय रहेगा, जहाँ चने बेचनेवाला एक लड़का पैदा हुआ, जिसका बेटा गुरु अर्जन देव और पोता गुरु हरगोविंद हुए। सदियों से बहती हुई हमलों की नदी को रोकने का उपाय गुरु तेग बहादुर ने बलिदान बताया। उसी पर आचरण करके गुरु गोविंद सिंह ने चिड़ियों को बाज बना दिया। गुरु गोविंद सिंह ने अपने पिता के बलिदान का वर्णन अत्यंत सुंदर शब्दों में किया, कीनों बड़ो कलु में साका, तिलक जंजु राखा प्रभु ताका। कई लोग एक- दो दृष्टांत देकर यह साबित करते हैं कि हिंदुओं ने गुरुओं का विरोध किया। गुरुओं ने हिंदुओं के अंदर कार्य किया। स्वाभाविक था कि उनके मित्र व शत्रु इस समाज में से निकलें। उनकी अपनी संतान में से भी उनके कठोर विरोधी पैदा हुए।
इन दिनों ईसाई मजहब हमारी युगों से बची आ रही प्राचीन सभ्यता को मिटा देने की कोशिश अपनी पूरी ताकत से करता आ रहा है। यूरोपीय जातियों ने अपने पूरे उत्कर्ष को ईसाइयत की मदद से नियोजित कर दिया है। इस कारण हिंदुत्व और ईसाइयत का संघर्ष लगातार जारी है। हम हिंदुत्व को ईसाइयत का मुकाबला डटकर करते हुए देख रहे हैं।
दैव और पुरुषार्थ अर्थात् तकदीर व तदबीर का विषय बड़ा पेचीदा है। ईसाई संप्रदाय मनुष्य को काम करने में स्वतंत्र मानता है तो प्रसिद्ध ईसाई सुधारक काल्विन के अनुयायी नियति या दैव में विश्वास रखते हैं। इसलाम के बड़े हिस्से का विश्वास तकदीर पर है। संसार के दो बड़े सेनानायक सीजर और नेपोलियन दैव में विश्वास रखते थे। नेपोलियन से एक बार प्रश्न किया गया, जब आप भाग्य पर इतना विश्वास रखते हैं तब इतना काम और उसकी तदबीरें क्यों करते हैं ? उसने उत्तर दिया, यह सब भी मुझसे मेरा भाग्य करवाता है। ऐसा करने के लिए मैं बाध्य हूँ। तथापि मनुष्य के अंदर एक चिंतन है, जो काम करते समय सदा से प्रतीत कराता है कि करने वाली जिम्मेवार शक्ति मैं ही हूँ।
हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र है और परतंत्र भी। कर्म तीन प्रकार के हैं-प्रारब्ध, क्रियमाण और संचित। पहले वे हैं, जो हमने या हमारे संबंध में दूसरों ने किए हैं और जिनका फल भोगने के लिए हम विवश हैं। क्रियमाण कर्म वे हैं, जो किए जाने पर ही
अपना फल देते जाते हैं। तीसरे
प्रकार के-संचित कर्म वे हैं जो हम करते हैं और जिनका फल जमा रहता है, अपने समय पर आकर प्रकट होता है।
भीष्म पितामह से प्रश्न किया गया, दैव बलवान् है या पुरुषार्थ? उन्होंने बड़ा गूढ़ उत्तर दिया, ध्यान देने पर मालूम होता है कि ये दोनों वास्तव में एक ही हैं। दैव या तकदीर उस छिपी हुई शक्ति का नाम है जिसका एक प्रकट रूप पुरुषार्थ या तदबीर है। एक व्यक्ति ने सुना कि खुदा मनुष्य को, वह जहाँ भी हो, जीविका पहुँचा देता है। वह मसजिद के अंदर जाकर एक गहरे गड्ढे में तीन दिन तीन रात तक छिपा बैठा रहा। चौथी रात वह भूख के मारे मरने लगा। जब सब लोग उठकर चले गए तो वह तंग आया हुआ उठा। उसका सिर एक चटाई से लगा और वह हिली, जिसे देखकर मुल्ला दौड़ा आया। गड्ढे में एक आदमी है, यह देखकर उसने उसे बाहर निकाला और खाना-पीना दिया। इस पर वह कहने लगा, खुदा जीविका पहुँचाता तो है, किंतु उसके लिए चटाई हिलाना भी जरूरी शर्त है।
हमारा प्रारब्ध तीन बड़े अंगों से बना है। उनमें से एक प्राकृतिक नियमों का है। हमने मानव शरीर धारण कर रखा है, यह हमारा प्रारब्ध है। इस पर हमारा कोई अधिकार नहीं। हम सभी दिशाओं में प्रकृति की शक्तियों से घिरे हुए हैं। हम उनका मुकाबला नहीं कर सकते। हम कितना ही चाहें और यत्न करें, पर अपनी शक्तियों को असीम नहीं बना सकते। हम चाहें तो उड़ नहीं सकते, आग में हाथ नहीं डाल सकते, तैरना जानते हुए भी गहरे पानी में नहीं जा सकते। हमारी आयु एक विशिष्ट सीमा से बढ़ नहीं सकती। हम मिट्टी या पत्थर खाकर जीवित नहीं रह सकते। खास स्थितियों में हमारा शरीर रोगों का शिकार बन जाता है। कर्म करने पर उनका फल हमें भोगना ही पड़ता है। थोड़ा अधिक या गलत ढंग का खाना खा लेने से बदहजमी जरूर होती है, व्यायाम न करने पर शरीर निर्बल और सुस्त होता है। ऐसी ही अन्य प्राकृतिक अवस्थाएँ हैं, जिनसे ऊपर हम नहीं जा सकते।
प्रारब्ध का दूसरा अंग हमारी विरासत है। यह हम अपने माता-पिता से विरासत में लेते हैं । इस विरासत में न केवल शारीरिक रोग सम्मिलित हैं, बल्कि बहुत हद तक नैतिक गुण भी। हमारे स्वभाव और आदतों में बहुत सा भाग हमारे माता-पिता का होता है। इसी कारण हिंदू शास्त्र गर्भाधान संस्कार को आवश्यक बतलाते हैं। इसके साथ ही वे माता के लिए अपनी इच्छा के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि संतान उत्पन्न करने के लिए विशेष निर्देश देते हैं।
चिकित्सा विज्ञान की उन्नति से यह सिद्ध हो गया है कि हमारे लगभग सारे नस-रोग माता-पिता से विरासत में मिलते हैं। इसी आधार पर अमेरिका के कई राज्यों में यह कानून बनाने की प्रथा शुरू हो गई कि पागलों और शराबखोरों की संख्या आगामी पीढ़ी में रोकने के लिए ऐसे लोगों की संतान पैदा करने की क्षमता को समाप्त कर दिया जाता है
प्रारब्ध का तीसरा अंग इर्द-गिर्द के हालात या परिस्थिति है। जापानी बालक क्यों खास जापानी मालूम पड़ता है? उसका रंग-रूप क्यों जापानी है? वह जापान से क्यों प्रेम करता है? जापान के लिए जीवित रहने और मरने में क्यों गर्व समझता है? केवल इस कारण कि उसके इर्द-गिर्द की परिस्थिति ने उसे ऐसा बना दिया है। इस बात को उसने सोच-विचारकर चुना या पसंद नहीं किया।
हमारे जीवन और हमारे दिमागों की बनावट में हमारी भूमि, हमारा समाज, शासन और दूसरी संस्थाओं का बड़ा भाग होता है। हम एक विशिष्ट देश में पैदा होते हैं, जिसका जलवायु, खुराक और भाषा विशेष प्रकार की है। हमने एक विशेष जाति में जन्म लिया, जिसका एक खास इतिहास है, मजहब है, परंपराएँ हैं। हमारा जन्म हुआ एक विशेष समाज में, जहाँ बचपन की शिक्षा के बारे में एक खास दृष्टिकोण है और जिसमें विशेष रीतियाँ प्रचलित हैं। इन सब चीजों पर हमारा कुछ वश नहीं होता।-क्रमशः (हिफी)

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