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विराट रूप देख अर्जुन की विनय प्रार्थना

धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे (ग्यारहवां अध्याय-13)

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)

रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

प्रश्न-अर्जुन का नाम ‘किरीटी’ क्यों पड़ा था?
उत्तर-अर्जुन के मस्तक पर देवराज इन्द्र का दिया हुआ सूर्य समान प्रकाशमय दिव्य मुकुट सदा रहता था इसी से उनका एक नाम ‘किरीटी’ पड़ गया था।
प्रश्न-‘कृतांजलिः‘ विशेषण देकर पुनः उसी अर्थ के वाचक ‘नमस्कृत्वा’ और ‘प्रणम्य’ इन दो पदों के प्रयोग का क्या भाव है?
उत्तर-‘कृतांजलिः‘ विशेषण देकर और उक्त दोनों पदों का प्रयोग करके संजय ने यह भाव दिखलाया है कि भगवान् के अनन्त ऐश्वर्यमय स्वरूप देखकर उस स्वरूप के प्रति अर्जुन की बड़ी सम्मान्य दृष्टि हो गयी थी और वे डरे हुए थे ही। इसी से वे हाथ जोडे़ हुए बार-बार भगवान् को नमस्कार और प्रणाम करते हुए उनकी स्तुति करने लगे।
प्रश्न-‘सग˜दम्’ पद का क्या अर्थ है और यह किसका विशेषण है? तथा यहाँ इसका प्रयोग किस अभिप्राय से किया गया है।
उत्तर-‘सग˜दम्’ पद क्रिया विशेषण है और अर्जुन के बोलने का ढंग समझाने के लिये ही इसका प्रयोग किया गया है। अभिप्राय यह है कि अर्जुन जब भगवान् की स्तुति करने लगे तब आश्चर्य और भय के कारण उनका हृदय पानी-पानी हो गया, नेत्रों में जल भर आया, कण्ठ रूक गये और इसी कारण उनकी वाणी गदगद हो गयी। फलतः उनका उच्चारण अस्पष्ट और करुणापूर्ण हो गया।
स्थाने हृषीकेश तब प्रकीत्र्या जगत्प्रहृष्यत्यनुरज्यते च।
रक्षांति भीतानि दिशो द्रवन्ति सर्वे नमस्यन्ति च सिद्ध संघाः।। 36।।
प्रश्न-‘स्थाने’ पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-‘स्थाने’ अव्यय है और इसका औचित्य के अर्थ में प्रयोग हुआ है। अभिप्राय यह है कि आपके कीर्तनादि से जो जगत् हर्षित हो रहा है और प्रेम कर रहा है, साथ ही राक्षस गण आपके अद्भुत रूप और प्रभाव को देखकर डर के मारे इधर-उधर भाग रहे हैं एवं सिद्धों के सबके सब समुदाय आप को बार-बार नमस्कार कर रहे हैं-यह सब उचित ही है, ऐसा होना ही चाहिये, क्योंकि आप साक्षात् परमेश्वर हैं।
प्रश्न-यहाँ ‘प्रकीत्र्या’ पद का क्या अर्थ है तथा उससे जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग कर रहा है इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-कीर्ति शब्द यहाँ कीर्तन का वाचक है। उसके साथ ‘प्र’ उपसर्ग का प्रयोग करके उच्च स्वर से कीर्तन करने का भाव प्रकट किया गया है। अभिप्राय यह है कि आपके नाम, रूप, गुण, प्रभाव और महात्म्य के उच्च स्वर से कीर्तन द्वारा यह चराचरात्मक समस्त जगत् अत्यन्त प्रसन्न हो रहा है और सभी प्राणी प्रेम में विह्वल हो रहे हैं।
प्रश्न-भगवान् के विराट रूप को केवल अर्जुन ही देख रहे थे या सारा जगत यदि सारा जगत् नहीं देख रहा था तो सबके हर्षित होने की, अनुराग करने की और राक्षसों के भागने की एवं सिद्धों के नमस्कार करने की बात अर्जुन ने कैसे कही?
उत्तर-भगवान् के द्वारा प्रदान की हुई दिव्य दृष्टि से केवल अर्जुन ही देख रहे थे, सारा जगत् नहीं। जगत् का हर्षित और अनुरक्त होना, राक्षसों का डरकर भागना और सिद्धों का नमस्कार करना-ये सब विराट रूप के ही अंग हैं। अभिप्राय यह है कि यह वर्णन अर्जुन को दिखलायी देने वाले विराट रूप का ही है बाहरी जगत् का नहीं। उनको भगवान् का जो विराट रूप दीखता था, उसी के अंदर ये सब दृश्य दिखलायी पड़ रहे थे। इसी से अर्जुन ने ऐसा कहा है।
कस्माच्च ते न नमेरन्महात्मन् गरीयसे ब्रह्मणोऽप्यादिकत्र्रे।
अनन्त देवेश जगन्निवास त्वमक्षरं सदसत्तपरं यत्।। 37।।
प्रश्न-‘महात्मन्’, ‘अनन्त’, ‘देवेश’ और ‘जगन्निवास’ इन चार सम्बोधनों का प्रयोग करके अर्जुन ने क्या भाव दिखलाया है?
उत्तर-इनका प्रयोग करके अर्जुन नमस्कार आदि क्रियाओं का औचित्य सिद्ध कर रहे हैं। अभिप्राय यह है कि आप समस्त चराचर प्राणियों के महान् आत्मा हैं, अन्तरहित हैं-आपके रूप, गुण और प्रभाव आदि की सीमा नहीं है आप देवताओं के भी स्वामी हैं ओर समस्त जगत् के एकमात्र परमाधार हैं। यह सारा जगत् आपमें ही स्थित है तथा आप इसमें व्याप्त हैं। अतएव इन सबका आपको नमस्कार आदि करना सब प्रकार से उचित ही है।
प्रश्न-‘गरीय से’ और ‘ब्रह्मणोऽप्प्यादि कत्र्रे का क्या भाव है?
उत्तर-इन दोनो ंपदों का प्रयोग भी नमस्कार आदि का औचित्य
सिद्ध करने के उद्देश्य से ही किया गया है। अभिप्राय यह है कि आप सबसे बड़े और श्रेष्ठतम हैं जगत की तो बात ही क्या है, समस्त जगत् की रचना करने वाले ब्रह्मा के भी आदि रचयिता आप ही हैं। अतएव सबके परम पूज्य और परम श्रेष्ठ होने के कारण इन सबका आपको नमस्कारादि करना उचित ही है।
प्रश्न-आप आदिदेव और सनातन पुरुष हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे भगवान् की स्तुति करते हुए अर्जुन ने यह बतलाया है कि आप समस्त देवों के भी आदिदेव हैं और सदा से और सदा ही रहने वाले सनातन नित्य पुरुष परमात्मा हैं।
प्रश्न-आप इस जगत् के परम आश्रय हैं, इस कथन का क्या भाव है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि यह सारा जगत् प्रलयकाल में आप में ही लीन होता है और सदा आपके ही किसी एक अंश में रहता है इसलिये आप ही इसके परम आश्रय हैं
प्रश्न-‘वेत्ता’ पद का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इससे अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि आप इस भूत, वर्तमान और भविष्य समस्त जगत् को यथार्थ तथा पूर्णरूप से जानने वाले, सबके नित्य दृष्टा हैं इसलिये आप सर्वज्ञ हैं, आपके सदृश सर्वज्ञ कोई नहीं है।
प्रश्न-‘वेद्यम’ पद का क्या भाव है?
उत्तर-‘वेद्यम’ पद से अर्जुन ने यह भाव दिखलाया है कि जो जानने के योग्य है, जिसको जानना मनुष्य जन्म का परम उद्देश्य है, तेरहवें
अध्याय में बारहवें से सतरहवें श्लोक तक जिस श्रेय तत्त्व का वर्णन किया गया है-वे साक्षात् परब्रह्म परमेश्वर आप ही हैं।-क्रमशः (हिफी)

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