(महासमर की महागाथा-44) संसार प्रकृति के गुणों का खेल
(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
हरबर्ट स्पेंसर ने देखा कि सरलता और दूसरे नैतिक गुणों में कई जंगली कबीले सभ्य जातियों से अच्छे हैं। उसके सामने यह प्रश्न उठा कि कौन सी चीज नैतिक शक्ति पैदा करती है? खोज करने के बाद वह इस परिणाम पर पहुँचा कि जो जंगली कबीले सर्वथा सरदारों के शासन में रहते हैं, वे डर के कारण खुशामदी, झूठे और धोखेबाज होते हैं। जिनके ऊपर कोई ऐसा सरदार नहीं होता, वे स्वतंत्रता में रहकर सरल, निर्भीक और ईमानदार बन जाते हैं।
राष्ट्रों की अवस्था में प्रायः स्वतंत्र गवर्नमेंट राष्ट्र के नैतिक आचार को ऊँचा और एकतंत्र गवर्नमेंट निम्न बना देता है। यही हाल स्कूल के अंदर बच्चों का होता है। यदि अध्यापक डराने और मारनेवाला हो तो बच्चे स्वभावतः झूठे हो जाते हैं। प्रेम करने वाला
अध्यापक होने पर वे नेक और सत्यवादी बनते हैं। सभी गुणों की जननी दिलेरी है, जो खराब परिस्थिति के अंदर कभी पैदा नहीं हो सकती। आयरलैंड या इटली में रहते हुए गरीब मजदूर वैसे-के-वैसे दरिद्र और दब्बू रहते हैं। वहीं तुच्छ समझे जाने वाले आदमी जब अमेरिका की भूमि पर कदम रखते हैं, महीना बीतते-बीतते उनका रहन-सहन बदल जाता है और वे स्वयं को बादशाह के समान समझने लगते हैं।
भगवद्गीता के अध्याय तीन के श्लोक 261, 271 और 283 में, अध्याय पाँच के श्लोक 74, 85 और 96 में,
अध्याय तेरह के श्लोक 297 में, अध्याय चौदह के श्लोक 198 में तथा अध्याय अठारह के श्लोक 599 और 6010 में कहा गया है, श्यह संसार प्रकृति के गुणों का एक खेल है। अध्याय ग्यारह के श्लोक 28 और 2912 में तो स्पष्ट कह दिया गया है, जैसे नदियाँ समुद्र की तरफ बहती हैं और पतंगा मजबूर होकर दीये की रोशनी पर जल मरता है वैसे ही ये सब योद्धा अपने सर्वनाश के हेतु मेरे मुँह में आ रहे हैं। वास्तव में हम कर्म करने वाले नहीं हैं, बल्कि प्रकृति हमसे कार्य कराती है। अठारहवें अध्याय में कहा गया है, हे अर्जुन! तुम लड़ाई से कभी हट नहीं सकते। तुम्हारा स्वभाव ही तुमसे युद्ध कराएगा।
भगवद्गीता जहाँ सब मनुष्यों को प्रकृति के अंदर बँधा हुआ बताती है वहाँ उसके तीसरे अध्याय के श्लोक 19 से लेकर 251 तक के श्लोकों में यह बात बतलाई गई है, फल की इच्छा का त्याग कर देने वाला ज्ञानी वास्तविक स्वतंत्रता को प्राप्त करता हैय इसलिए तुम अपना मन भटकाए बगैर इस कर्म में लग जाओ। इसी प्रकार अध्याय चार के श्लोक 14 से 192 में कहा गया है, इन कर्मों का कोई असर मुझ पर नहीं होता। जो मुझको जान लेता है वह भी कर्म के फंदे से बच जाता है। जैसे आग बीज के उगने की शक्ति को नष्ट कर देती है, ऐसे ही ज्ञान कर्म के अंदर फैलने की शक्ति को नष्ट कर देता है। जिस मनुष्य में कर्म-रूपी बीज जल गया हो, वही कर्म के फंदे से मुक्त होकर स्वतंत्र हो सकता है।
जो लोग ईश्वर को सगुण मानते हैं, उनके सामने एक और बड़ी कठिनाई आती है। ईश्वर के गुणों में सर्वज्ञता एक विशेष गुण माना जाता है। इस गुण ने देर से मजहबों के नेताओं में एक हलचल मचा रखी है। वह इस प्रकार-अगर परमात्मा सर्वज्ञ है तो उसे होनेवाली हर बात का ज्ञान है, इसलिए वे कर्म भी, जो आगामी जीवन में हम करेंगे, उसे ज्ञात होते हैं। इस प्रकार जिस चीज का कोई अस्तित्व इस समय नहीं, वह भविष्य के उसके ज्ञान में अस्तित्व रखती है। यदि वह किसी मनुष्य का ज्ञान होता तो निस्संदेह इसका हमारे उन भावी कर्मों के करने या न करने पर कुछ प्रभाव नहीं पड़ सकता था परंतु परमात्मा का ज्ञान अटल और दोष-रहित है, अर्थात् जो कुछ उसके ज्ञान में विद्यमान है, वह जरूर घटित होगा। इस स्थिति में मनुष्य बिलकुल परतंत्र यानी विवश हो जाता है। यह कहना कि ईश्वर केवल उसी को जानता है जो हम अपनी स्वतंत्रता से करेंगे, दो परस्पर विरोधी बातें एक साथ करना है। यदि हम कर्म अनिवार्य रूप से करेंगे तो उनका स्वतंत्रता से करना निरर्थक है। अगर मनुष्य बिलकुल परतंत्रता से कर्म करता है तो उसके लिए पुण्य और पाप का कुछ अर्थ नहीं रहता। मजहबों के प्रणेता दोनों तरफ बड़ी कठिनाई में पड़ जाते हैं । इसका कोई हल उन्हें नहीं मिलता।
वस्तुतः हमें ईश्वर के अस्तित्व- वह क्या है ? और उसके गुणों का कोई ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिए उनको विचार में लाना या उन पर वाद-विवाद करना हमारे सामर्थ्य से बाहर है। अपनी कल्पना से विशेष गुण उसके अंदर डालकर हम अपने लिए मुश्किल पैदा कर लेते हैं। स्वामी शंकराचार्य कहते हैं कि ज्ञान के लिए ज्ञाता (जाननेवाला) और ज्ञेय (जानने योग्य चीज) -इन दो की जरूरत है। ब्रह्म की दृष्टि से आत्मा एक ही है। इस कारण ज्ञेय के न होने से ज्ञान का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता । भगवद्गीता के अध्याय तेरह के श्लोक 17 में भी यही विचार है, मैं ही ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान हूँ।
अध्याय ग्यारह के श्लोक 403 में कहा गया है, तू सबमें है, इसलिए सब तू ही है। ईश्वर की सर्वव्यापकता का क्या अर्थ है ? जो वस्तु सर्वव्यापक है वही सर्व या सब है। जर्रे जर्रे के अंदर वह है। परमाणु के अंदर वह है। क्या कोई चीज हो सकती है, जिसमें वह न हो ? यदि कुछ नहीं तो सबकुछ वही है। सर्वव्यापकता का यह गुण भी हमारे लिए मुश्किल पैदा कर देता है।
यदि सामाजिक और चारों ओर की परिस्थिति का ध्यानपूर्वक विचार किया जाय तो उसके अंदर भी मनुष्य की स्वतंत्रता का बड़ा भाग मिलता है। प्रथम तो यदि सामाजिक और भौगोलिक अवस्थाएँ मनुष्य को बनाने में बड़ा हाथ रखती हैं तो इसका अर्थ यही है कि इस सामाजिक समूह में सम्मिलित होने से समाज का हर सदस्य भी शेष सब पर अपना प्रभाव डालता है। इस प्रभाव का परिणाम हर सदस्य की व्यक्तिगत हैसियत पर अवलंबित है। ऐसे मनुष्यों के उदाहरण मिलते हैं जो गुलामों के समाज में पैदा हुए और उन्होंने अपने समाज से गुलामी के प्रभाव को दूर कर दिया। एक-एक आदमी के स्वार्थ या ईर्ष्या अथवा उनके विपरीत त्याग ने इस जाति के आनेवाले इतिहास को बिलकुल पलट दिया। रघुनाथ राव की स्त्री नंदीबाई की ईर्ष्या ने जयचंद के समान मराठा साम्राज्य का विनाश कर दिया। लूथर ने बाइबिल की एक प्रति पढ़कर कैथोलिक संप्रदाय के विरुद्ध सुधार आंदोलन की नींव रखी। यद्यपि वह स्वयं एक मामूली भिक्षु था। एक बार तो उसने ईसाइयत को उसकी जड़ों से हिला दिया। स्वामी दयानंद मूर्तिपूजा करने वाले ब्राह्मणों के यहाँ पैदा हुए। शिवरात्रि की रात को चूहों ने शिव की मूर्ति का अपमान किया। इस घटना का प्रभाव स्वामीजी के मन पर पड़ा कि हिंदू जाति में क्रांति आ गई। यही नहीं, जब एक साधारण मनुष्य भी अधर्म या पाप के लिए सजा पाता है तो उसके परिवारवालों, मित्रों और कारोबार के संबंधों पर कई दृष्टियों से प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त हर आदमी अपने समाज और परिस्थिति को जब चाहे तब बदल नहीं सकता।- क्रमशः (हिफी)