(महासमर की महागाथा-42) मजहब में चमत्कार व संस्कार

(हिफी डेस्क-हिफी फीचर)
मजहबों के अंदर करामातें, चमत्कार, भविष्यवाणियाँ आदि प्राकृतिक नियम के विरुद्ध बातें मजहब की सचाई के सबूत के रूप में पेश की जाती हैं। इससे केवल इतना ही प्रकट होता है कि मजहब पर विश्वास रखने वाले लोगों की अधिकतर संख्या ऐसी होती है, जिनके दिमाग में अभी तक सच और झूठ जाँचने की ताकत पैदा नहीं हुई। प्रथम तो वे हर एक सुनी-सुनाई किस्सा-कहानी पर तुरंत विश्वास कर लेते हैं। उनको यह विचार नहीं आता कि जब संसार में इतना झूठ बोला जाता है तो कहीं कहने वाला झूठ ही तो नहीं कह रहा, या यह कि जब लोगों की समझ बहुत कम है तो संभव है कि उसकी आँखों या समझ ने धोखा खाया हो, या यह कि जैसे कई लोगों की वैचारिक शक्ति बहुत जोरदार होती है, तो संभव है कि वह अपने विचार को ही घटनाओं के रूप में बता रहा हो, या सबसे बढ़कर यह संभव है कि उसको बतानेवाला उसे धोखा देता हो। जब कोई खेल करनेवाला मदारी हमारे सामने ऐसे करतब करता है तो हम समझ लेते हैं कि हमारी नजर का धोखा था। परंतु मजहबी शर्तें करने वाला व्यक्ति जब अचंभा सा करता है तो वह हमारे लिए बड़ा चमत्कार हो जाता है।
जब मूसा ने मिस्र के बादशाह के सामने चमत्कार किए तो वहाँ के विद्वानों को बता दिया कि मेरे हाथ के मामूली करतब थे, जिन्हें वे भी कर सकते थे। दूसरी बात उनके अंदर एक मिलावट या चालाकी होती है। जैसे कि खेल-तमाशों में तमाशा करने वाला किसी-न-किसी व्यक्ति को अपने साथ मिला लेता है, उसी प्रकार मजहबी आंदोलन चलाने वाला किसी-न-किसी को अपने भेद में शामिल कर लेता है, जिससे हर चमत्कार और भविष्यवाणी सफल हो सकती है। जब कहा जाता है कि ईसा कब्र फाड़कर आसमान में उड़ गया। उसके प्रमाण के तौर पर यह पेश किया जाता है कि एक-दो बूढ़ी औरतों ने देखा। इन दो औरतों की गवाही एक तरफ है और एक असंभव बात दूसरी तरफ। इस गवाही के आधार पर सुनते-सुनाते सारा ईसाई जगत् इस कारामात पर विश्वास करता है। मजहबी नेता इस बात का विशेष
ध्यान रखते हैं कि ये सारे काम उन लोगों के द्वारा करवाएँ, जिनकी अक्ल पर परदा डाल दिया गया होता है, वे स्वयं जनसाधारण के साथ प्रत्येक के संपर्क में नहीं आते। एक बात कही जाती है, जो याद रखनी चाहिए-कुछ आदमियों को हमेशा के लिए धोखे में रखा जा सकता है। सब लोगों को कुछ देर के लिए धोखा दिया जा सकता है परंतु सभी को सदा के लिए धोखे में नहीं रखा जा सकता।
मजहब के साथ मिली हुई एक चीज संस्कार है, जो जीवन में परिवर्तन पैदा कर सकता है। एक पत्थर पहाड़ पर पड़ा है। वहाँ उसकी कोई हैसियत नहीं। जब उसे वहाँ से लाकर सड़क पर डाल दिया जाता है तो उसकी हैसियत बदल जाती है। उस पर थोड़ा काम करके जब उसे दीवार में लगाते हैं तब वह एक लाभकारी चीज बन जाती है। उसे तराशकर सुंदर मूर्ति बना देने पर लोग उसके सामने सिर झुकाना शुरू कर देते हैं। पत्थर में ये परिवर्तन संस्कार के कारण पैदा हुए।
हर एक मजहब ने खास-खास रस्में या रीतियाँ और संस्कार आवश्यक ठहराए हैं। हिंदू समाज में वर्ण-व्यवस्था प्राचीन समय से चली आ रही है, जैसा भगवद्गीता में कहा गया है, ये वर्ण मुझसे बने हैं। हर एक मनुष्य अपने-अपने कर्म के अनुसार विशेष वर्ण में प्रविष्ट होता है। अध्याय अठारह के श्लोक 419, 422, 433 और 444 में वर्ण-धर्म के संबंध में बड़ी उच्च कोटि की शिक्षा मिलती है। यों तो संस्कार सोलह हैं, स्त्री-पुरुष के संयोग का समय वेदमंत्रों के साथ होना चाहिए, यह प्रकट करता है कि वह कर्म भोग मात्र की इच्छा से नहीं, बल्कि संतानोत्पत्ति को धर्म समझकर किया जा रहा है, ताकि जो संतान हो वह विषय-भोग का परिणाम न हो, धर्म का फल हो। दूसरा प्रमुख संस्कार यज्ञोपवीत गुरु के पास जाने के समय किया जाता था। बच्चे का विद्यारंभ एक नए जन्म के समान था। तीसरा बड़ा संस्कार विवाह विद्याध्ययन समाप्त करने के बाद गृहस्थ-प्रवेश के समय किया जाता था। चौथा संस्कार मृतक संस्कार था, जिसमें मृत शरीर औषध सहित जला दिया जाता था। आज के मेडिकल विज्ञान और स्वास्थ्य ज्ञान ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मुरदे को जला देना ही उसे दूर करने का सबसे अच्छा तरीका है। पश्चिमी देशों के नगरों में कब्रिस्तानों की संख्या इतनी अधिक हो गई है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा साबित हो रहे हैं और लोकमत मुरदा जलाने के पक्ष में हो रहा है।
सभी मजहबों के सिद्धांत आरंभ में प्रायः एक जैसे ही होते हैं। उनको मानने के तरीकों की दृष्टि से दो बड़े समूह स्पष्ट नजर आते हैं। एक तो सेमेटिक या पैगंबरी समूह और दूसरा आर्य। सेमेटिक विचार यहूदी कबीले के खानदानी किस्सों और उसके हसब-नसब के सिलसिले पर आश्रित हैं। यहूदी लोग अपने कवियों, जिन्हें वे पैगंबर कहते थे (दोनों शब्दों का अर्थ एक दृष्टि से एक ही है), को खास तौर पर अपना समझते थे। अन्य लोगों को वे कभी अपने कबीले में शामिल नहीं करते थे। आश्चर्य की बात है कि एक कबीले की परंपराओं को (पुरानी दुनिया में हर एक कबीले की अपनी-अपनी परंपराएँ होती थीं) ईसाई और इसलामी दुनिया ने सभी मनुष्यों के लिए ठीक मान लिया है।
इसके मुकाबले पर केवल हिंदू जाति है, जिसने प्राचीन आर्य नस्ल की सभ्यता को बचाए रखा है। सबसे पहले उसको बौद्ध मत का मुकाबला करना पड़ा। एक हजार वर्ष तक दोनों का पारस्परिक संघर्ष जारी रहा। कुमारिल भट्ट और शंकराचार्य के प्रयत्न से वैदिक धर्म की विजय हुई-अधिकतर इस कारण कि बौद्ध. मत में कोई खास नई बात नहीं थी। बौद्ध मत ने प्रायः सबकुछ प्राचीन सभ्यता से लिया था। ज्यों ही वह इससे निवृत्त हुआ, हिंदू धर्म को इसलाम का मुकाबला करना पड़ा। इसलाम की एक लहर अफ्रीका से होकर यूरोप गई और दूसरी मिस्र, ईरान और अफगानिस्तान को विजित करती हुई इधर हिंदुस्तान में आई। यह संघर्ष लगभग आठ सौ वर्षों तक जारी रहा। इसमें पंजाब, राजपूताना और महाराष्ट्र ने धर्म की रक्षा के लिए त्याग किया और वीरों के बलिदान में विशेष रूप से भाग लिया। राणा प्रताप, गुरु गोविंद सिंह, शिवाजी इत्यादि के विषय में ज्यादा कहना व्यर्थ जैसा है। इस देश के सभी लोगों को मालूम है कि इन लोगों ने धर्म की रक्षा करने के लिए कितनी ही मुसीबतों का सामना हँसते हुए किया था।-क्रमशः (हिफी)