सम-सामयिक

बढ़ता पारा घटता जल स्तर हांफता पर्यावरण !

 

मार्च बीतते-बीतते ही सम्पूर्ण उत्तर भारत गर्मी की चपेट में आ गया है वैज्ञानिकों का पूर्वानुमान है कि मौजूदा वर्ष मानव सभ्यता का सबसे गर्म मौसम वाला वर्ष होगा और इसके साथ ही एक बार फिर जल संकट की स्थिति उत्पन्न हो गई है, हाल ही में कर्नाटक के बंगलुरु को जिस तरह से जल संकट का सामना करना पड़ा, उसके ट्रेलर से ही जल का अंधाधुंध दोहन कर रहे लोगों को सावधान हो जाने की जरूरत है। इन बदलावों के बीच भोगौलिक पर्यावरण बिगड़ने के आसार बन रहे हैं।

सच है कि ग्लोबल वॉर्मिंग ने दुनिया के दर पर दस्तक दे दी है। जिस गति से पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है, वह आम आदमी के लिए तो कष्टकारी है ही, किसान के लिए संकट ज्यादा बढ़ा है। इसका सीधा असर खेतों की उत्पादकता पर पड़ रहा है, जिसके मुकाबले के लिए सुनियोजित तैयारी की जरूरत है। किसानों को उन वैकल्पिक फसलों के बारे में सोचना होगा, जो कम पानी व अधिक ताप के बावजूद बेहतर उत्पादन दे सकें। अन्न उत्पादकों को धरती के तापमान से उत्पन्न खतरों के प्रति सचेत करने की जरूरत है, यदि समय रहते ऐसा नहीं होता तो मान लीजिए कि हम आसन्न संकट की अनदेखी कर रहे हैं। यह मसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह मुद्दा दुनिया की सबसे बड़ी आबादी की खाद्य श्रृंखला से भी जुड़ा है। यानी गाहे- बगाहे इस संकट की मार से देश का हर नागरिक प्रभावित होगा। दरअसल, दुनिया के तापमान पर निगाह रखने वाली वैश्विक संस्था डब्ल्यू.एम.ओ की रिपोर्ट चिंता बढ़ा रही है जिसमें कहा गया है कि पिछले एक दशक में पृथ्वी का तापमान औसत तापमान से अधिक ही रहा है। फिक्र की बात यह है कि इसके मौजूदा साल में और अधिक रहने की आशंका जतायी जा रही है। यह वैज्ञानिक सत्य है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि से पूरी दुनिया का मौसम चक्र गहरे तक प्रभावित होता है। देर-सबेर इससे मनुष्य जीवन का हर पहलू प्रभावित होगा। दरअसल, पिछले कुछ वर्षों में ग्लोबल वॉर्मिंग संकट के चलते पूरी दुनिया में यह कह पाना कठिन है कि कहां अप्रत्याशित बारिश होगी और कहां कष्टकारी तापमान बढ़ेगा। इसके बावजूद विकसित देशों की सरकारें इस गंभीर संकट के प्रति सचेत नजर नहीं आतीं। ऐसे में आशंका जतायी जा रही है कि इस सदी के मध्य तक दुनिया का तापमान डेढ़ डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ सकता है, जो मानव जीवन चक्र व फसलों के लिए घातक साबित हो सकता है। यह सर्वविदित है कि दुनिया के बड़े राष्ट्र कार्बन उत्सर्जन को कम करने तथा जीवाश्म ईंधन पर रोक लगाने के लिए सचेत नजर नहीं आ रहे हैं। पूरी दुनिया में बड़े राष्ट्र विकास के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों का बेरहमी से दोहन करने में लगे हैं। वे इस बात को लेकर गंभीर नजर नहीं आ रहे हैं कि आज दुनिया में औद्योगिकीकरण से पहले के समय के मुकाबले विश्व का तापमान निर्धारित सीमा को पार कर चुका है जो हमारे लिये एक खतरे की घंटी जैसा है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि हम मौसमी बदलाव के अनुकूल खुद को उसी अनुपात में तेजी से ढाल नहीं पा रहे हैं। दरअसल, हमें मौसम के व्यवहार में तेजी से हो रहे बदलाव के अनुरूप अपनी खेती के पैटर्न में भी बदलाव की जरूरत है। उन परंपरागत फसलों पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है जो कम बारिश व अधिक तापमान में ठीक-ठाक उपज देने में सक्षम हैं। एक समय भारत में बड़े भू-भाग में हम मोटे अनाज का उत्पादन करते थे, जो कम बारिश में भी बेहतर फसल दे सकता था लेकिन कालांतर हमने अधिक सिंचाई वाली फसलों का उत्पादन व्यावसायिक स्तर पर करना तेजी से शुरू कर दिया। मौसम में बदलाव का असर खाद्यान्न ही नहीं, सब्जियों, फल-फूलों पर भी गहरे तक पड़ रहा है। ऐसे में सिर्फ कागजी कार्रवाई के बजाय धरातल पर ठोस कदम उठाने की जरूरत है।

वर्तमान में सभी क्षेत्रों में जल की बढ़ती मांग तथा वर्षा के पैटर्न में व्यवधान के कारण भूजल पर निर्भरता बढ़ गई है। इसके उचित प्रबंधन और स्थायी रूप से उपयोग हेतु उचित कार्रवाई के साथ ठोस प्रयास किये जाने की महती आवश्यकता है। आंकड़ों पर गौर करें तो संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भूजल पृथ्वी के सभी तरल मीठे पानी का लगभग 99 प्रतिशत है जिसमें समाज को सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ प्रदान करने की क्षमता है। भूजल पीने के पानी सहित घरेलू उद्देश्यों के लिये उपयोग किये जाने वाले कुल जल का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा है। भारत की जनसंख्या लगभग 1.4 अरब है जो विश्व में सर्वाधिक है। 2050 तक जनसंख्या बढ़कर 1.7 अरब होने का अनुमान है। भारत में दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है, लेकिन लगभग 4 प्रतिशत लोगों के लिए ही पर्याप्त जल संसाधन हैं। भारत में लगभग 90 मिलियन लोगों को सुरक्षित पेयजल का अभाव है। भारत की सामान्य वार्षिक वर्षा 1100 मिमी है जो विश्व की औसत वर्षा 700 मिमी से अधिक है। भारत मौसम विज्ञान विभाग के आंकड़ों के मुताबिक जून- अगस्त 2023 के दौरान दक्षिण-पश्चिम मानसून 42 प्रतिशत जिलों में सामान्य से नीचे रहा है। अगस्त 2023 में देश में बारिश सामान्य से 32 प्रतिशत कम और दक्षिणी राज्यों में 62 प्रतिशत कम थी। पिछले 122 वर्षों में अर्थात 1901 के पश्चात भारत में पिछले वर्ष अगस्त 23 में सबसे कम वर्षा हुई। कम वर्षा से न केवल कृषि पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा, बल्कि इससे देश के विभिन्न क्षेत्रों में पानी की भारी कमी भी हो सकती है। जल संसाधन मंत्रालय का अनुमान है कि देश में 2025 तक कुल पानी की माँग 1,093 बीसीएम और 2050 में 1,447 बीसीएम होगी। परिणामस्वरूप अगले 10 वर्षों में पानी की उपलब्धता में भारी कमी की संभावना है। भारत विश्व में भूजल का सबसे अधिक दोहन करता है। यह मात्रा विश्व के दूसरे और तीसरे सबसे बड़े भूजल दोहन कर्ता चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के संयुक्त दोहन से भी अधिक है फिर भी देश में लगभग 76 प्रतिशत लोग पानी की कमी से जूझ रहे हैं। बता दें कि देश में मौजूद भूजल का केवल 8 प्रतिशत ही पेयजल के रूप में उपयोग किया जाता है। इसका 80 प्रतिशत भाग सिंचाई में और 12 प्रतिशत भाग उद्योगों द्वारा उपयोग किया जाता है। जल के अत्यधिक दोहन को कम करने के लिए कई उपाय हैं। आधुनिक तकनीकों का उपयोग करके पानी की खपत को मापा और सीमित किया जा सकता है। साथ ही जल स्रोतों का विस्तार, जल दक्षता में सुधार, और जल संसाधनों की रक्षा करने से पानी की उपलब्धता और गुणवत्ता में सुधार हो सकता है।

अभी भी देश के बड़े भूभाग पर जहां जल मुहैया है लोग अपनी दैनिक आवश्यकता से कई गुना अधिक जल नालियों में बहा कर बर्बाद कर रहे हैं घर-घर में जेट पंप लगा कर दैनिक जरूरत से कई गुना ज्यादा पानी को टैंक में स्टोर करना और शाम या सुबह को इस जल को धूप से गर्म होने या बासी हो जाने के नाम पर नालियों में बहा दिया जाता है ऐसे लोग बहुत बड़ा अपराध कर रहे हैं बेशक हो सकता है कि उन्हें अपने कृत्य के परिणाम का अभी अहसास न हो लेकिन जल की बर्बादी बहुत बड़ा अपराध है। (हिफी)

(मनोज कुमार अग्रवाल-हिफी फीचर)

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