
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
कागभुशुंडि जी गरुड़ जी को बता रहे हैं कि लोमश मुनि से जब उन्होंने सगुण ब्रह्म की आराधना के बारे में पूछा तो मुनि ने कहा कि भगवान तो अनुभव से जानने योग्य और निराकार हैं। इस पर कागभुशुंडि जी ने कहा कि जब तक मैं श्री रामचन्द्र जी को अपनी आंखों से नहंी देख लेता तब तक निर्गुण उपदेश नहीं सुन पाऊँगा। इस प्रकार मुनि लोमश के साथ कागभुशंडि जी उत्तर-प्रतिउत्तर करने लगे तो मुनि में क्रोध के लक्षण प्रकट हुए। बहुत अवज्ञा करने पर ज्ञानियों में भी क्रोध उत्पन्न हो जाता है जैसे चंदन की लकड़ी बहुत अधिक रगड़ें तो आग पैदा हो जाती हैं। मुनि लोमश ने क्रोध में आकर श्राप दिया कि तुम कौए के समान सभी से डरते हो, इसलिए कौआ बन जाओ। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो कागभुशुंडि जी मुनि लोमश से अपनी भावना व्यक्त कर रहे हैं-
भरि लोचन बिलोकि अवधेसा, तब सुनिहउँ निर्गुन उपदेसा।
मुनि पुनि कहि हरि कथा अनूपा, खंडि सगुन मत अगुन निरूपा।
तब मैं निर्गुन मत कर दूरी, सगुन निरूपउँ करि हठ भूरी।
उत्तर-प्रतिउत्तर मैं कीन्हा, मुनि तन भए क्रोध के चीन्हा।
सुनु प्रभु बहुत अवग्या किएं, उपज क्रोध ग्यानिन्ह के हिएं।
अति संधरषन जौं कर कोई, अनल प्रगट चंदन ते होई।
बारंबार सकोप मुनि करइ निरूपन ग्यान।
मैं अपने मन बैठ तब करउँ विविधि अनुमान।
क्रोध कि द्वैत बुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
माया बस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान।
कागभुशुंडि जी ने मुनि लोमश से कहा कि पहले नेत्र भरकर अयोध्यानाथ श्रीरामजी को देख लूं तब निर्गुण का उपदेश सुनूंगा। मुनि ने तब फिर हरि की अनुपम कथा कहकर सगुण मत का खंडन करके निर्गुण का निरूपण किया तब मैं निर्गुण मत को हटाकर (काटकर) बहुत हठ करके सगुण का निरूपण करने लगा। मैंने उत्तर-प्रतिउत्तर किया, इससे मुनि के शरीर में क्रोध के चिह्न उत्पन्न हो गये। कागभुशुंडि जी ने गरुड़ से कहा कि हे प्रभो सुनिए, बहुत अपमान करने पर ज्ञानी के भी हृदय में क्रोध उत्पन्न हो जाता है। यदि कोई चंदन की लकड़ी को बहुत अधिक रगड़े तो उससे भी आग प्रकट हो जाएगी। मुनि बार-बार क्रोध से ज्ञान का निरुपण करने लगे तब मैं बैठा-बैठा अपने मन में अनेक प्रकार के अनुमान करने लगा। बिना द्वैत बुद्धि के क्रोध कैसा और बिना अज्ञान के क्या द्वैत बुद्धि हो सकती है। माया के वश में रहने वाला परिच्छिन्न जड़-जीव क्या ईश्वर के समान हो सकता है?
कबहुँ कि दुख सब कर हित ताकें, तेहि कि दरिद्र परस मनि जाकें।
परद्रोही कि होहिं निसंका, कामी पुनि कि रहहिं अकलंका।
बंस कि रह द्विज अनहित कीन्हें, कर्म कि होहिं स्वरूपहिं चीन्हें।
काहू सुमति कि खल संग जामी, सुभ गति पाव कि परत्रियगामी।
भव कि परहिं परमात्मा विंदक, सुखी कि होहिं कबहुँ हरि निंदक।
राजु कि रहइ नीति बिनु जानें अघ कि रहहिं हरिचरित बखानें
पावन जस कि पुन्य बिनु होई, बिनु अघ अजस कि पावइ कोई।
लाभु कि किछु हरि भगति समाना, जेहिं गावहिं श्रुति संत पुराना।
हानि कि जग एहि सम किछु भाई, भजिअ न रामहि नर तनु पाई।
अघ कि पिसुनता सम कछु आना, धर्म कि दया सरिस हरिजाना।
कागभुशुंडि जी मन में विचार कर रहे हैं कि सबका हित चाहने से क्या कभी दुख हो सकते हैं? जिसके पास पारसमणि है, उसके पास क्या दरिद्रता रह सकती है, दूसरे से द्रोह करने वाले क्या निर्भय हो सकते है। और कामी क्या कलंक रहित (बेदाग) रह सकते हैं? ब्राह्मण का बुरा करने से क्या वंश रह सकता है? अपने स्वरूप की पहचान अर्थात् आत्मज्ञान होने पर क्या आसक्तिपूर्वक कर्म हो सकते हैं? दुष्टों के संग से क्या किसी के सुबुद्धि उत्पन्न हुई है? परस्त्रीगामी क्या उत्तम गति पा सकता है? परमात्मा को जानने वाले कहीं जन्म-मृत्यु के चक्कर में फंस सकते हैं? भगवान की निंदा करने वाले क्या कभी सुखी हो सकते हैं? नीति बिना जाने क्या राज्य रह सकता है? और श्री हरि के चरित्र वर्णन करने पर क्या पाप रह सकता है? बिना पुण्य के क्या पवित्र यश प्राप्त हो सकता है? बिना पाप के भी क्या कोई अपयश पा सकता है? जिसकी महिमा वेद, संत और पुराण गाते हैं, उस हरि भक्ति के समान क्या कोई दूसरा लाभ भी है? हे भाई गरुड़ जी, जगत में क्या इसके समान दूसरी भी कोई हानि है कि मनुष्य का शरीर पाकर भी श्रीराम जी का भजन न करें? चुगल खोरी के समान क्या कोई दूसरा पाप है? और हे गरुड़ जी, दया के समान क्या कोई दूसरा धर्म है?
एहि विधि अमिति जुगुति मन गुनऊँ, मुनि उपदेस न सादर सुनऊँ।
पुनि पुन सगुन पच्छ मैं रोपा, तब मुनि बोलेउ बचन सकोपा।
मूढ़ परम सिख देउँ न मानसि, उत्तर प्रतिउत्तर बहु आनसि।
सत्य बचन बिस्वास न करही, वायस इव सबही ते डरही।
सठ स्वपच्छ तव हृदय बिसाला, सपदि होइ पच्छी चंडाला।
लीन्ह श्राप मैं सीस चढ़ाई, नहिं कछु भय न दीनता आई।
तुरत भयउँ मैं काग तब पुनि मुनि पद सिरु नाई।
सुमिरि राम रघुवंस मनि हरषित चलेउँ उड़ाइ।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि इस प्रकार अनगिनत युक्तियां मन में बिचारता था और आदर के साथ मुनि का उपदेश नहीं सुनता था। मैंने जब बार-बार सगुण का पक्ष स्थापित किया तब मुनि क्रोध भरे बचन बोले- अरे मूर्ख, मैं तुझे सर्वोत्तम शिक्षा देता हूं तो भी तू उसे नहीं मानता और बहुत से उत्तर प्रत्युत्तर (दलीलें) लाकर रखता हैं मेरे सत्य वचन पर विश्वास नहीं करता, कौए की भांति सभी से डरता है। अरे मूर्ख, तेरे हृदय में अपने पक्ष का बड़ा भारी हठ है अतः तू शीघ्र चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि मैंने आनंद के साथ मुनि के श्राप को सिर पर चढ़ा लिया। उससे मुझे न भय हुआ, न दीनता आयी, तब मैं तुरंत ही कौआ बन गया। फिर मुनि के चरणों में सिर नवाकर और रघुकुल शिरोमणि श्री रामजी का स्मरण करके मैं हर्षित होकर उड़ चला। -क्रमशः (हिफी)
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