अध्यात्म

(महासमर की महागाथा-52) संकट के समय राजनीति

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
यदि सुबह उठकर नहाना धर्म है तो देशवासियों के स्वास्थ्य की रक्षा के कानून जारी करना, जिनसे प्लेग, हैजा आदि से दूर होकर लाखों जानें बचें, धर्म क्यों नहीं? अगर चोरी न करना धर्म है तो देश से दरिद्रता और भूख दूर करने के लिए कला-कौशल को उन्नति देना धर्म कैसे नहीं ? भूख को सब पापों की जड़ कहा गया है।
शिक्षा एक नदी की लहर के समान है। वह सींचकर हमें समृद्ध कर सकती है और बाढ़ की तरह हमारे नगरों को बरबाद भी कर सकती है। इसकी प्रणाली को ठीक रखना धर्म क्यों नहीं? भाषा हमारे धर्म की रक्षक है। अपनी संतान की शिक्षा अपनी भाषा में करवाना और ज्ञान के उत्तर ग्रंथ उसमें जारी करना धर्म कैसे नहीं?
राजनीति का एक और पहलू है, जो संकट और मुसीबत के समय शत्रुओं के साथ बरताव के संबंध में है। महाभारत में इसका उल्लेख है। वर्तमान राजनीति का यह एक प्रकार से बीज मंत्र है। एक चूहे के उदाहरण से इसे स्पष्ट किया गया है । उस चूहे ने अपने तीन शत्रुओं-बिल्ली, नेवला और उल्लू-से एक साथ घिरे रहने पर भी चालाकी से अपनी जान बचाई।
एक शिकारी जाल लगाकर पक्षी फँसाया करता था। उसमें एक बार एक जंगली बिल्ली फँस गई। एक चूहा वहाँ रहा करता था। वह बाहर निकला और शिकारी ने मांस का जो टुकड़ा वहाँ डाला था, उसे कुतरने लगा। इतने में नेवले ने उसे ताड़ लिया और पास ही खड़ा हो गया। चूहे की दृष्टि ऊपर जो गई तो उसे अपना एक और शत्रु उल्लू दिखाई दिया, जो पेड़ पर बैठा था। चूहा डर गया। जाए तो किधर जाए? दो शत्रु ताक में थे, तीसरा-बिल्ली-मुसीबत में फँसी थी। चूहे ने सोचा, इस समय नीति से काम लेकर शत्रुओं से बचना ही दूरदर्शिता होगी। वह बिल्ली के पास गया और बोला कि मैं इस समय तेरी सहायता कर सकता हूँ, अगर तू मुझे हानि न पहुँचाए। बिल्ली की जान पर बनी हुई थी। वह इस प्रस्ताव पर बहुत खुश हुई और चूहे की खुशामद करने लगी। वह बोली, तू जो भी कहेगा, मैं करूँगी। दोनों में मित्रता हो गई। चूहा बिल्ली के पास चला गया। उल्लू और नेवला हैरान हो गए। किंतु अब उन्हें साहस न था कि चूहे को बिल्ली से छीन लें। दोनों निराश होकर चले गए। चूहे ने धीरे-धीरे अपने दाँतों से जाल को काटना शुरू किया। उसका भाव यह था कि सुबह होने तक वह यह काम करता रहे, जब तक वह शिकारी न आ जाए।
प्रातःकाल हुआ। शिकारी आता दिखाई देने लगा। बिल्ली गिड़गिड़ाने लगी कि भैया, जल्दी करो, वह आ रहा है। चूहा बोला, घबराओ मत, मैं कर रहा हूँ। बिल्ली बहुतेरा कहती रही, किंतु उसने अपनी गति नहीं बढ़ाई। जरा सी गाँठ बाकी थी। जब शिकारी सिर पर आया तो चूहे ने वह भी काट दी। बिल्ली को अपनी जान का खतरा था, वह झट वहाँ से भाग निकली और चूहा भी मजे से अपने बिल में घुस गया। बिल्ली बच तो गई, किंतु उसे भूख लगी थी। वह चूहे के बिल के पास आई और कहने लगी, भाई चूहे! तुमने मेरी जान बचाई है। एक बार बाहर निकलो, ताकि मैं तुमसे प्रेम करूँ। चूहा बोला, तुम मेरी शत्रु हो। उस समय तुम्हारा भी स्वार्थ था, मेरा भी। इसलिए हमारी मित्रता हो गई। अब मेरे साथ तुम्हारा क्या प्रयोजन है? तुम बाहर से ही प्रेम की बातें करो, मैं सुन लूँगा, किंतु बाहर नहीं आऊँगा। दोनों के ये संवाद बड़े रोचक और शिक्षाप्रद हैं।
बलवान् शत्रु निर्बल शत्रु को किस प्रकार से गिराने की कोशिश करते हैं, महाभारत में इसका उल्लेख अर्जुन के संबंध में पाया जाता है। जब पांडव द्रौपदी को साथ लिये वन को जा रहे थे तो व्यासजी जाकर उनसे मिले। उन्होंने युधिष्ठिर को एक तरफ ले जाकर उपदेश देना शुरू किया। उन्होंने कहा, तुम लोगों को अपने अधिकार पुनः प्राप्त करने के लिए अपने आपको तैयार करना चाहिए। तुम क्षत्रिय हो। केवल वन में रहने से सफलता की कोई आशा नहीं दिखती। तुमको शस्त्र- विद्या में पूर्ण अभ्यास करना चाहिए, ताकि तुम अपना उद्देश्य पूरा कर सको। अर्जुन को एक विशेष स्थान पर जंगल में रहकर शस्त्राभ्यास करने के लिए रवाना किया गया। उधर दुर्योधन को इस योजना का पता लग गया। उसने अर्जुन को इससे हटाने के लिए कई उपाय बरते। पहला उपाय था उपदेश। दुर्योधन के आदमी ब्राह्मण के वेश में अर्जुन के पास पहुँचे और उसे समझाने लगे, तुम इस पवित्र वन में शस्त्रों का अभ्यास क्यों करते हो? यहाँ के पक्षी निर्दोष और सीधे हैं, उनको डराने का क्या लाभ? तुम वनवासी हो, यहाँ ऋषियों का जीवन व्यतीत करो। शस्त्रों की यहाँ क्या आवश्यकता है? तुम मोक्ष की इच्छा करो। अर्जुन ने उत्तर दिया, न मुझे मोक्ष की इच्छा है, न भोग की। मैं न सुख चाहता हूँ, न धन। मैं अपने भाइयों को जंगल में छोड़ आया हूँ और अपने शत्रु से बदला लेने की तैयारी कर रहा हूँ। मेरा धर्म तो बस यही है। उन्हें अपना सा मुँह लेकर लौटना पड़ा।
दूसरा उपाय अर्जुन को डराने का था। ऐसे सिखाए हुए जंगली पशु उसके रहने की गुहा में भेजे गए, जो जाकर उसे मार डालें। अर्जुन ने बाणों से उन्हें समाप्त कर दिया। तीसरा उपाय था सुंदर स्त्री भेजकर उसे गिराने का। वेश्या ने जाकर बहुत प्रलोभन दिए, परंतु अर्जुन सच्चा तपस्वी था। वह कहने लगा, मैं यह तप कर रहा हूँ, स्त्री मुझे माता ही दिखाई देती है।
इन सब धोखों से बचते हुए अर्जुन ने अपने तप में पूर्ण सिद्धि प्राप्त की। राजनीतिक संसार में सदा से ही लालच, भय और स्त्री-प्रलोभन शत्रु को गिराने के लिए इस्तेमाल किए गए हैं। राजनीतिक चरित्र उसी का है, जो उनसे बचने की हिम्मत रखता हो। इन प्रलोभनों के अंदर फँसकर मनुष्य जाति-द्रोह करता है परंतु यह भी स्मरण रखना चाहिए कि प्रत्येक राजनीतिक कार्य में पर्याप्त बुद्धि या विचार का न होना इतनी ही हानि करता है जितना विद्रोह। मूर्खता और विद्रोह एक ही प्रकार के शत्रु हैं। -क्रमशः (हिफी)

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