अध्यात्म

माँ सरस्वती के वरद पुत्र निराला

(मोहित स्वामी-हिफी फीचर)
बसंत पंचमी पर जब माँ सरस्वती का सृजन हुआ, उसी तिथि पर बंगाल प्रेसीडेंसी के मिदनापुर में एक यशस्वी बालक का जन्म हुआ था। यही बालक आगे चलकर सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के नाम से जाना गया। उनके पिता पंडित राम सहाय त्रिपाठी उत्तर प्रदेश के उन्नाव जनपद में गढ़ा कोला गांव से मूलरूप से जुड़े थे। इसलिए निराला की स्मृतियां यहां भी संजोई गयी हैं। गढ़ा कोला में निराला जयंती बहुत धूमधाम से मनायी जाती है। अफसोस की बात यह है कि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की काव्य कला को उनके जीवन काल में सम्मान नहीं मिल पाया। उनका जीवन अभावों मंे गुजरा। निराला की प्रारंभिक कविताएं गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से प्रभावित थीं लेकिन बाद में लिखी गयी राम की शक्ति पूजा अध्यात्म और निस्वार्थ कर्म का संदेश देती है। निराला ने कविता कुकुरमुत्ता में पूंजीवाद की जमकर आलोचना की तो जूही की कली और संध्या सुंदरी में प्राकृतिक दुनिया की खूबसूरती बिखरी हुई है। निराला जी की जयंती मनाते समय हम यह सुनिश्चित करें कि अब हिन्दी साहित्य में कोई निराला अभावों से जूझते हुए विदा नहीं लेगा।
निराला का जन्म 21 फरवरी 1899 को बंगाल प्रेसीडेंसी के मिदनापुर के महिषादल में हुआ था । उस दिन बसंत पंचमी थी। निराला के पिता पंडित रामसहाय त्रिपाठी सरकारी कर्मचारी थे जब वे बहुत छोटे थे, तब उनकी माँ का निधन हो गया था। निराला की शिक्षा बंगाली माध्यम से महिषादल राज हाई स्कूल में हुई , जो कि पूर्व मेदिनीपुर की एक रियासत थी। निराला का नाम राज हाई स्कूल महिषादल में दर्ज है।
इसके बाद, वे लखनऊ आये और फिर उन्नाव जिले के गढ़ाकोला गाँव में चले गए, जहाँ से उनके पिता मूल रूप से ताल्लुक रखते थे। बड़े होकर, उन्होंने रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और रवींद्रनाथ टैगोर जैसी हस्तियों से प्रेरणा प्राप्त की।
निराला ने अपनी पत्नी मनोहरा देवी के आग्रह पर हिंदी सीखी। उन्होंने बंगाल में उपलब्ध दो हिंदी पत्रिकाओं महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रभावशाली पत्रिका सरस्वती और मर्यादा, जो वाराणसी से संपादित होती थीं, का अध्ययन करके स्वतंत्र रूप से आधुनिक मानक हिंदी के व्याकरण को समझना शुरू किया। जल्द ही उन्होंने बंगाली के बजाय हिंदी में कविताएं लिखना शुरू कर दिया। 22 वर्ष की आयु में उनकी पत्नी और बाद में उनकी बेटी सरोज की भी मृत्यु हो गई। उनका अधिकांश जीवन अभाव में बीता। उन्होंने समाज में सामाजिक अन्याय और शोषण के खिलाफ जोरदार तरीके से लिखा। चूंकि वे कमोबेश विद्रोही थे, जीवन और साहित्य में, इसलिए स्वीकृति आसानी से नहीं मिली। उन्हें जो मिला वह था उपहास और अभाव। निराला की शुरुआती रचनाएँ पश्चिम बंगाल की साहित्यिक संस्कृति और रवींद्रनाथ टैगोर के प्रभाव से प्रभावित थीं। उनकी शुरुआती कविताएँ बंगाली पुनर्जागरण और प्रासंगिक आधुनिकता को दर्शाती हैं , जो बाद के दशकों में हिंदी साहित्य में उभरे रहस्यवादी- रोमांटिकवाद या छायावाद से मेल खाती हैं। समय के साथ, निराला ने एक विशिष्ट शैली विकसित की, जो अपने शुरुआती प्रभावों से अलग थी और मुक्त छंद सहित कई साहित्यिक विधाओं की खोज की। मतवाला पत्रिका का पहला अंक (24 नवम्बर 1923), जिसमें निराला की कविता संध्या सुन्दरी प्रकाशित हुई थी। निराला की कविताओं में प्रकृति की जीवंत आत्माओं के साथ गहरा संबंध दर्शाया गया है। निराला ने प्राकृतिक दुनिया को न केवल एक महिला के रूप में बल्कि एक मौलिक रूप से कामुक इकाई के रूप में भी चित्रित किया, जैसा कि संध्या सुंदरी, जूही की काली और यामिनी जागी जैसी रचनाओं में देखा गया है। निराला की कविता और गद्य भी लोकलुभावनवाद में गहराई से निहित थे। उनका उद्देश्य शोषण, अन्याय और अत्याचार से मुक्त समाज बनाना था। सामाजिक सुधार के प्रति यह प्रतिबद्धता निराला को एकमात्र छायावादी कवि बनाती है, जिनकी रचनाएँ छायावाद के बाद के काल के काव्य आंदोलनों, जैसे प्रयोगवाद और प्रगतिवाद से जुड़ती हैं। उनकी कविता राम की शक्ति पूजा राम के संघर्षों के माध्यम से निस्वार्थ कर्म की खोज करती है, जो लचीलेपन और सामाजिक संघर्ष के व्यापक विषयों के लिए एक रूपक के रूप में कार्य करती है। अपनी बेटी सरोज की असामयिक मृत्यु के बाद लिखी गई सरोज स्मृति ने उनके भावनात्मक प्रवाह को गहरे अफसोस और दुख की भावना के साथ व्यक्त किया। इसके शांत उपचार और चिंतनशील गरिमा ने इसे महाकाव्य का दर्जा दिया, और यह हिंदी साहित्य में सबसे बेहतरीन शोकगीतों में से एक रहा। कुक्कुरमुत्ता में उन्होंने पूंजीवाद की आलोचना करने के लिए निम्न परिस्थितियों में उगने वाले मशरूम के रूपक का इस्तेमाल किया । यह कविता, एक हल्की-फुल्की कहानी प्रस्तुत करते हुए, सामाजिक-आर्थिक अन्याय की आलोचनात्मक जांच करती है। निराला की गद्य रचनाओं में प्रमुख हैं, कुल्ली भाट और चतुरी कमरा। ये रचनाएँ जड़ जमाए पदानुक्रम और जाति-बद्ध संरचनाओं की आलोचना करती हैं। कुल्ली भाट में वे अपने व्यक्तिगत अनुभवों पर विचार करते हैं, जिसमें उनकी पत्नी का समर्थन, सरस्वती के प्रति उनकी भक्ति, कुल्ली से उनकी मुलाकात- एक सामाजिक रूप से अस्वीकृत व्यक्ति, और हिंदी साहित्य के प्रति उनकी प्रतिबद्धता शामिल है।
1942 से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया। उनकी पहली कविता जन्मभूमि प्रभा नामक मासिक पत्र में जून 1920 में, पहला कविता संग्रह 1923 में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध बंग भाषा का उच्चारण अक्टूबर 1920 में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ दारागंज में उनके निवास के आस पास रहने वाले पुराने लोगों से सुनी बातों की चर्चा लोग करते हैं। मां सरस्वती के वरदपुत्र महाप्राण निराला के पद्य और गद्य उनकी यश गाथा के गवाह हैं। शायद इसीलिए निराला जी ने अपना जन्मदिन वसंत ही माना। हिंदी साहित्य के सूर्य महाप्राण निराला का जन्मदिवस वसंत पर मनाने की परंपरा भी तभी से चली आ रही है। निराला जी थे ही निराले, तभी तो उन्हें महाप्राण माना- जाना गया। निराला जी का जितना साहित्य अजर-अमर है, उससे ज्यादा उनका व्यवहार रूप समाज में आज भी जिंदा है। निराला के नाम एक नहीं कई किंवदंतियां प्रचलित हैं। मसलन, सामने दिख जाने वाले जरूरतमंद को जेब के सारे रुपये दे देना। ठंड में कांपने वाले गरीब को महंगी से महंगी अचलन ओढ़ा देना.. आदि आदि। अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले निराला ने कभी किसी का दान स्वीकार नहीं किया। उनकी समकालीन महादेवी वर्मा की नजर में निराला जी मनुष्यवादी थे। वह उन्हें परमहंस भी मानती थीं। निराला अपने आखिरी समय में बहुत बीमार पड़े। हर्निया का भयंकर दर्द था। महादेवी वर्मा के शब्दों में वह एक फटी चादर पर लेटे हुए कराह रहे थे। अब मैं क्या करूं? घर भी दूर। डॉक्टर से बात की। अस्पताल ले जानेे का इंतजाम किया। भयंकर दर्द के बावजूद निराला जी बोलेेे- यह अस्पताल अमीरों के लिए है गरीबों के लिए नहीं। उन्होंने कहा- ऐसी जगह इलाज नहीं करा सकते जहां गरीबों का इलाज न होता हो और वह वापस लौट आए। (हिफी)

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