अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

शंकर जी प्रभु श्रीराम की स्तुति करके अपने कैलाशधाम को चले जाते हैं। इतनी कथा सुनाकर काकभुशुंडि जी गरुड़ से कहते हैं कि यह कथा तीनों प्रकार के ताप हरने वाली है। अब आगे की कथा सुना रहा हूं। अयोध्या में नित्य नए मंगल हो रहे हैं। इतना सुख है कि प्रभु श्री राम के सभी मित्र अपने घर की सुध ही भूल गये हैं। छह महीने का समय बीत गया, तब प्रभु श्रीराम ने अपने सखाओं को बुलाया और उनकी मित्रता की सराहना की फिर कहा हे मित्रगण अब, आप अपने-अपने घर को जाएं। किसी की घर जाने की इच्छा नहीं हो रही है लेकिन प्रभु ने सभी को सुन्दर वस्त्र-आभूषण पहना कर विदा किया। हनुमान जी ने सुग्रीव से आज्ञा मांग कर कुछ दिन और प्रभु की सेवा करने की इच्छा जतायी तो सुग्रीव ने उन्हें अनुमति दे दी। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो शंकर जी प्रभु श्रीराम की स्तुति कर रहे हैं-
गुनसील कृपा परमायतनं, प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं।
रघुनंद निकंदय द्वंद्व धनं, महिपाल विलोकय दीन जनं।
बार बार बर मागहुं हरषि देहु श्रीरंग।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग।
बरनि उमापति रामगुन हरषि गए कैलास।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब विधि सुख प्रद बास।
शंकर जी कहते हैं आप गुण, शील और कृपा के परम धाम हैं। आप लक्ष्मी के पति हैं। मैं आपको निरंतर प्रणाम करता हूं। हे रघुनंदन, आप जन्म-मरण सुख-दुख, राग-द्वेष आदि द्वन्द्व समूहों का नाश कीजिए। हे पृथ्वी का पालन करने वाले राजन, इस दीन जन की तरफ भी दृष्टि डालिए। मैं आपसे बार-बार यही वरदान मांगता हूं कि मुझे आपके चरण कमलों की अचल भक्ति और आपके भक्तों का सत्संग सदैव प्राप्त हो। हे लक्ष्मीपति, हर्षित होकर मुझे यही दीजिए।
इस प्रकार श्री रामचन्द्र जी के गुणों का वर्णन करके उमापति महादेव जी हर्षित होकर कैलाश पर्वत पर चले गये, तब प्रभु श्रीराम ने विभीषण और सुग्रीव आदि वानरों को सब प्रकार से सुख देने वाले आवास (डेरे) दिलवाए।
सुनु खगपति यह कथा पावनी, त्रिविध ताप भवभय दावनी।
महाराज कर सुभ अभिषेका, सुनत लहहिं नर विरति विबेका।
जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं, सुख संपति नाना विधि पावहिं।
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं, अंतकाल रघुपतिपुर जाहीं।
सुनहिं विभुक्त विरत अरु बिषई, लहहिं भगति गति संपति नई।
खगपति रामकथा मैं बरनी, स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी।
बिरति विवेक भगति दृढ़ करनी, मोहनदी कहं सुन्दर तरनी।
नित नव मंगल कौसलपुरी, हरषित रहहिं लोग सब कुरी।
नित नई प्रीति रामपद पंकज, सबकें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज।
मंगन बहु प्रकार पहिराए, द्विजन्ह दान नाना विधि पाए।
ब्रह्मानंद मगन कपि, सबके प्रभु पद प्रीति।
जात न जाने दिवस तिन्ह गए मास षट बीति।
काग भुशुंडि जी कहते हैं कि हे खगपति गरुड़ जी सुनिए, यह कथा सभी को पवित्र करने वाली है। दैहिक, दैविक और भौतिक तीनों प्रकार के ताप हरने वाली और जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाली है। महाराज श्री रामचन्द्र जी के कल्याणमय राज्याभिषेक का चरित्र निष्काम भाव से सुनकर मनुष्य वैराग्य और ज्ञान प्राप्त करते हैं और जो मनुष्य सकाम अर्थात् किसी विशेष इच्छा के साथ सुनते और गाते हैं, वे अनेक प्रकार के सुख और सम्पत्ति पाते हैं। वे जगत में देव दुर्लभ सुखों को भोगकर अंतकाल में श्री रघुनाथ जी के परमधाम में चले जाते हैं। इस कथा को जो जीवन्मुक्त, विरक्त और विषयी सुनते हैं वे क्रमशः भक्ति, मुक्ति और नवीन संपत्ति पाते हैं। हे पक्षिराज गरुड़ जी, मैंने अपनी बुद्धि की पहुंच के अनुसार राम कथा का वर्णन किया है जो जन्म-मरण के भय और दुख को हरने वाली है। यह वैराग्य, विवेक और भक्ति को दृढ़ करने वाली है तथा मोक्ष रूपी नदी को पार करने के लिए सुन्दर नाव है।
अवधपुरी में नित नए उत्सव हो रहे हैं। सभी वर्गों के लोग हर्षित होते हैं। श्रीराम जी के चरण कमलों में, जिन्हें श्री शिव जी, मुनिगण और ब्रह्मा जी भी नमन करते हैं, सबकी नित्य नवीन प्रीति होती है। भिक्षुकों को बहुत प्रकार से वस्त्राभूषण पहनाए गये और ब्राह्मणों ने नाना प्रकार से दान पाए। लंका से साथ आए वानर गण भी ब्रह्मानंद में मग्न हैं। प्रभु के चरणों में सबका प्रेम है। उन्हें दिन बीतने की सुध ही नहीं है और बात-बात में ही छह महीने बीत गये।
बिसरे गृह सपनेहुं सुधि नाहीं, जिमि परद्रोह संत मन माहीं।
तब रघुपति सब सखा बोलाए, आइ सबन्हि सादर सिरुनाए।
परम प्रीति समीप बैठारे, भगत सुखद मृदुबचन उचारे।
तुम्ह अति कीन्ह मोरि सेवकाई, मुख पर केहि विधि करौं बड़ाई।
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे, मम हित लागि भवन सुख त्यागे।
अनुज राज संपति बैदेही, देह गेह परिवार सनेही।
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहि समाना, मृषा न कहउं मोर यह बाना।
सबके प्रिय सेवक यह नीती, मोरे अधिक दास पर प्रीती।
अब गृह जाहु सखा सब भजेहु मोहि दृढ़ नेम।
सदा सर्बगत सर्बहित जानि करेहु अति प्रेम।
रीछ-वानरों को इतने दिन बीतने के बाद भी अपने घरों की याद नहीं है ठीक उसी प्रकार जैसे संतों के मन में दूसरों से द्रोह करने की बात कभी नहीं आती। श्रीराम जी को सभी की चिंता है, इसलिए उन्होंने सब सखाओं को बुलाया। सबने आकर आदर सहित सिर नवाया। बड़े ही पे्रम से श्रीराम जी ने उनको अपने पास बैठाया और भक्तों को सुख देने वाले कोमल बचन कहे। प्रभु श्रीराम ने कहा- तुम लोगों ने मेरी बड़ी सेवा की है। मुंह पर किस प्रकार तुम्हारी बड़ाई करूं। मेरे हित के लिए तुम लोगों ने घरों को तथा सब प्रकार के सुखों को त्याग दिया, इससे तुम लोग मुझे अत्य्रत प्रिय लग रहे हों। छोटे भाई, राज्य, सम्पत्ति, जानकी, अपना शरीर, घर, कुटुम्ब और मित्र-ये सभी मुझे प्रिय हैं लेकिन तुम्हारे समान नहीं। मैं झूठ नहीं कहता, यह मेरा स्वभाव है। सेवक सभी को प्यारे लगते हैं, यह नीति (नियम) है। मेरा तो सेवक (दास) पर स्वाभाविक प्रेम रहता है। हे सेखा गण! अब सब लोग अपने-अपने घर
जाओ, वहां दृढ़ नियम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सर्व व्यापक और सबका हित करने वाला जानकर अत्यन्त प्रेम करना।
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए, को हम कहां बिसरि तन गए।
एक टक रहे जोरि कर आगे, सकहिं न कछु कहि अति अनुरागे।
प्रभु के बचन सुनकर सबके सब प्रेम मगन हो गये। हम कौन हैं और कहां और यहां तक उनको अपने शरीर की सुध भी नहीं रही। वे प्रभु के सामने हाथ जोड़कर टकटकी लगाए देखते ही रह गये। अत्यंत प्रेम के कारण कुछ कह नहीं सकते। -क्रमशः (हिफी)

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